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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रथम चरण (1885 से 1915 ई.)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रथम चरण (1885 से 1915 ई.) भारत की स्वतन्त्रता हेतु लक्षित भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन आधुनिक विश्व के सबसे बड़े व सफल आन्दोलनों में से एक है। यह आन्दोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध भारतीय जनमानस की प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति था। इस आन्दोलन में देश के करोड़ों लोगों ने अपनी विभिन्न विचारधाराओं के साथ भाग लिया तथा इसको आगे बढ़ाने में योगदान दिया। आरम्भ में सीमित परिमाण में प्रारम्भ यह आन्दोलन धीरे-धीरे राष्ट्रमुक्ति हेतु एक विराट जन आन्दोलन बन गया। यह इस आन्दोलन की ही शक्ति थी कि विश्व की सबसे अजेय मानी जाने वाली औपनिवेशिक शक्ति को घुटने टेकने हेतु बाध्य कर दिया।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, यह वर्षों से विकसित हो रहे राष्ट्रवादी विचारों की परिणति थी। इन राष्ट्रवादी विचारों के परिणामस्वरूप ही भारतीय भू-भाग एक राष्ट्र के रूप में संगठित हुआ, जिससे भारतीयों में एकता की भावना का संचार हुआ।

भारत में राष्ट्रवाद का उद्भव

अंग्रेजी शासनकाल के अन्तर्गत विभिन्न कारणों से भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ। ब्रिटिश शासन एवं विश्व को प्रभावित करने वाली नवीन प्रवृत्तियों तथा भारतीय में उत्पन्न एवं विकसित विभिन्न कारकों की क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

राष्ट्रवाद के उदभव के प्रमुख कारण

भारत में राष्ट्रवाद के उद्भव के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे 

हितों में विरोधाभास

ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय हित एवं उपनिवेशवादी हित में स्पष्ट विरोधाभास स्थिति थी। इन विरोधाभासों को कृषि क्षेत्र, हस्तशिल्प एवं अन्य उद्योगों सहित अन्य आर्थिक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। इसके अन्तर्गत भारत को कच्चे माल के एक स्रोत के रूप में देखा गया तथा कालान्तर में एक बाजार के रूप में, जो ब्रिटिश उद्योगों के विकास में सहायक हो। इसके अतिरिक्त भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग का उपनिवेशवादी हितों के प्रति विरोध था।

प्रशासनिक-आर्थिक एकीकरण

ब्रिटिश शासन में व्याप्त अव्यवस्थाओं को सुधारने हेतु तथा सुव्यवस्थित व शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के गठन हेतु राजनैतिक, आर्थिक, प्रशासनिक एकीकरण के प्रयास किए गए। इन्होंने पूरे भारत में एक ही प्रकार की न्याय व्यवस्था तथा प्रशासनिक संगठनों का गठन किया।

इस प्रकार इसने प्राचीनकाल से चली आ रही सांस्कृतिक एकता को एक नए प्रकार की राजनैतिक एकता प्रदान की।

प्रशासनिक सुविधाओं तथा रणनीतिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए संचार-साधनों का विकास किया संचार-साधनों के विकास किया गया। एकीकरण की इस प्रक्रिया से देश के विभिन्न भागों के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गए तथा संचार साधनों के विकास ; जैसे-डाक और तार सेवाएं, रेल लाइनों का विकास आदि ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को जगाने में योगदान दिया वैसे सरकार द्वारा इन साधनों का विकास प्रशासनिक सुविधा और व्यापारिक लाभ के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इन सुविधाओं से लोगों के आपसी मेल-जोल में वृद्धि हुई और वे देश में हो रही सभी घटनाओं पर ध्यान देने लगे, जिसके बाद वे सरकार के विरुद्ध संगठित हुए।

 प्रेस एवं समाचार-पत्र

मुदण प्रेस के आविष्कार के कारण विचारों का आदान-प्रदान, उनका सम्प्रेषण और जानार्जन कम व्ययकारी तथा अधिक सार्वभौम हो गया। यद्यपि समय-समय पर अंग्रेजी शासकों द्वारा प्रेस पर प्रतिबन्ध लगाए गए, फिर भी भारतीय समाचार का इस काल में बहुत विकास हुआ। 1877 ई. में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिन्दी समाचार-पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इसका वितरण लगभग एक लाख पाठकों तक था। भारतीय समाचार-पत्रों ने जनमत बनाने, राष्ट्रीयता के प्रसार में तथा जनता को शिक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदारवादियों ने अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने में इस माध्यम का बहुत अच्छा उपयोग किया।

पाश्चात्य चिन्तन तथा शिक्षा का प्रभाव

भावाल्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकता के लिए किया गया था, लेकिन इससे शिक्षित भारतीयों को पहुँच पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा तक हो गई। बेन्थम, सीले, मिल्टन, स्पेन्सर, स्टुअर्ट मिल, पेन, रूसो, बालेयर जैसे प्रसिग यूरोपीय विचारकों के अतिवादी और पाश्चात्य विचारों ने भारतीयों में स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता, प्रजातन्त्र, समानता, व्यक्तिवाद एवं स्वशासन की भावनाएँ जगा दी।

सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन

चात्य दर्शन तथा विज्ञान के प्रकाश में विभिन्न धार्मिक विश्वासों, रीति-रिवाजों तथा सामाजिक प्रथाओं का पुन: परीक्षण किया गया तथा इस हेतु विभिन्न संगठन स्थापित किए गए। ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, रामकृष्ण मिशन आदि अस्तित्व में आए, जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार किए।

इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी सुधारवादी संस्थाओं का गठन हुआ। इस आन्दोलन के प्रभाव में आने से लोगों में स्वतन्त्र होने तथा सामाजिक एकीकरण का दृष्टिकोण विकसित हुआ, जिससे राष्ट्रीयता के विकास की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

लॉर्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ

लिटन ने आई ए एस में भर्ती होने की आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई, ताकि भारतीय शिक्षित युवक परीक्षा ही न दे सकें। 1876 से 1878 ई. के बीच के भयंकर अकाल के समय दिल्ली में भव्य दरबार का आयोजन कर लाखों रुपये नष्ट किए गए। इसकी आलोचना में कलकत्ता के एक समाचार-पत्र में लिखा था कि “नीरो बंशी बजा रहा था, जब रोम जल रहा था।” 1878 ई. का वर्नाक्यूलर (देसी भाषा) प्रेस एक्ट तथा 1878 ई. का भारतीय शस्त्र अधिनियम। लिटन की इन नीतियों ने जातीय कटुता को बढ़ाया तथा सरकार विरोधी आन्दोलन को सशक्त किया।

भारत के अतीत का पुन: अध्ययन

सर विलियम जोन्स मोनियर विलियम्स, मैक्समूलर जैसे विद्वानों के प्राचीन भारतीय इतिहास में शोध करने के फलस्वरूप भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का ज्ञान प्राप्त हुआ। कनिंघम जैसे पुरातत्वविदों द्वारा की गई खुदाई ने भारत की महानता एवं गौरव का वह चित्र प्रस्तुत किया, जो रोमा तथा यूनान की प्राचीन सभ्यताओं से किसी भी पक्ष में कम गौरवशाली नहीं था। इसके साथ ही आर जो भण्डारकर, आर एल मित्र, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द आदि विद्वानों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को पुनर्व्याख्यित कर राष्ट्र की एक नई तस्वीर पेश की। इससे आत्मसम्मान, राष्ट्रीय स्वाभिमान, राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई।

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का उत्थान

अंग्रेजों के प्रशासनिक तथा आर्थिक क्षेत्र की नवीन प्रक्रियाओं से नगरों में एक नवीन मध्यम वर्ग का उदय हुआ इस नवीन वर्ग ने तत्परता से अंग्रेजी शिक्षा को ग्रहण कर लिया एवं उन्हें रोजगार, सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। यह नवीन मध्यम वर्ग एक संगठित अखिल भारतीय वर्ग था, जिसकी पृष्ठभूमि तो अलग-अलग थी, लेकिन जान, विचार, मूल्य की अग्रभूमि समान थी। इस वर्ग के ज्यादातर कानून की शिक्षा प्राप्त लोगों को ब्रिटिश कानून की खामियों का ज्ञान था; जिसके आधार पर उन्होंने संघर्ष को बल दिया। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया।

समकालीन आन्दोलनों का प्रभाव

इस समय स्पेन तथा पुर्तगाल के दक्षिणी अमेरिकी उपनिवेशों के स्थान पर नए राष्ट्रीय राज्य स्थापित हो रहे थे। यूरोप में भी यूनान तथा इटली के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम ने सामान्य रूप से तथा आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता संग्राम ने विशेष रूप से भारतीयों को प्रभावित किया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा लाला लाजपत राय ने मैजिनी तथा उसके तरुण इटली आन्दोलन पर व्याख्यान दिए एवं लेख लिखे।

इल्बर्ट बिल विवाद

लॉर्ड रिपन के समय 1884 ई. में इल्बर्ट बिल को लेकर एक विशेष समस्या खड़ी हो गई। रिपन ने इसके प्रस्ताव द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियन अधिकारियों के मुकदमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा, जो जातिगत अहंकार की भावना से प्रेरित था। लार्ड रिपन ने इस बिल के माध्यम से जातिभेद पर आधारित न्यायिक असमर्थताएँ समाप्त करने का प्रयास किया। यूरोपियों ने अपने जातिगत अहंकार के कारण इस बिल का संगठित होकर सशक्त प्रतिरोध किया। फलस्वरूप वायसराय को पीछे हटना पड़ा। इस प्रतिरोध के दो प्रभाव हुए; एक तो अंग्रेज़ो के जातीय अहंकार के विरुद्ध भारतीयों में एकता की भावना का विकास हुआ तथा दूसरा, भारतीयों को संगठित होकर प्रतिरोध करने का मन्त्र मिल गया।

राष्ट्रवाद के उद्भव में साहित्य की भूमिका

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिम चन्द्र चटर्जी, विष्णु शास्त्री चिपलंकर, लक्ष्मीदास बेजबरुआ, सुब्रह्मण्यम भारती आदि राष्ट्रवादी साहित्यकारों की रचनाओं ने लोगों में राष्ट्रवाद के बीज बोए। इन्होंने अपनी रचनाओं में भारत के अतीत को गौरवान्वित किया तथा ब्रिटिश शासन व्यवस्था की शोषणकारी नीति को उजागर किया।

कांग्रेस से पूर्व की राजनीतिक संस्थाएँ

कांग्रेस की स्थापना से पूर्व भारत में अनेक राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना हुई, जिनका उद्देश्य अपने-अपने निर्धारित क्षेत्र में भारतीय राजनीति को नई दिशा देना था। बंगाल में स्थापित इस तरह के संगठनों में 1836 ई. में स्थापित बंग भाषा प्रकाशन सभा अग्रणी संस्था थी, जिसने सरकार की नीतियों की समीक्षा एवं सुधार कार्यों के लिए सरकार को प्रार्थना-पत्र दिया। 1838 ई. में कलकत्ता में स्थापित लैण्ड होल्डर्स सोसायटी भारत की प्रथम राजनीतिक संस्था थी। कांग्रेस के गठन से पूर्व के राजनीतिक संगठनों में इण्डियन एसोसिएशन 1876 ई. एक महत्त्वपूर्ण संगठन था।

इण्डियन एसोसिएशन के नेताओं ने अपनी एसोसिएशन को अखिल भारतीय रूप देने की पूरी कोशिश की, लेकिन अनेक कारणों से सफल न हो सके। अखिल भारतीय सम्मेलन की भावना जागरूक भारतीयों में बहुत दिनों से काम कर रही थी। दिसम्बर, 1883 में इण्डियन एसोसिएशन के प्रयलों से इण्डियन नेशनल कॉन्फ्रेंस का पहला सम्मेलन कलकत्ता में हुआ, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए लोगों ने भाग लिया। इस सम्मेलन के पूर्णतः सफल न होने पर भी इसका अपना महत्त्व था। यह सभी राष्ट्रीय नेताओं को एक मंच पर लाने और संयुक्त अखिल भारतीय राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की और पहला कदम था

इण्डियन नेशनल कॉन्फ्रेस का दूसरा अधिवेशन 1885 ई. में कलकत्ता में आयोजित किया गया, जबकि उसी समय बम्बई में कांग्रेस अधिवेशन हो रहा था। इसी कारण सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन (1885) में भाग नहीं ले सके। कांग्रेस से पूर्व स्थापित संगठनों में से किसी की भी राजनीतिक स्वाधीनता की कोई भी संकल्पना नहीं थी, अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाना उनका उद्देश्य नहीं था।

वे प्राय: बड़े जमींदारों, व्यापारियों अथवा थोड़े से अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के संगठन भर थे। फिर भी कावासको इन पूर्वगामी संस्थाओं ने देश के विभिन्न भागों में राजनैतिक चेतना जगाने का अनोखा भाकया। 1885 ई. में जिस इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई, उसका पथ-प्रशस्त करने में इन संस्थाओं का विशेष योगदान था।

कांग्रेस के गठन से पूर्व की राजनैतिक संस्थाएँ

संस्थावर्ष एवं स्थान संस्थापक सदस्यउद्देश्य
लैण्ड होल्डर्स सोसायटी1838 ई. (कलकत्ता)द्वारिका नाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार ठाकुर, राधाकान्त देवजमींदारों के हितों की रक्षा करना, संवैधानिक प्रदर्शन का मार्ग अपनाना। यह भारत की प्रथम राजनैतिक संस्था थी।
बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी1843 ई. (कलकत्ता)जॉर्ज थॉमसन

प्यारी चन्द्र मित्र

अंग्रेजों के अधीन भारत लोगों की वास्तविक दशा के बारे में जानकारी प्राप्त करना तथा उसका विस्तार करना, लोगों में राष्ट्रवादी भावना जगाना एवं राजनैतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना।
ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन1851 ई. (कलकत्ता)राजेन्द्र लाल मित्र, हरिश्चन्द्र मुखर्जी, रामगोपाल घोष, राधाकान्त देय (अध्यक्ष) भारत के लिए राजनैतिक हितों की माँग करना। इसने ब्रिटिश संसद से अपील की कि उसके कुछ सुझाव कम्पनी के नए चार्टर में सम्मिलित किए जाएँ: जैसे-लोकप्रिय उद्देश्य वाली पृथक् विधायिका की स्थापना, उच्च वर्ग की नौकरशाही के वेतन में कमी, नमक कर, आबकारी कर एवं डाक शुल्क की समाप्ति।
ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन1866 ई. (लन्दन)दादाभाई नौरोजीभारत के लोगों की समस्याओं और माँगों से ब्रिटेन को अवगत कराना तथा भारतवासियों के पक्ष में इंग्लैण्ड में जनसमर्थन तैयार करना।
पूना सार्वजनिक सभा1870 ई.(पूना )महादेव गोविन्द रानाडे, जी वी जोशीसरकार एवं जनता के मध्य सेतु का कार्य करना।
इण्डियन लीग1875 ई. (कलकता)शिशिर कुमार घोषलोगों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना तथा राजनैतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना।
इण्डियन एसोसिएशन1876 ई. (कलकता)सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एवं आनन्द मोहन बोस ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की संकीर्ण एवं जमींदार समर्थक नीतियों के विरुद्ध थे। राजनैतिक कार्यक्रम हेतु भारतवासियों में एकता, सिविल सेवा प्रणाली में सुधारों की माँग।
मद्रास महाजन सभा1884 (मद्रास)वी. राघवाचारी, बी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, पी. आनन्द चारलूस्थानीय संगठनों के कार्यों को समन्वित करना।
बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन1884(बम्बई)फिरोजशाह मेहता बदरुद्दीन तैयबजी, के टी तैलंगसरकारी पद पर भारतीयों की नियुक्ति, भारत में सिविल सेवा परीक्षा को आयोजित कराना।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एक सेवानिवृत्त अंग्रेज सिविल सेवक ए ओ झूम के द्वारा की गई। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय संघ की स्थापना की, जिसका प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 को बम्बई स्थित गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में आयोजित किया गया। इसी सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर इसका नाम बदलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया।

उल्लेखनीय है कि यह सम्मेलन पहले पूना में आयोजित होना था, लेकिन वहाँ हैजा फैल जाने के कारण इसका आयोजन बम्बई में किया गया। ह्यूम 1885 से 1906 ई. तक कांग्रेस के महासचिव रहे। कलकत्ता के प्रमुख वकील व्योमेश चन्द्र बनर्जी इसके अध्यक्ष चुने गए। इसी अधिवेशन से इस परम्परा की स्थापना हुई कि अध्यक्ष का चुनाव सम्मेलन स्थल वाले प्रान्त के बाहर से होना चाहिए। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में कुल 72 लोगों ने भाग लिया, जिसमें से प्रमुख निम्नलिखित थे-दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दीनशा एदलजी वाचा, काशीनाथ तैलंग, वी राघवाचारी, एन जी चन्द्रावरकर, एस सुब्रह्मण्यम आदि।

कांग्रेस के उद्देश्य

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में इसके निम्नलिखित उद्देश्य बताए थे

  •  साम्राज्य के विभिन्न भागों में देश के हित के लिए कार्यरत संजीदा कार्यकर्ताओं में व्यक्तिगत निष्ठा तथा मित्रता बढ़ाना।
  • सभी देशप्रेमियों में सीधे मित्रतापूर्ण व्यक्तिगत मेल-जोल द्वारा सभी जाति, धर्म या प्रान्त सम्बन्धी पक्षपात को दूर करना और राष्ट्र को उन भावनाओं की ओर बढ़ाना तथा दृढ़ करना, जोकि लार्ड रिपन के शासनकाल में विकसित हुईं थी।
  • भारत के शिक्षित वर्गों के परिपक्व विचारों का अधिकृत निरूपण, जो कि वे समकालीन सामाजिक समस्याओं के बारे में रखते है
  • उन रीतियों का निश्चय करना, जो राजनैतिक नेताओं को सार्वजनिक हित में आने वाले समय में करनी हैं।

कांग्रेस की स्थापना का मिथक

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के सम्बन्ध में अनेक मिथक प्रचलित हैं, जिनमें से एक प्रमुख सेफ्टी वाल्व सिद्धान्त है। सेफ्टी वाल्व सिद्धान्त के अन्तर्गत यह माना जाता है कि ए ओ ह्यूम ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन के निर्देश, मार्गदर्शन एवं सलाह पर ही इस संगठन की स्थापना की, जिससे कि उस समय भारतीय जनता में पनपते-बढ़ते असन्तोष को हिंसा के ज्वालामुखी के रूप में फूटने से रोका जा सके और असन्तोष की वाष्प को बिना किसी खतरे के बाहर निकालने के लिए सुरक्षित, सौम्य, शान्तिपूर्ण और संवैधानिक निकास या सुरक्षा वाल्व उपलब्ध कराया जा सके।

इस सिद्धान्त के जनक लाला लाजपत राय थे, जिन्होंने ह्यूम के जीवनीकार विलियम वेडरबर्न के कथन को आधार बनाकर वर्ष 1916 में यंग इण्डिया में प्रकाशित अपने लेख में यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया। कालान्तर में वामपन्थी आर पी दत्त, दक्षिणपन्थी एम एस गोलवलकर, उदारवादी सी एफ एण्डुज ने भी कांग्रेस की स्थापना में ब्रिटिश सरकार का हाथ माना।

कांग्रेस की स्थापना का सच

सिर्फ यह कहना कि कांग्रेस की स्थापना सुरक्षा वाल्व के रूप में की गई थी, एक गलत तथा अधूरा सत्य होगा। इस समय जो भारतीय लोग एक अखिल भारतीय राजनैतिक संगठन की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे, वे नए सामाजिक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तथा अंग्रेजों द्वारा भारत के शोषण के विरुद्ध थे।

 

इन्होंने द्यूम का साथ इसलिए दिया, क्योंकि वे अपनी प्रारम्भिक राजनीतिक गतिविधियों के लिए सरकार के सन्देह का पात्र नहीं बनना चाहते थे। यदि ह्यूम ने कांग्रेस को सुरक्षा वाल्व के रूप में इस्तेमाल करना चाहा, तो प्रारम्भिक कांग्रेस के नेता इसे तड़ित चालक के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे। इस सम्बन्ध में गोपालकृष्ण गोखले का वर्ष 1913 का वक्तव्य उल्लेखनीय है “कोई भी भारतीय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था, यदि कोई भारतीय इस प्रकार का अखिल भारतीय आन्दोलन प्रारम्भ करने के लिए आगे आता भी, तो सरकारी अधिकारी उसे अस्तित्व में नहीं आने देते।”

कांग्रेस के प्रति अंग्रेज़ों का दृष्टिकोण

कांग्रेस के प्रति अंग्रेजों का रुख प्रारम्भ में सहयोगपूर्ण था, परन्तु कांग्रेस की बढ़ती लोकप्रियता ने अंग्रेजों को इसका विरोधी बना दिया। 1886 ई. में डफरिन ने कांग्रेस के प्रतिनिधियों के लिए कलकत्ता में एक स्वागत समारोह आयोजित किया, जिसमें कांग्रेस के सदस्यों को प्रतिष्ठित अतिथि कहा गया। मद्रास के अधिवेशन (1887 ई.) के बाद डफरिन और अन्य ब्रिटिश शासक कांग्रेस के खिलाफ हो गए।

कांग्रेस की बढ़ती लोकप्रियता के खिलाफ ‘फूट डालो एवं राज करो’ की नीति का अनुसरण किया। इसके लिए सर सैयद अहमद खाँ तथा राजा शिवप्रसाद जैसे लोगों को कांग्रेस विरोधी आन्दोलन करने के लिए प्रेरित किया। 1890 ई. से सरकार इसकी स्पष्ट रूप से विरोधी हो गई, इसने यह घोषणा की कि सरकारी अधिकारी कांग्रेस से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखें।

1897 ई. में राजद्रोहात्मक भाषणों एवं कार्यवाहियों पर अंकुश रखने के विचार से इण्डियन पीनल कोड में धारा-124 (अ) तथा धारा-153 (अ) को जोड़ा गया।

कांग्रेस के उदारवादी एवं उग्रवादी चरण

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम चरण के अन्तर्गत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा सम्पादित आन्दोलन की
कार्यक्रम एवं नीतियों के आधार पर दो चरणों में बांटा जा सकता है

  •  उदारवादी चरण (1885-1905)
  • 2. उग्रवादी चरण (वर्ष 1905-19)।

1. उदारवादी चरण (वर्ष 1885-1905)

आरम्भिक वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर उदारवादी कहे जाने वाले नेताओं का वर्चस्व था। इन्हें उदारवादी या नरमपन्थी इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि इनका लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा व्यक्त करता था अपनी मांगों को प्रतिवेदनों, भाषणों, लेखों के माध्यम से सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करना था। इन्हें ब्रिटिश सरकार को न्यायप्रियता में पूरा विश्वास था। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखल, फिरोजशाह मेहता, मदन मोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि प्रमुख उदारवादी नेता थे। उदारवादियों ने अपनी मांगे मनवाने के उद्देश्य से ब्रिटेन में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में 1887 ई. में ‘भारतीय सुधार समिति की स्थापना की। वर्ष 1888 में डिग्बी की अध्यक्षता में लन्दन में ब्रिटिश कमेटी ऑफ इण्डिया की स्थापना की गई।

उदारवादियों की नियमबद्ध प्रगति में आस्था थी। उन्होंने क्रान्तिकारी आकस्मिक परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। इन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वैधानिक रास्ता अपनाया। उनका मानना था कि इससे वे एक ओर जनजागरण एवं जनशिक्षा का विकास कर सकेंगे, वहीं अंग्रेजों को भी समझा सकेंगे कि भारतीय जनता को माँगें न्यायसंगत है। इन्होंने अपने कार्यक्रम को ऐसे मुद्दों से दूर रखा, जिससे एक वर्ग-दूसरे वर्ग के विरुद्ध खड़ा हो जाए। सामाजिक सुधार का मुद्दा इनकी कार्यसूची में नहीं था। उदारवादी भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के बने रहने तथा उसके सुदृढ़ होने के पक्षधर थे।

उदारवादियों का इंग्लैण्ड में प्रचार

ए ओ राम, दादाभाई नौरोजी एवं विलियम वेडरबर्न आदि नेताओं का मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इंग्लैण्ड से अधिक प्रचार किया जा सकता है। इस कारण इंग्लैण्ड में विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की गई एवं पत्र-पत्रिकाएँ निकाली गई। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य किए गए

  • 1887 ई. में दादाभाई नौरोजी ने इंग्लैण्ड में भारतीय सुधार समिति की स्थापना की।
  • 1888 ई. दादाभाई नौरोजी ने विलियम डिग्बी की अध्यक्षता में इण्डियन एजेन्सी की स्थापना की।
  • 1889 ई. में कांग्रेस की ब्रिटिश समिति बनी, जिसने इण्डिया नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया।
  • 1890 ई. में कांग्रेस की ओर से भेजे गए एक प्रतिनिधिमण्डल में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, डब्ल्यू सी बनर्जी, ए ओ ह्यूम सदस्य थे।

उदारवादियों के इन प्रयासों से इंग्लैण्ड में भारतीय जनमानस से सहानुभूति रखने वाले एक गुट का निर्माण हुआ। 1879 ई. में लालमोहन घोष को सिविल सेवा में भारतीयों की नियुक्ति की माँग हेतु लन्दन भेजा गया। नेशनल इण्डियन एसोसिएशन (1867) की स्थापना मेरी कारपेण्टर ने लन्दन में की थी। 1889 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य चार्ल्स ब्रैडला उपस्थित थे। इनकी अधिक रुचि के कारण लोग इन्हें भारत के लिए सदस्य के रूप में सम्बोधन करने लगे।

उदारवादियों की माँगें

उदारवादी चरण में नेताओं ने ब्रिटिश सरकार से स्वतन्त्रता की माँग नहीं, बल्कि भारतीयों के लिए कुछ रियायतों की मांग रखी। साथ ही, विधानपरिषदों का विस्तार, उच्च सरकारी नौकरियों में अवसर, इंग्लैण्ड तथा भारत में आई ए एस की परीक्षा आयोजित कर सिविल सेवा का भारतीयकरण, न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण, प्रेस एवं भाषण पर लगे प्रतिबन्धों को समाप्त करना, विदेशों में बसे भारतीयों की सुरक्षा, सैनिक खर्च में कटौती, भारतीय प्रशासन की जाँच हेतु रॉयल कमीशन की नियुक्ति, नमक कर समाप्त करना, गृह प्रभार (Home Charges) में कमी, उत्पाद शुल्कों की समाप्ति, भारत में कुलियों के साथ दुर्व्यवहार की समाप्ति, वन कानून एवं प्रशासन द्वारा उत्पन्न किए गए कष्टों का निवारण, कारखानों में श्रमिकों की स्थिति सुधारना, देशी उद्योगों को बढ़ावा देना, आH एक्ट रद्द करने जैसी माँगों को रखा।

उदारवादियों की उपलब्धियाँ

आलोचकों ने इस समय के उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं की उपलब्धियों की आलोचना की है। उनका मानना है कि इनके प्रयत्नों से कोई विशेष तात्कालिक लाभ नहीं हुआ। उदारवादियों की नीति को भिक्षावृत्ति की नीति कहकर खिल्ली उड़ाई गई। लाला लाजपत राय का उदारवादियों के सम्बन्ध में वक्तव्य है-“बीस वर्ष तक रियायतों तथा दु:खों को दूर करने के असफल संघर्ष करने के बाद इन्हें रोटी के बदले पत्थर ही प्राप्त हुए हैं,”

लेकिन जिस परिस्थिति में उदारवादियों ने यह कार्य किया उस युग को ध्यान में रखते हुए उनके कार्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ थी, एक राजनैतिक मंच का निर्माण, राष्ट्रवाद की भावना जगाना, लोगों को राजनैतिक रूप से शिक्षित करना, 1892 ई. का भारत परिषद् अधिनियम पारित होना, भारतीय व्ययों की जाँच के लिए ‘वेल्बी समिति की नियुक्ति’, 1886 ई. में लोक सेवा आयोग की बहाली, 1893 ई. में हाउस ऑफ कॉमन्स में भारत एवं लन्दन में साथ-साथ परीक्षा लिए जाने का विधेयक पारित किया जाना; राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का विश्लेषण आदि थे।

उदारवादियों की सीमाएँ

आन्दोलन का अपनी पैठ आम जनता तक नहीं बना सकना, उसका कार्यक्रम पढ़े-लिखे अभिजनों तक ही सीमित रहना अर्थात् उनके आन्दोलन का सामाजिक आधार संकीर्ण रहना; सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार के सुधार सम्बन्धी हस्तक्षेप से इनकार करना, प्रारम्भिक नीतियाँ, अनुनय-विनय, प्रतिवेदन, भाषण, लेख आदि तक सीमित रहना, ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा एवं उनकी न्यायप्रियता में विश्वास करना आदि उदारवादियों की प्रमुख सीमाएँ थीं।

2. उग्रवादी चरण (वर्ष 1906-1919)

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही भारतीय जनता में राजनैतिक असन्तोष बढ़ता जा रहा था। उदारवादियों के प्रयास का कोई अधिक सफल निष्कर्ष नहीं निकला। उधर औपनिवेशिक शोषण भी जारी रहा। अन्तत: नरमपन्थी धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खोने लगे। ऐसी स्थिति में एक नया नेतृत्व उभरा, जिनका रुख अधिक संघर्षशील और अधिक उग्र-राष्ट्रवादी भावना में विश्वास रखता था।

इनकी माँगे आमूल परिवर्तनवादी थीं। आन्दोलन के इस चरण में एक ओर उग्रवादी तथा दूसरी ओर क्रान्तिकारी विचारधारा के लोगों ने नेतृत्व सम्भाला। 1893 ई. में अरविन्द घोष ने अपना नाम दिए बिना बम्बई से प्रकाशित समाचार-पत्र इन्दुप्रकाश में कई लेख लिखकर कांग्रेस की इस नीति की कड़ी आलोचना की। उग्रवादी नेताओं में बाल गंगाधार तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल तथा लाला लाजपत राय प्रमुख थे।

उग्रवाद के उदय के कारण

उग्रवादियों के उदय को निम्नलिखित कारणों के तहत समझा जा सकता है

अंग्रेज़ी राज की प्रकृति की समझ

आरम्भिक काल के नेताओं ने आँकड़ों से यह सिद्ध किया कि अंग्रेजी राज तथा उसकी नीतियाँ ही भारत की दरिद्रता का मूल कारण हैं। दादाभाई नौरोजी ने सर्वप्रथम अपने विख्यात लेख पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया में औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए इनको भारत की दरिद्रता का मूल कारण बताया। ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के दूसरे विख्यात आलोचक आर सी दत्त थे।  इन्होंने अपनी विख्यात पुस्तक इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में ब्रिटिश शोषणकारी नीतियों को उजागर किया।

आर सी दत्त और जी वी जोशी ने अंग्रेजी भूमि कर व्यवस्था का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने यह स्पष्ट किया कि सेनाओं की भर्ती में अंग्रेजों की कथनी और करनी में बहुत अधिक अन्तर है। इन्होंने सैनिक-असैनिक पदों पर ऊँचे-ऊँचे वेतन, गृहशासन के बढ़ते व्यय, भेदभावपूर्ण आयात-निर्यात नीति, अदूरदर्शी भूमिकर नीति, भारत के औद्योगीकरण के प्रति उदासीनता, भारतीयों को अच्छे पदों और सेवाओं से वंचित रखना आदि मुद्दों को उठाया। इससे अंग्रेजी शासन का वास्तविक स्वरूप सामने आया।

सरकार की दमनकारी नीतियाँ

1897 ई. में तिलक एवं अन्य नेताओं को राजद्रोह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर कारावास दिया गया। 1898 ई. में भारतीय दण्ड संहिता में 124 (ए) तथा 156 (ए); जैसे दमनकारी कानून जोड़े गए। वर्ष 1904 में कार्यालय गोपनीयता कानून (Official Secrets Act) द्वारा प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन किया गया तथा इसी समय भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम (वर्ष 1904) द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण और कड़ा कर दिया गया। वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया गया।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव

1868 ई. के पश्चात् जापान एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरा, जिससे भारतीयों के अन्दर ऐसी भावना जगी कि बिना पश्चिमी सहायता के भी एशियायी देश आर्थिक विकास कर सकते हैं। 1896 ई. में इथोपिया द्वारा इटली की सेनाओं की अपमानजनक पराजय तथा वर्ष 1905 में जापान के हाथों रूस की हार ने यूरोपीय श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया।

आयरलैण्ड, रूस, मिस्र, तुर्की और जापान के क्रान्तिकारी आन्दोलनों तथा दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध ने भारतीयों को यह विश्वास दिला दिया कि अगर जनता एकजुट और बलिदान के लिए तैयार हो, तो शक्तिशाली निरंकुश सरकारों को भी चुनौती दे सकती है।

विचारकों का योगदान

इस काल के कुछ महान् भारतीय विचारक एवं नेता; जैसे-स्वामी विवेकानन्द, तिलक, अरविन्द घोष आदि ने भी लोगों को उग्रवाद के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहित किया। स्वामी विवेकानन्द ने कहा-“कमजोरी पाप है, कमजोरी मृत्यु है।

हे भगवान! हमारा राष्ट्र कब स्वतन्त्र होगा? स्वामी विवेकानन्द ने आगे लिखा-“भारत का एकमात्र नैतिक दृष्टि से मृतप्राय हैं।” देश का तूफानी दौरा आशा उसकी जनता है। ऊँचे वर्ग शारीरिक और करते हुए लोकमान्य तिलक ने कहा कि नरमपन्थी देश को अपने लक्ष्य पर नहीं पहुँचा सकते। अत. लोगों को देश की आजादी के लिए गरम दल का भरोसा करना चाहिए।

लोकमान्य तिलक ने शिवाजी को स्वराज्य प्राप्ति का आदर्श मानकर 1893 ई. में शिवाजी महोत्सव एवं गणपति महोत्सव का आयोजन प्रारम्भ किया तथा शिवाजी की तुलना गरमदल तथा कांग्रेस के उदारवादियों की तुलना शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले से की, जो सदा अपने पुत्र को दक्कन के शक्तिशाली मुसलमान सुल्तान के विरुद्ध हथियार न उठाने की सलाह दिया करते थे। तिलक ने लोगों को अपना भाग्य-विधाता स्वयं बनने की सलाह दी तथा वे अपनी सभाओं में “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा” तथा ‘अनुनय-विनय नहीं युयुत्सा’ का नारा दिया करते थे। वेलेण्टाइन शिरोल ने अपनी पुस्तक इण्डिया अनरेस्ट में तिलक को ‘भारतीय अशान्ति का
जनक कहा।

प्रशिक्षित नेतृत्व

वर्ष 1905 तक ऐसे नेतृत्व का विकास हुआ, जिन्होंने पीछे के राजनैतिक आन्दोलनों तथा संघर्ष के नेतृत्व नेतृत्व इस आन्दोलन को एक उच्चतर राजनैतिक स्तर सम्बन्धी बहुमूल्य अनुभव प्राप्त कर लिए थे। यह तक ले जाने में सक्षम था। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में ही कुछ भिन्न राजनैतिक विचारधारा और कार्यनीति वाले राष्ट्रवादियों के नए दल का कांग्रेस के अन्दर ही उदय और विकास हुआ।

कई कारणों से 19वीं सदी के अन्त में यह दल जिसे गरमदल कहा जाता है, बड़ी तेजी से बढ़ा। इसके सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि लोकमान्य तिलक थे। इसके अलावा राजनारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्त, विष्णु शास्त्री चिपलुंकर, विपिन चन्द्र पाल, अरविन्द घोष जैसे नेता इसका प्रतिनिधित्व करते थे। उदारवादियों तथा उग्रवादियों में अन्तर न सिर्फ विभिन्न तरीके अपनाने में था, वरन् कई दृष्टियों से
उनमें आधारभूत अन्तर था।

पद्धति एवं कार्य

उग्रवादियों का राष्ट्रवाद भावुकता से परिपूर्ण था। राष्ट्रवाद की इस प्रेरणादायक धारणा में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जैसे सभी आदर्शों का समावेश था। तिलक ने इस बात का विरोध किया कि ‘एक विदेशी सरकार जनता के निजी जीवन में हस्तक्षेप करे। तिलक ने 1891 ई. के विवाह अधिनियम तथा 1881 ई. के प्रथम फैक्ट्री एक्ट की भी विरोध किया।

अरविन्द घोष ने इन्दुप्रकाश समाचार-पत्र में न्यू लैम्प्स फॉर ओल्ड (बूढ़े आदमी के लिए नई लालटेन) नामक निबन्ध में उग्रवाद की क्रमबद्ध व्याख्या की। तिलक ने भी मराठा एवं केसरी के जरिए उग्रवादी विचारों का प्रचार शुरू किया। स्वराज, स्वदेशी और बहिष्कार का नारा सर्वप्रथम तिलक ने ही दिया था। उग्रवादी और उदारवादी के उद्देश्य के सम्बन्ध में कोई खास मतभेद नहीं था। मुख्य मतभेद साधनो पर था।

उग्रवादी राजनीति आत्म सहायता, बहिष्कार एवं निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति पर आधारित थी । विपिन चन्द्र पाल ने न्यू इण्डिया तथा लाला लाजपत राय ने पंजाबी नामक पत्र के माध्यम से ब्रिटिश सरकार पर करारा प्रहार किया। उग्रवादियों के अनुसार स्वतन्त्रता के लिए स्वावलम्बन, संगठन और संघर्ष की आवश्यकता होती थी।

उदारवादी एवं उग्रवादी मतों में अन्तर

उदारवादीउग्रवादी
बुद्धिजीवी तथा शहरी मध्यम वर्ग से सहयोग प्राप्त था।निम्न मध्यम वर्ग, विद्यार्थियों तथा किसानों एवं मजदूरों का सहयोग प्राप्त था।
सामाजिक समानता की माँग इस आधार पर की, कि वे ब्रिटिश सरकार की प्रजा हैं।सामाजिक समानता और राजनैतिक स्वतन्त्रता को जन्मसिद्ध अधिकार माना है।
इंग्लैण्ड के निवासियों से अपील की और अपने विश्वास का आधार ब्रिटिश इतिहास और अंग्रेजी राजनैतिक विचारधारा को बनाया।भारतीय संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण की और धार्मिक देशभक्ति को बढ़ावा दिया।
अनुनय-विनय, संवैधानिक तरीकों का प्रयोग, स्वदेशी के पक्षधर, लेकिन बहिष्कार को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के पक्षधर नहीं थे।स्वदेशी, बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध जैसे माध्यमों का प्रयोग उदारवादियों के अनुनय- विनय की नीति को राजनैतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी।
हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया एवं राजनीति को धर्म निरपेक्ष रखा।हिन्दू गौरव के पुनरुत्थान पर विशेष बल दिया।

बंगाल विभाजन

लॉर्ड कर्जन के विभिन्न प्रशासकीय कार्यों में सबसे अधिक विवादास्पद कार्य वर्ष 1905 में बांगाल का विभाजन था। इस समय बंगाल प्रेसीडेंसी भारत का सबसे अधिक जनसंख्या वाला प्रान्त था। इसमें पश्चिमी बंगाल तथा पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश), बिहार, उड़ीसा शामिल थे। बंगाल के विभाजन के लिए यह तर्क दिया गया कि इतने बड़े क्षेत्र पर सुव्यवस्थित ढंग से शासन करना सम्भव नहीं है।

इस योजना के अनुसार अविभाजित बंगाल को बंगाल एवं पूर्वी बंगाल में विभाजित करना था। बंगाल प्रान्त में आधुनिक पश्चिम बंगाल के 11 जिले, दार्जिलिंग जिला, बिहार तथा उड़ीसा शामिल थे। बंगाल विभाजन का असम के कमिश्नर हेनरी कॉटन ने विरोध किया था तथा नए लेफ्टिनेण्ट गवर्नर फ्यूलर के विरुद्ध मोर्चा निकाला था। कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायिक क्षेत्र के अन्तर्गत ही पूर्वी बंगाल एवं असम आता था। बंगाल प्रेसीडेन्सी से 1874 ई. में असम अलग हो गया था।

 

बंगाल विभाजन के उद्देश्य

बंगाल में हिन्दु बहुसंख्यक थे। बंगाल से पृथक किए गए प्रान्त को पूर्वी बंगाल एवं असम नाम दिया गया। इसमें राजशाही, ढाका, चटगाँव सम्मिलित थे। इसकी राजधानी ढाका को बनाया गया। चटगाँव को भी एक केन्द्र बनाया गया, जिसमें बहुसंख्यक मुस्लिम जिले शामिल थे। ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य मूल बंगाल में बंगालियों की आबादी कम करके उन्हें अल्पसंख्यक बनाना था।

उल्लेखनीय है कि मूल बंगाल में 1 करोड़ 70 लाख बंगाली तथा 3 करोड़ 70 लाख उड़िया एवं हिन्दी भाषी लोगों को रखने की योजना थी। बंगाल इस समय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र था और इस जुझारू चेतना पर आघात करने के उददेश्य से ही बंगाल के बँटवारे का निर्णय किया गया
था। इस विभाजन का एक और पक्ष था, जिसमें बंगाल का धार्मिक आधार पर विभाजन किया गया। 19वीं सदी के अन्त में अंग्रेजों ने कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करने के लिए या इस मुस्लिम साम्प्रदायिकता को पतलाना निगा। बंगाल विभाजन में उन्होंने इसी प्रवृत्ति को दोहराया।

विभाजन सम्बन्धी घटनाक्रम

बंगाल के विभाजन से सम्बन्धित प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित हैं

  •  दिसम्बर, 1903 बंगाल विभाजन का प्रस्ताव रखा गया।
  • मार्च, 1904 से जनवरी, 1905 के बीच कलकत्ता के टाउन हॉल में कई विशाल विरोध सभाएँ हुईं।
  • 19 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा की गई।
  • 7 अगस्त, 1905 कलकत्ता के टाउन हॉल की ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आन्दोलन की विधिवत घोषणा। बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ।
  • 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल के पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। लोगों ने एक-दूसरे के हाथों में राखियाँ बाँधी (रवीन्द्रनाथ टैगोर की अपील पर)।
  • वर्ष 1906 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखा, जो वर्ष 1972 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना।
  • वर्ष 1911 बंगाल विभाजन रद्द। भाषा के आधार पर बिहार एवं उड़ीसा बंगाल से पृथक्। असम एक नया प्रान्त बनाया गया। भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित।

बंगाल विभाजन का विरोध

बंगाल विभाजन के निर्णय की जानकारी वर्ष 1903 में प्राप्त हो गई थी, उदारवादियों ने इसका विरोध किया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, के मित्र तथा पृथ्वीशचन्द्र राय आदि ने सरकार को इसके विरोध में प्रार्थना-पत्र सौंपे, सभाएँ आयोजित की, निन्दा प्रस्ताव पारित किए। इन्होंने हितवादी, संजीवनी तथा बंगाली पत्रिका के माध्यम से इसका विरोध किया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बंगाल के विभाजन पर कहा कि “विभाजन हमारे ऊपर वज्र की तरह गिरा है।”

स्वदेशी आन्दोलन

बगाल विभाजन के निर्णय पर उदारवादियों के प्रयासों का कोई प्रतिफल नहीं हुआ। सरकार ने जुलाई, 1905 में विभाजन की घोषणा कर दी। टाउन हॉल में इसके विरुद्ध सभा आयोजित की गई। स्वदेशी एवं बहिष्कार का निर्णय लिया गया। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सुझाव सर्वप्रथम कृष्ण कुमार मित्र के पत्र संजीवनी में दिया गया। मैनचेस्टर के कपड़ों तथा लिवरपूल के बने नमक का बहिष्कार किया गया। शीघ्र ही यह विरोध प्रदर्शन बंगाल से निकलकर भारत के अन्य भागों में भी फैल गया।

आन्दोलन का तरीका 

स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को जनसाधारण तक पहुँचाने में स्वयंसेवी संगठनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन था स्वदेशी-बान्धव समिति, जिसकी स्थापना अश्विनी कुमार दत्त ने की थी। ये बारीसाल में एक अध्यापक थे। समिति ने उत्तेजक भाषणों, स्वदेशी गीतों का सहारा लिया, शारीरिक तथा नैतिक प्रशिक्षण दिया, मुकदमों से निबटने के लिए पंच अदालतें बनाईं। स्वदेशी आन्दोलन को गणपति महोत्सव एवं शिवाजी जयन्ती के माध्यम से प्रचारित किया गया। स्वदेशी आन्दोलन के दौरान कृष्ण कुमार मित्र ने एण्टी सर्कुलर सोसायटी की स्थापना की। इसने मुस्लिम कार्यकर्ताओं की भावना का ख्याल रखते हुए शिवाजी महोत्सव का बहिष्कार किया।

स्वदेशी आन्दोलन की दूसरी बड़ी विशेषता यह थी कि इसने ‘आत्मनिर्भरता’, ‘आत्मशक्ति’ का नारा दिया। इसके अन्तर्गत सामाजिक सुधार तथा राष्ट्रीय शिक्षा स्वदेशी जैसे तत्त्वों का समावेश किया गया। टैगोर के शान्तिनिकेतन की तर्ज पर बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना की गई (14 अगस्त, 1908), अरविन्द घोष को इसका प्राचार्य बनाया गया। 15 अगस्त, 1906 को ही राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् का गठन हुआ। इसका
उद्देश्य “राष्ट्रीय नियन्त्रण के तहत जनता को इस तरह का साहित्य, वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा देना, जो राष्ट्रीय जीवन-धारा से जुड़ी हों।’ शिक्षा का माध्यम देशी था। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में बंगाल इन्स्टीट्यूट की स्थापना की गई। छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए जापान भेजने की व्यवस्था की गई।

विशेषता एवं नेतृत्व

स्वदेशी आन्दोलन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम देशी उद्योगों का विकास था। बनारस में वर्ष 1905 में प्रथम भारतीय औद्योगिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसके अध्यक्ष रमेश चन्द्र दत्त थे। इसके अतिरिक्त इस आन्दोलन की एक प्रमुख विशिष्टता महिलाओं का इसमें भाग लेना था, जहाँ तक किसानों का प्रश्न है, तो बारीसाल के किसानों को छोड़कर अन्य किसानों का सहयोग इस आन्दोलन में नहीं मिल पाया।
तिलक ने बम्बई एवं पूना, लाला लाजपत राय और अजीत सिंह ने पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में, सैयद हैदर रजा ने दिल्ली में तथा चिदम्बरम पिल्लै ने मद्रास में आन्दोलन का नेतृत्व किया।

इस आन्दोलन में मुस्लिमों का समर्थन प्रभावी नहीं था। मध्य एवं उच्च वर्ग के मुस्लिम अलग रहे। ढाका के नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में बंगाल विभाजन का समर्थन किया गया। फिर भी अनेक प्रमुख मुसलमानों ने इसमें भागीदारी की, जिसमें प्रसिद्ध वकील अब्दुर्रसूल, लियाकत हुसैन, व्यापारी गजनवी प्रमुख थे।

आन्दोलन का दमन

ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलनकारियों के प्रति कठोर रुख अपनाया। वन्देमातरम् का नारा लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। प्रेस पर नियन्त्रण के लिए कानून बनाए। स्वदेशी कार्यकर्ताओं पर मुकदमे चलाए गए और उन्हें जेल भेजा गया। ब्रिटिश सरकार के स्वदेशी आन्दोलन में छात्रों की भागीदारी समाप्त करने हेतु 22 अक्टूबर, 1906 को कुख्यात कार्लाइल सर्कुलर को लागू किया। इसके तहत शैक्षिक संस्थानों को दिए जाने वाले अनुदान तथा छात्रवृत्तियों को रोका जाना था। छात्रों को शारीरिक दण्ड तक दिए गए। अप्रैल, 1906 में बारीसाल में आयोजित बंगाल प्रान्तीय सम्मेलन पर पुलिस ने बर्बरता की। दिसम्बर, 1908 में बंगाल के 9 नेताओं को देश से बाहर कर दिया गया। इनमें कृष्ण कुमार मित्र और अश्विनी कुमार दत्त भी थे। पंजाब में हुए दंगों के बाद लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह को देश से बाहर कर दिया।

वर्ष 1908 में ही बाल गंगाधर तिलक को छ: वर्ष की सजा दी गई। मद्रास में चिदम्बरम पिल्लै और आन्ध्र प्रदेश में हरिसर्वोत्तम राव तथा दूसरे लोग बन्दी बनाए गए। आन्दोलन आगे चलकर नेतृत्व विहीन हो गया। अधिकतर नेता गिरफ्तार हो गए। अरविन्द घोष तथा विपिन चन्द्र पाल जैसे नेताओं ने सक्रिय जीवन से संन्यास ले लिया। वर्ष 1907 में सूरत के विभाजन से कांग्रेस संगठन कमजोर हुआ। आन्दोलन समाज के सभी वर्गों में अपनी पैठ नहीं बना सका।

यह उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग तथा जमींदारों तक ही सीमित था। यह मुस्लिमों तथा किसानों तक पहुँचने में असफल रहा। यद्यपि स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन अपने उद्देश्यों में पूर्णत: सफल नहीं रहा, किन्तु इसकी उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता।

अब जनता सदियों पुरानी नींद से जाग चुकी थी। विभाजन-विरोधी आन्दोलन के कारण भारतीय राष्ट्रवाद में एक महान् एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ, जो भावी राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव बनी।

मुस्लिम लीग स्थापना (वर्ष 1906)

बंगाल का विभाजन हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच फूट डालने का सबसे बड़ा कारण बना। आगा खाँ के नेतृत्व में मुसलमानों का शिष्ट मण्डल तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिण्टो से मिला तथा मुसलमानों के लिए एक विशिष्ट स्थिति की माँग की। वर्ष 1906 में सलीमुल्ला खाँ एवं आगा खाँ के नेतृत्व में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। मुस्लिम लीग के प्रथम अध्यक्ष वकार-उल-मुल्क मुश्ताक हुसैन थे। नवाब सलीमुल्ला खाँ इसके संस्थापक अध्यक्ष रहे।

 कांग्रेस विभाजन एवं दिल्ली दरबार

कांग्रेस विभाजन की पृष्ठभूमि

वर्ष 1905 से 1907 के मध्य उग्रवादी एवं उदारवादी विचारों के पारस्परिक मतभेद खुलकर सामने आ गए थे। उग्रवादी स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन को पूरे देश में फैलाना चाहते थे, जबकि उदारवादी इस आन्दोलन को केवल बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। इसके अतिरिक्त अंग्रेज सरकार के साथ नरमपंथियों की वार्ता करने की क्षमता के बारे में गरम दल के नेताओं को विश्वास नहीं रहा।

वर्ष 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अध्यक्ष पद को लेकर दोनों दल विभाजन के कगार पर पहुँच गए। दादाभाई नौरोजी के अध्यक्ष बन जाने से यह सम्भावना टल गई। सम्मेलन में तिलक, लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे तथा विपिन चन्द्र पाल तिलक को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन भूपेन्द्रनाथ बसु ने दादाभाई नौरोजी को इस अधिवेशन का अध्यक्ष घोषित किया, जिनके नाम पर किसी ने विरोध नहीं किया, परन्तु यहीं से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में दो दलों में बँट गई, जिन्हें नरम दल एवं गरम दल कहा जाता है।

नरम दल में गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेन्द्र नाथ रास बिहारी घोष, फिरोज शाह मेहता, दादार नौरोजी आदि प्रमुख थे, जबकि गरम
वर्ष 1906 का अधिवेशन उग्रवादियों के लिहाज से राय, बाल गंगाधर तिलक तथा विपिन चन्द्र पाल के महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि इनके प्रभाव से इस अधिवेशन में स्वदेशी, बहिष्कार, स्वशासन एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्ताव पास हुए।

सूरत अधिवेशन (1907 ई.)

कांग्रेस का सूरत अधिवेशन ताप्ती नदी के किनारे हुआ था। इस अधिवेशन के अध्यक्ष रास बिहारी घोष थे। स्वागत समिति के सभापति त्रिभुवन दास मालवी थे। इस अधिवेशन में अध्यक्ष पद को लेकर पुन: विवाद प्रारम्भ हुआ। उग्रवादी लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जबकि उदारवादी रास बिहारी घोष को अध्यक्ष बनाना चाहते थे।

इसके अलावा यह अफवाह भी फैली हुई थी कि उदारवादी स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वशासन सम्बन्धी प्रस्ताव को निष्प्रभावी बनाना चाहते है। पूरा अधिवेशन उत्तेजना और क्रोध के वातावरण चला, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस का पहला विभाड हुआ। यद्यपि लाला लाजपत राय, मोतीलाल नेहरू, सी चटर्जी तथा लाला हरकिशन लाल ने दोनों के म समझौता कराने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। सूरत विभाजन के समय मिण्टो द्वितीय वायसराय थे।

विभाजन के पश्चात कांग्रेस

1908 में सूरत के अधिवेशन में ही उदारवादियों ने एक पृथक बैठक की, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के लिए एक नवीन संविधान तैयार करने के लिए एक सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। अप्रैल, इलाहाबाद में इस सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें कांग्रेस का एक नया संविधान और एक नियमावली तैयार की गई कि कैसे बैठक को आयोजित किया जाएगा। वर्ष 1908 के मद्रास अधिवेशन में इस प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी गई, जिसमें कांग्रेस ने एक नए (कांग्रेस के लिए) संविधान का निर्माण किया। इस संविधान में कांग्रेस ने उग्रवादियों के लिए कांग्रेस के दरवाजे बन्द कर दिए।

दिल्ली दरबार

दिल्ली दरबार या साम्राज्यीय दरबार एक राज्याभिषेक समारोह था, जिसमें ब्रिटेन के राजा एवं रानी का राज्याभिषेक होता था। भारत में यह दरबार तीन बार आयोजित हुआ-1877, 1903 एवं 1911। 1877 ई. के दरबार को उद्घोषणा दरबार भी कहते हैं। यह एक आधिकारिक कार्यक्रम था, इसमें महारानी विक्टोरिया को केसर-ए-हिन्द की उपाधि दी गई। वर्ष 1903 का यह दरबार एडवर्ड सप्तम तथा एलेक्जेण्ड्रा के राज्याभिषेक का उत्सव मनाने के लिए आयोजित किया गया था।

दिसम्बर, 1911 के प्रारम्भ में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी का भारत आगमन हुआ। 12 दिसम्बर, 1911 को दिल्ली में एक भव्य राज्याभिषेक दरबार का आयोजन हुआ। दिल्ली दरबार गवर्नर-जनरल लॉर्ड हॉर्डिंग द्वारा सम्राट की ओर से की गई अनेक घोषणाओं के लिए स्मरणीय है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य किए गए

  •  1 अप्रैल, 1912 को ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित किया गया।
  • बंगाल विभाजन को रद्द किया गया तथा बंगाल नए प्रान्त के रूप में गठित किया गया।
  • असम में सिलहट को शामिल कर नया प्रान्त बनाया गया। उड़ीसा एवं बिहार बंगाल से अलग हो गए।

क्रान्तिकारी आन्दोलन : प्रथम चरण

देश में उदारवादी एवं उग्रवादी के अतिरिक्त क्रान्तिकारी संगठनों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। कुछ स्थानों पर क्रान्तिकारियों को आतंकवादी की संज्ञा दी गई। क्रान्तिकारी गतिविधियों को कई इतिहासकार आन्दोलन नहीं मानते थे, उनका मानना था कि किसी समय ‘आतंकवादी’ चन्द लोगों को छोड़कर आम जनता को अपने साथ न ले सके और न आतंकवाद ने किसी भी अवस्था में आन्दोलन का रूप ही लिया।

परन्तु यह भी सत्य है कि क्रान्तिकारियों ने अपने अदम्य साहस और अप्रतिम बलिदानों द्वारा जनमानस को उद्वेलित किया एवं राष्ट्रभक्ति की भावना का प्रसार किया। राष्ट्रयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देकर क्रान्तिकारियों ने जनमानस पर अमिट छाप छोड़ी और सतत प्रेरणा स्रोत बन गए। विशेषकर युवा वर्ग में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए प्राणों की आहुति देने की भावना भरने तथा उनमें राष्ट्रीय आन्दोलन की चेतना का संचार करने में क्रान्तिकारियों का योगदान अविस्मरणीय है।

आन्दोलन का उद्भव

उदारवादी आन्दोलन से निराशा तथा उग्रवादी आन्दोलन की असफलता ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन्म दिया। इन्हें विदेशी विचारधारा से प्रेरणा मिली थी। महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की हत्या तथा स्वदेशी, डकैती इनकी प्रमुख पद्धति थी। ये व्यक्तिगत बलिदान में विश्वास करते थे। अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए ये साहित्य का प्रकाशन करते थे। आन्दोलन की शुरुआत महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मणों से प्रारम्भ होकर बंगाल के भद्रलोकों में फैल गई।

20वीं सदी के प्रारम्भ में भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन ने संगठित रूप धारण कर लिया। क्रान्तिकारियों में इस समय दो विचारधारा उपस्थित थीं एवं उनके क्रियाकलाप के दो केन्द्र थे। कुछ नेता अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन करने के लिए भारतीय सेना की और यदि सम्भव हो, तो अंग्रेजों के विरोधी, विदेशी ताकतों की सहायता लेने के भी समर्थक थे। दूसरी विचारधारा के लोग देश में हिंसात्मक गतिविधियों जैसे कि ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या, राजनैतिक लूट आदि में भी विश्वास करते थे। पहले दौर की विचारधारा पंजाब तथा पश्चिमी संयुक्त प्रान्त में अधिक प्रचलित थी, जबकि दूसरी विचारधारा को बंगाल एवं महाराष्ट्र में अधिक समर्थन प्राप्त हुआ। इस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख केन्द्र बंगाल, महाराष्ट्र एवं पंजाब थे।

क्रान्तिकारी आन्दोलन के उद्देश्य

क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे

  • क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश राज का तख्ता उलटने के लिए 6 सूत्रीय कार्यक्रम बनाया।
  • प्रेस के द्वारा जोरदार प्रचार के जरिए शिक्षित वर्ग में ब्रिटिश राज्य के प्रति घृणा की भावना उभारना।
  • देश के शहीदों की जीवनियों को संगीत और नाटक के द्वारा लोगों के सामने रखकर मातृभूमि के प्रति प्रेम जागृत
    करना।
  • जलसे, जुलूस, हड़तालें करके दुश्मन को व्यस्त रखना।
  • सैनिक शिक्षा, व्यायाम, धार्मिक कार्यक्रम, शक्तिपूजा इत्यादि के लिए युवकों को भर्ती करना।
  • हथियार प्राप्त करना; जैसे-बम बनाना, हथियार लूटना, विदेश से लाना।
  • चन्दे एवं डकैती के जरिए पैसा इकट्ठा करना।

कान्तिकारी आन्दोलन का विस्तार

कान्तिकारी आन्दोलन के अन्तर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों मे क्रान्तिकारी गतिविधियाँ हुईं

महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

भारत में संगठित क्रान्तिकारी आन्दोलन की शुरुआत महाराष्ट्र से मानी जाती है। प्रथम क्रान्तिकारी संगठन 1896-97 ई. में पूना में दामोदर हरि चापेकर और बालकृष्ण हरि चापेकर ने स्थापित किया। इसका नाम व्यायाम मण्डल था। इसके द्वारा वह नौजवानों का एक ऐसा समूह तैयार करना चाहते थे, जो देश के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा सके।

इन्होंने रैण्ड (प्लेग समिति के प्रधान) एवं आयर्स्ट नामक दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। यह प्रथम राजनीतिक हत्या थी। चापेकर बन्धुओं को सरकार ने फाँसी दे दी। चापेकर बन्धुओं का सम्बन्ध क्रान्तिकारी समिति हिन्दू धर्म संघ से भी था। तिलक भी हत्या को उचित ठहराने के कारण गिरफ्तार किए गए। तिलक की प्रेरणा से गठित आर्य-बान्धव समिति एक अन्य क्रान्तिकारी संगठन था। वर्ष 1904 में नासिक में मित्र मेला की स्थापना हुई, इसके प्रमुख सदस्य गणेश एवं विनायक दामोदर सावरकर थे।

आगे चलकर मित्र मेला ही अभिनव भारत नाम की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था में परिवर्तित हो गई। यह मैजिनी के तरुण इटली के नमूने पर एक गुप्त सभा थी। अभिनव भारत, भारत को विदेशी राज्य के चंगुल से मुक्त कराने के लिए वचनबद्ध थी। भारत में भी कई प्रान्तों में इसकी शाखाएँ गुप्त संस्थाओं के रूप में स्थापित थीं। इस संस्था की मुख्य गतिविधियाँ बम बनाना, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देना इत्यादि थे। पी एन बापट को इन्होंने रूसी क्रान्तिकारियों से बम बनाने का प्रशिक्षण पाने के लिए पेरिस भेजा।

मिर्जा अब्बास और हेमचन्द्र दास की सहायता से बापट ने रूसी पुस्तक बम मैनुअल की एक प्रति प्राप्त की एवं इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। 21 दिसम्बर, 1909 को अनन्त लक्ष्मण कन्हारे ने जो कि अभिनव भारत के सदस्य थे, नासिक के मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या कर दी। जैक्सन की हत्या के आरोप में अनन्त लक्ष्मण कन्हारे, कृष्णजी गोपाल कार्वे एवं विनायक देशपाण्डे को 19 अप्रैल 1911 को फाँसी दे दी गई। विनायक दामोदर सावरकर के साथ 37 व्यक्तियों के ऊपर नासिक षड्यन्त्र केस (1909) चलाया गया।

बंगाल में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

बंगाल में आतंकवादी घटनाएँ बंग-भंग और उसके विरुद्ध आन्दोलन के साथ शुरू हुईं। वर्ष 1902 में बंगाल में पहले क्रान्तिकारी संगठन अनुशीलन समिति की स्थापना मिदनापुर में ज्ञानेन्द्रनाथ बसु तथा कलकत्ता में जतीन्द्र नाथ बनर्जी एवं वारीन्द्रनाथ घोष द्वारा की गई। बंगाल में क्रान्तिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय वारीन्द्र कुमार घोष (अरविन्द घोष के अनुज) तथा भूपेन्द्रनाथ दत्त (विवेकानन्द के अनुज) को दिया जाता है, जिन्होंने युगान्तर नामक समाचार-पत्र के माध्यम से क्रान्ति का प्रचार किया। वारीन्द्र कुमार घोष एवं भूपेन्द्रनाथ दत्त के सहयोग से कलकत्ता में अनुशीलन समिति का गठन किया गया था, जिसका प्रमुख उद्देश्य था-‘खून के बदले खून’। इसकी स्थापना में ‘प्रमथ नाथ मित्र’ और
‘सतीश चन्द्र बोस’ का प्रमुख योगदान था।

प्रारम्भ में इसका नाम भारत अनुशीलन समिति था। नरेन्द्र भट्टाचार्य (एम एन राय) ने इसका नाम अनुशीलन समिति सुझाया। इसका पहला सम्मेलन कलकत्ता में सुबोध मलिक के घर में हुआ था। काम की सहूलियत के लिए इसका दूसरा कार्यालय वर्ष 1906 में ढाका में खोला गया, जहाँ इसका नेतृत्व प्रमथ नाथ मित्र एवं पुलिन बिहारी दास ने किया। प्रारम्भ में इस समिति का कार्य सदस्यों को नैतिक तथा शारीरिक शिक्षा देने तक सीमित था। वर्ष 1906 से अनुशीलन समिति ने क्रान्तिकारी गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्रान्तिकारियों ने बंगाल के पूर्व लेफ्टिनेण्ट गवर्नर ‘फुलर’ को मारने का असफल प्रयास किया।

कुछ दिनों बाद 23 दिसम्बर को डाका के जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर एलेन की हत्या करने की कोशिश की। 30 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्न चाकी ने डगलस किंग्सफोर्ड की हत्या करने की कोशिश की, जो मुजफ्फरपुर का जिला जज था, लेकिन गलती से दो अंग्रेज महिलाओं मिसेज कनेडी तथा उनकी पुत्री की हत्या हो गई। प्रफुल्ल चाकी ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली तथा खुदीराम बोस पकड़े गए, जिन्हें 11 मई, 1908 को फाँसी दे दी गई। यह बंगाल के क्रान्तिकारी इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। बंगाल के युवा, खुदीराम बोस का नाम लिखी धोती पहनते थे। नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य ने खुदीराम बोस को पकड़ने वाले पुलिस कर्मचारी नन्दलाल बनर्जी की हत्या कर दी थी।

11 दिसम्बर, 1908 को अनुशीलन समिति गैर-कानूनी घोषित कर दी गई। क्रान्तिकारियों की इस पीढ़ी में बंगाल में हेमचन्द कानूनगो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जनवरी, 1906 में वे पेरिस से स्वदेश लौटे तथा मणिकतल्ला की एक धार्मिक पाठशाला में उन्होंने बम बनाने का कारखाना
स्थापित किया था।

इस चरण के बंगाल के क्रान्तिकारियों ने विभिन्न पत्रिकाओं का भी प्रकाशन किया। जैसे—सन्ध्या का ब्रह्मबान्धव उपाध्याय ने, वन्देमातरम् का अरविन्द घोष, युगान्तर का भूपेन्द्रनाथ दत्त एवं वारीन्द्र घोष, तथा भवानी मन्दिर का वारीन्द्रनाथ घोष द्वारा।

अलीपुर षड्यन्त्र केस (वर्ष 1908)

कलकत्ता के मणिकतल्ला में पुलिस ने छापा मारा, जहाँ पर एक बम की फैक्ट्री मिली। इसमें अनुशीलन समिति के नेता वारीन्द्र कुमार घोष को अभियोजित किया गया। इसे अलीपुर षड्यन्त्र केस के नाम से जाना जाता है। इस मुकदमें में अरविन्द घोष को भी अभियुक्त बनाया गया था, लेकिन कालान्तर में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया। इस केस में नरेन्द्र गोसाई सरकारी गवाह बन गए थे। इस कारण इनकी हत्या कन्हाईलाल दत्त तथा सत्येन्द्र बोस ने की।

पंजाब में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

पंजाब में उपनिवेशन बिल के माध्यम से सरकार ने सिंचाई करों, भू-राजस्व में वृद्धि के साथ जमीन सम्बन्धों का आधार बदलने का प्रयास किया। इसने पंजाब में क्रान्तिकारी आन्दोलन का आधार बनाया। पंजाब में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रणेता जतिन मोहन चटर्जी थे, जिन्होंने भारतमाता सोसायटी की स्थापना की थी। पंजाब में क्रान्तिकारी गतिविधियों के जनक अजीत सिंह, लाला लाजपत राय, बाबा सूफी अम्बा प्रसाद थे।

इन्होंने इस बिल का विरोध किया। लाला लाजपत राय एवं अजीत सिंह को गिरफ्तार कर माण्डले जेल (बर्मा) भेज दिया गया। यद्यपि व्यापक जन दबाव के कारण सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। अजीत सिंह इसके बाद विदेश चले गए। वर्ष 1908 में क्रान्तिकारी गुट का नेतृत्व मास्टर अमीरचन्द्र के हाथों में आ गया।

पंजाब में क्रान्तिकारी गतिविधियों को नियन्त्रित करने हेतु सरकार ने विभिन्न कानून बनाए

  • विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908
  • समाचार-पत्र (अपराध-प्रेरक)अधिनियम, 1908
  • भारतीय दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1908
  • राजद्रोहात्मक सभा-निवारण अधिनियम, 1911

दिल्ली में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

दिल्ली में क्रान्ति की स्पष्ट अभिव्यक्ति तब हुई, जब क्रान्तिकारियों ने 23 दिसम्बर, 1912 को राजधानी परिवर्तन के अवसर पर निकाले गए जुलूस के दौरान वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग के काफिले पर बम फेंका। इस हमले में हॉर्डिंग के कई सेवक मारे गए तथा हॉर्डिंग बुरी तरह घायल हुआ। इसमें सचिन सान्याल तथा रासबिहारी बोस की मुख्य भूमिका थी। घटना के पश्चात् पुलिस ने 13 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, जिसमें मास्टर अमीरचन्द्र, अवध बिहारी, दीनानाथ, सुल्तान चन्द्र, बसन्त कुमार, बालमुकुन्द, बलराज आदि शामिल थे। इन सभी पर दिल्ली षड्यन्त्र केस (1912) के नाम से मुकदमा चला। इस मुकदमें में अमीरचन्द्र, अवध बिहारी, बालमुकुन्द तथा बसन्त कुमार को फांसी दे दी गई, जबकि रासबिहारी बोस भाग कर जापान चले गए।

अन्य क्षेत्रों में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

बंगाल, कलकत्ता तथा पंजाब के अतिरिक्त देश के अन्य भागों में आतंकवादी गतिविधियाँ चल रही थीं। आन्ध्र प्रदेश में विपिन चन्द्र पाल के दौरे से आन्दोलन को बल मिला। नीलकण्ठ ब्रह्मचारी और वांग अग्यर ने मदास में आतंकवादी कार्यों को बढ़ावा दिया। वर्ष 1911 तिलेबेल्ली के जिला मजिस्ट्रेट मि. ऐश को रेलवे स्टेशन पर गोली मार दी गई। ऐश को वांची अय्यर ने गोली मारी थी और फिर उन्होंने आत्महत्या कर ली। राजस्थान में अर्जुनलाल सेठी, बरहत केसरी सिंह और रावगोपाल सिंह ने क्रान्तिकारी गतिविधियाँ कीं। मध्य प्रदेश के प्रमुख क्रान्तिकारी अमरावती के गणेश श्रीकृष्ण सपर्डे थे। पटना में वी एन कॉलेज और पटना लॉ कॉलेज के अध्यापक कामाख्या नाथ मित्र, सुधीर कुमार सिंह, पुनीत लाल, बाबू मंगलाचरण इत्यादि ने इन गतिविधियों में अपना सक्रिय सहयोग दिया।

विदेश में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

भारत में हुई क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रभाव विदेशों में विशेषकर ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी में रह रहे भारतीयों पर पड़ा। भारत के बाहर की सबसे पुरानी क्रान्तिकारी समिति इण्डिया होमरूल सोसायटी थी, जिसकी स्थापना 1905 ई. में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में की थी, उन्होंने इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा उनके सहयोगियों वीडी सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल धींगरा आदि ने लन्दन में इण्डिया हाउस की भी स्थापना की। लन्दन में विरोध के कारण श्यामजी कृष्ण वर्मा पेरिस चले गए। श्यामजी कृष्ण वर्मा की पेरिस में सहयोगी मैडम भीखाजी कामा ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रचार किया। इनको भारतीय क्रान्तिकारियों की माँ कहा जाता है। भीखाजी कामा ने 18 अगस्त, 1907 को स्टुटगार्ट (जर्मनी) में होने वाले द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। यहाँ उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरोध में एक उत्तेजक भाषण दिया तथा इस सम्मेलन में तिरंगा झण्डा फहराया।

वर्ष 1907 में रामनाथ पुरी ने सर्कुलर-ए-आजादी तथा बैंकुवर से तारकनाथ दास ने फ्री हिन्दुस्तान का प्रकाशन किया। ये समाचार-पत्र राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत थे। जीडी कुमार ने वैंकुवर में स्वदेश सेवक की स्थापना की तथा गुरुमुखी में ‘स्वदेश सेवक’ नामक समाचार-पत्र निकालना प्रारम्भ किया। तारकनाथ दास तथा जी. डी. कुमार ने अमेरिका के सिएटल’ में यूनाइटेड इण्डिया हाउस की स्थापना की। इसका ‘खालसा दीवान सोसायटी’ से भी सम्पर्क था।

संयुक्त राज्य अमेरिका में रह रहे भारतीय द्वारकानाथ दास ने वर्ष 1907 में कैलिफोर्निया में भारतीय स्वतन्त्रता लीग का गठन किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा के पश्चात् इण्डिया होमरूल सोसायटी का नेतृत्व वी डी सावरकर ने किया। सावरकर के एक मित्र मदन लाल धींगरा ने 1 जुलाई, 1909 को लन्दन में भारत सचिव के राजनैतिक सहायक (ADC) विलियम कर्जन वाइली की गोली मारकर हत्या कर दी। वाइली की हत्या के आरोप में धींगरा को फाँसी दे दी गई। फाँसी के बाद आयरलैण्ड के एक अखबार ने ने धींगरा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा “मदन लाल धींगरा को जिसने अपने देश की खातिर अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, आयरलैण्ड अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।” भारत के कई नेताओं-वी सी पाल, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोखले इत्यादि ने मदन लाल धींगरा की कड़े शब्दों में निन्दा की थी। इस हत्या के बाद 13 मार्च, 1910 को सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया और नासिक षड्यन्त्र तथा अन्य मामलों के लिए भारत भेजा गया।

गदर आन्दोलन

19वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में बहुत से भारतीय, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा में जाकर बस गए थे। गोरे मजदूरी एवं उनके संगठनों द्वारा भारतीयों के प्रवेश का विरोध किया गया। तत्कालीन भारतीय गृह सचिव ने भी भारतीयों के विदेश में बसने पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की। उनको आशंका थी कि “भारतीयों का गोरे मजदूरों के साथ नजदीकी सम्बन्ध होने से उनके मन में अंग्रेजों के प्रति जो इज्जत की भावना है, उसको क्षति पहुंचेगी और ब्रिटेन जो आज हिन्दुस्तान पर इसी इज्जत के कहीं समाजवादी विचारधारा से प्रभावित न हो जाएँ। वर्ष 1908 में कनाडा में भारतीयों के घुसने पर कारण काबिज है, न कि ताकत के बल पर।” इसके अलावा उनकी यह भी चिन्ता थी’ कि भारतीय प्रतिबन्ध लगा दिया। इससे भारतीयों में असन्तोष की भावना जगी। प्रवासी भारतीयों द्वारा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं संगठनों की स्थापना की गई।

गदर पार्टी की स्थापना

पश्चिमी अमेरिका के तट पर मई, 1913 में पोर्टलैण्ड में हिन्दी एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी पहली बैठक में भाई परमानन्द, सोहन सिंह भाखना और हरनाम सिंह उपस्थित थे। वर्ष 1913 स्थापना की। यह भारतीय क्रान्तिकारी संघ था। इस संस्थान से काशीराम पण्डित, करतार सिंह सराभा, में परमानन्द, सोहन सिंह भाखना और लाला हरदयाल ने मिलकर सैनफ्रांसिस्को में गदर पार्टी की रामचन्द्र आदि भी जुड़े थे।

पहली बैठक में सोहन सिंह भाखना को गदर पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। हरदयाल जनरल सेक्रेटरी बने तथा पण्डित काशीराम इसके कोषाध्यक्ष बने। इस सम्मेलन में भाई परमानन्द तथा हरनाम सिंह टूण्डीलाट भी उपस्थित थे। यहाँ फैसला लिया गया कि सैनफ्रांसिस्को में युगान्तर आश्रम नाम से मुख्यालय बनाया जाएगा। रामचन्द्र तथा बरकतुल्ला ने उनकी इसमें सहायता की। गदर पार्टी ने गदर नामक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन किया, जोकि 1857 ई. की स्मृति में स्थापित की गई।

गदर पत्रिका

पत्रिका उर्दू, अंग्रेजी, मराठी, पंजाबी में प्रकाशित होती थी। 1 नवम्बर, 1913 को गदर का पहला अंक प्रकाशित हुआ, जो उर्दू में था। 9 सितम्बर से यह गुरुमुखी (पंजाबी) में भी छपने लगा। इसका एक अंक पश्तो भाषा में भी छपा था। गदर पत्रिका के कारण ही इस आन्दोलन का नाम गदर आन्दोलन पड़ गया। गदर पार्टी ने सैनफ्रांसिस्को के युगान्तर आश्रम से कार्य करना प्रारम्भ किया। यह स्थान कलकत्ता की क्रान्तिकारी पत्रिका युगान्तर के नाम पर रखा गया था। गदर पत्रिका पर लिखी पंक्ति उसके उद्देश्यों को बताती है। इस पर अंग्रेजी राज का दुश्मन लिखा होता था। इसके अलावा पहले पृष्ठ पर अंग्रेजी राज का 14 सूत्रीय कच्चा चिट्ठा छपता था, जो लोगों को अंग्रेजी कुशासन के बारे में बताता था। उनका मानना था कि 1857 ई. के विद्रोह को 56 वर्ष बीत चुके हैं, अब दूसरे विद्रोह का वक्त आ गया है।

गदर आन्दोलन को तीन घटनाओं ने बहुत प्रभावित किया

  1. लाला हरदयाल की गिरफ्तारी
  2. कामागाटामारू प्रकरण
  3. प्रथम विश्वयुद्ध एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन

लाला हरदयाल की गिरफ्तारी

लाला हरदयाल को अराजक गतिविधियों के आरोप में वर्ष 1914 में गिरफ्तार कर लिया गया जमानत से छूटने के पश्चात् वह जर्मनी चले गए, जहाँ बर्लिन में उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता समिति के स्थापना की। अमेरिका जाने के बाद गदर आन्दोलन में उनका सहयोग खत्म हो गया।

कामागाटामारू प्रकरण

कामागाटामारू प्रकरण का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इस ने एक जापानी पोत ‘कामागाटामारू’ को किराए इस काण्ड ने पंजाब में एक विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर दी थी। पंजाब के एक क्रान्तिकारी गुरदीत सिंह ने एक जापानी पोत ‘कामागाटामारू ‘ को किराए पर लेकर 4 मार्च, 1914 को दक्षिण-पूर्व एशिया के करीब 376 यात्रियों को लेकर सिंगापुर से बैंकूवर ले जाने का प्रयत्न किया।

कनाडा सरकार ने इन यात्रियों को बन्दरगाह में उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज को बिना कही रुके हुए कलकत्ता बन्दरगाह लौटना पड़ा। इन यात्रियों का यह विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार के कहने पर ही कनाडा की सरकार ने इन्हें वापस किया है। 27 सितम्बर, 1914 को कलकत्ता पहुंचने पुलिस के साथ इनकी झड़प हुई, जिसमें 18 लोग मारे गए। 202 लोगों को जेल भेजा गया।

प्रथम विश्वयुद्ध एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन

प्रथम विश्वयुद्ध आन्दोलनकारियों को सुनहरे मौके के समान लगा जिसके बाद उन्होंने भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों पर हिंसक आक्रमण करने की योजना बनाई। इसके लिए फैसला किया गया कि हिन्दुस्तान में जाकर भारतीय सैनिकों की मदद ली जाए। गदर दल के विभिन्न क्रान्तिकारियों को भारत भेजा गया।

ब्रिटिश सरकार को इन गतिविधियों की जानकारी मिल गई। सरकार ने भारत रक्षा अधिनियम, 1916 बनाया। विद्रोही नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 45 लोगों पर मुकदमा चला और उन्हें फाँसी दी गई। करतार सिंह सराभा उनमें से एक थे। रासबिहारी बोस जापान भाग गए, सचिन सान्याल को भी देश से निर्वासित कर दिया गया। धीरे-धीरे यह आन्दोलन मृतप्राय हो गया।

अन्तरिम सरकार

वर्ष 1915 में राजा महेन्द्र प्रताप ने जर्मनी के सहयोग से काबुल मे अन्तरिम सरकार का गठन किया। इसकी संरचना इस प्रकार थी राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप प्रधानमन्त्री मौलवी बरकतुल्ला मन्त्रिमण्डल के अन्य सदस्य मौलाना अब्दुल्ला, मौलाना बशीर, सी पिल्लै (गृहमन्त्री) शमशेर सिंह, डॉ. मथुरा सिंह, खुदाबख्श, मोहम्मद अली आदि।

हिजरत आन्दोलन एक अन्य गतिविधि है, जिसमें कई मुसलमान युवक भारत की सीमा पार करके अफगानिस्तान एवं तुर्किस्तान पहुँचे और वहाँ खुदाईखिदमतगार सेना की स्थापना की। इनर्क कार्यवाहियों में से एक रेशमी रुमाल पर षड्यन्त्र का प्लान्लिखकर एक नौकर के हाथ भारत भेजा गया, लेकिन उस घबराकर वह रुमाल अपने मालिक को दे दिया, जो अंग्रेजों के मित्र था, जिससे यह षड्यन्त्र विफल हो गया।

वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, लाला हरदयाल एव अन्य लोगों ने वर्ष 1915 में जर्मन विदेश मन्त्रालय के सहयोग से जिम्मेरमैन योजना के तहत बर्लिन कमेटी फार इण्डिय इण्डिपेण्डेन्स की स्थापना की।

इनका उद्देश्य विदेशों में रह रहे भारतीयों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित करना था। सिंगापुर में वर्ष 1915 में पंजाबी मुसलमानों की 5वीं लाइट इन्फेण्ट्री तथा 36वीं सिख बटालियन में जमादार चिश्ती खान, अब्दुल गनी, दाउद खान के नेतृत्व में विद्रोह किया गया।

तुर्की के विरुद्ध ब्रिटेन का युद्ध हिन्दू राष्ट्रवादियों तथा संघर्षशील अखिल इस्लामवादियों को एक-दूसरे के निकट लाया। इससे बरकतुल्ला, महमूद हसन और ओबेदुल्ला सिन्धी जैसे मुसलमान क्रान्तिकारी नेता आगे आए। पंजाब की छावनियों में करतार सिंह सराभा ने क्रान्ति का संगठन किया।

क्रान्तिकारियों ने भारत में एक व्यापक कार्यवाही की योजना बनाई। सैनिकों के बीच भी क्रान्तिकारी विचारों का प्रकाशन शुरू किया गया। योजना के तहत किसानों, सैनिकों एवं आम जनता का गठबन्धन बनाकर सशस्त्र विद्रोह की योजना थी, जिसके लिए 21 जुलाई, 1915 का दिन निश्चित किया गया था।

इसी दिन पेशावर से लेकर चटगाँव तक महत्त्वपूर्ण सरकारी केन्द्रों पर हमला किया जाना था, परन्तु समय रहते षड्यन्त्र का खुलासा हो गया, जिसमें करतार सिंह सराभा, विष्णु पिंगले आदि को गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत विशेष मुकदमा दायर किया, जो प्रथम लाहौर षड्यन्त्र केस (1915) के नाम से विख्यात हुआ।

प्रथम विश्वयुद्ध एवं भारतीय राजनीति (वर्ष 1914-18)

4 अगस्त, 1914 को शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था। ब्रिटिश सरकार भारत को भी इस युद्ध में शामिल करना चाहती थी। इस बात को ध्यान में रखकर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने यह घोषणा की, कि ब्रिटिश नीति का लक्ष्य भारत में क्रमश: जिम्मेदार सरकार की स्थापना करना है। ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री एक्सविथ ने कहा, भविष्य में हमें भारत की समस्या को नए सिरे से देखना होगा।

लायड जॉर्ज ने घोषणा की, कि स्वराज निर्णय के जिस सिद्धान्त के लिए हम लड़ रहे हैं, उसे भारत आदि प्राच्य देशों पर भी लागू किया जाएगा। वर्ष 1916 में चेम्सफोर्ड भारत में वायसराय बनकर आए एवं उन्होंने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश शासन का लक्ष्य स्वशासन की स्थापना करना है।

भारतीय राजनीति में सक्रिय विभिन्न विचारधाराओं के लोगों तथा रजवाड़ों ने इस युद्ध में ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोण का समर्थन किया।

प्रथम विश्वयुद्ध काल में कांग्रेस के चार अधिवेशन हुए। प्रत्येक अधिवेशन में इस साम्राज्यवादी युद्ध का पूर्ण समर्थन किया गया। भारतीय नेताओं की जरा भी राय-मशवरा लिए बिना ब्रिटिश शासन ने भारत को युद्ध में झोंक दिया, जिसका कांग्रेस नेताओं ने भी विरोध नहीं किया।

गाँधीजी एवं लोकमान्य तिलक सरीखे राष्ट्रवादी नेता भी ब्रिटिश सरकार को साम्राज्यवादी युद्ध में समर्थन देने के पक्ष में हो गए। गाँधीजी ने सरकार की युद्ध प्रयासों में मदद की, जिसके लिए सरकार ने उन्हें केसर-ए-हिन्द से सम्मानित किया।

युद्ध के दिनों में गाँधीजी ने भारतीय युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित किया था, जिसके लिए उन्हें कुछ लोग सेना में भर्ती करने वाला सार्जेण्ट भी कहने लगे थे। प्रथम विश्वयुद्ध में ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

10 लाख भारतीय सैनिक फ्रांस से लेकर चीन की सीमा तक लड़ रहे थे, जिनमें एक लाख की मृत्यु हो गई। युद्ध व्यय के रूप में 18 करोड़ पौण्ड खर्च हुए। प्रथम विश्वयुद्ध के प्रति एक भिन्न विचार, क्रान्तिकारी नेताओं का था, इन्होंने इसे एक अवसर के रूप में देखा और देश की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास किए।

तो दोस्तों यहा इस पृष्ठ पर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रथम चरण (1885 से 1915 ई.) के बारे में बताया गया है अगर येभारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रथम चरण (1885 से 1915 ई.) आपको पसंद आया हो तो इस पोस्ट को अपने friends के साथ social media में share जरूर करे। ताकि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रथम चरण (1885 से 1915 ई.) के बारे में जान सके। और नवीनतम अपडेट के लिए हमारे साथ बने रहे।

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