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1857 का विद्रोह

1857 का विद्रोह 1857 ई. के विद्रोह को ब्रिटिश भारत के औपनिवेशिक इतिहास का महाविभाजक काल कहा जाता है। 1757 ई. के प्लासी के युद्ध कम्पनी के राजनैतिक प्रभाव की जो शुरुआत हुई थी, वह 1858 ई. में भारत को ब्रिटिश ताज के अन्तर्गत लाने के साथ समाप्त हो गई। भारत में ब्रिटिश शासन के प्रथम सौ वर्षों में कई बार ब्रिटिश सत्ता को भारतीयों से चुनौतियाँ मिली, जिसमें अनेक सैनिक, असैनिक उपद्रव एवं
स्थानीय बगावतें सम्मिलित थीं।

1857 ई. के विद्रोह को मात्र तात्कालिक कारणों के अन्तर्गत न देखकर इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। विद्रोह को जन्म देने वाले कारणों में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक सभी जिम्मेदार हैं। 1867 ई. का विद्रोह सिपाहियों के असन्तोष का परिणाम मात्र नहीं था। वास्तव में, यह भारत में औपनिवेशिक शासन के चरित्र, नीतियों और उसके कारण कम्पनी के शासन के प्रति जनता में संचित असन्तोष तथा विदेशी शासन के प्रति उनकी घृणा का परिणाम था। इस विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

राजनैतिक कारण

प्रारम्भ से ही कम्पनी ने देशी भारतीय राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न किया। वेलेजली की सहायक सन्धि इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास था। इसके अन्तर्गत भारतीय राजाओं को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना रखरखाव के लिए धन का भुगतान करना होता था, जिसके बदले ब्रिटिश सेना उनके विरोधियों से उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने का भरोसा देती थी। साथ ही, इन रेजिडेण्टों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया, जिससे कम्पनी तथा राज्य के सम्बन्ध बिगड़ गए। इसके अतिरिक्त राजनैतिक असन्तोष का एक अन्य कारण मुगल बादशाह का अपमान करना भी था। 1849 ई. में यह घोषणा की गई कि मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय ‘जफर’ की मृत्यु के बाद उसके वंशजों को लालकिला खाली करना पड़ेगा।

मुगल बादशाह को अपमानित करने के लिए उन्हें नजर देना, सिक्कों पर नाम खुदवाना आदि परम्परा को डलहौजी ने बन्द करवा दिया। साथ ही, बादशाह को लाल किला छोड़कर कुतुबमीनार में रहने का आदेश दिया। इसके अतिरिक्त कैनिंग ने 1856 ई. में घोषणा की कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी सम्राटों के बदले शहजादों के रूप में जाने जाएंगे। डलहौजी के व्यपगत सिद्धान्त के अन्तर्गत मिलाए गए देशी राज्यों एवं 1856 ई. में कुशासन को आधार बनाकर अवध के अधिग्रहण से यहाँ के शासक वर्ग, स्थानीय जनता एवं सिपाहियों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। डलहौजी ने तंजौर और कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपाधियाँ जब्त कर लीं। उसने भूपतियों के अधिकारों की जाँच के लिए बम्बई में इनाम कमीशन स्थापित किया, जिससे दक्कन में लगभग 20.000 जमींदारियों को जब्त कर लिया गया।

आर्थिक कारण

भारत में कम्पनी की सभी नीतियों के मूल में भारत का आर्थिक शोषण कर अपना मुनाफा बढ़ाना था। इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं भारतीय जनमानस के हितों के मध्य एक स्वाभाविक संघर्ष था। जब कम्पनी ने आर्थिक शोषण बहुत अधिक कर दिया तथा विद्रोह के लिए अन्य अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं, तब यह 1857 ई. के विद्रोह का कारण बनीं। इसका प्रभाव सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ा। ग्रामीण क्षेत्र में अंग्रेजी सत्ता के प्रति असन्तोष के लिए कारणों को दो रूपों में देख सकते हैं-भूमि की उत्पादन क्षमता से अधिक लगान दर एवं भूमि को निजी सम्पत्ति बनाने से इस पर अधिकार के हस्तान्तरण की सुविधा।

1856 ई. के भूमि प्रबन्धन अधिनियम से अवध के ताल्लुकेदारों के समस्त अधिकार समाप्त कर दिए गए। जमींदारों एवं किसानों को नई व्यवस्था के अनुसार लगान चुका पाना असम्भव-सा प्रतीत हो रहा था, जिसके परिणामस्वरूप इनकी कृषि भूमि प्राय: नीलाम कर दी जाती थी। भारत से इंग्लैण्ड को निर्यात होने वाले मलमल एवं कैलिको सूती पर जहाँ क्रमश: 27%, 71% एवं रेशमी कपड़ों पर 90% कर लिया जाता; वहीं भारत में आने वाले अंग्रेज़ी सूती और रेशमी वस्त्र पर १.3% और गर्म कपड़े पर 2% कर था। अंग्रेज़ों की इस नीति का परिणाम यह हुआ कि इंग्लैण्ड में भारत का सूती और रेशमी कपड़ा जाना बन्द हो गया। इसका भारत के कपड़ा उद्योग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

औद्योगिक क्षेत्र की इन सभी नीतियों का कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और कृषि पर भार बढ़ा, जिसने कृषकों को जो पहले से ही लगान न चुका पाने की समस्या से गुजर रहे थे, कृषि छोड़ने पर मजबूर कर दिया। भारत में इसके परिणामस्वरूप भीषण अकालों के दौर देखे गए। 1770 से 1857 ई. के मध्य भारत में 12 बड़े एवं अनेक छोटे अकाल पड़े।

सामाजिक-धार्मिक कारण

कम्पनी की विभिन्न नीतियों से भारतीयों में इस भावना को बल मिला कि उनकी सभ्यता एवं संस्कृति खतरे में है। ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार से इस भावना को बल मिला। इसके साथ ही भारतीयों को सभ्य बनाने के अन्तर्गत किए गए प्रयासों ने भी भारतीयों को शंकित किया। सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के सम्बन्ध में बनाए गए कानूनों को भी लोगों ने अपनी व्यवस्था पर आघात माना।

कम्पनी के द्वारा की गई अन्य गतिविधियों से भी इस भावन को बल मिला; जैसे

  • अंग्रेजों की नस्लवादी नीति जिसके अन्तर्गत नस्लीय भेदभाव को संरक्षण दिया गया।
  • 1818 ई. से पहले ईसाई मिशनरियों को भारत आने की आज्ञा नहीं थी, लेकिन 1813 ई. के आदेश-पत्र द्वारा उन्हें भारत में आने की सुविधा प्राप्त हो गई।
  • 1856 ई. के धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले लोगों को अपनी पैतृक सम्पत्ति का हकदार माना गया, साथ ही उन्हें नौकरियों में सुविधा प्रदान की गई।
  • सेना में भर्ती होने वालों को युद्ध के लिए कहीं भी भेजा जा सकता था। उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं के लिए समुद्र पार करना धर्म-भ्रष्ट होना था। अफगान युद्ध के दौरान सिपाहियों को सब कुछ खाने पर मजबूर किया गया। इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं।

सैनिक कारण

यद्यपि 1857 ई. के विद्रोह में सिपाहियों एवं कृषकों की इन भूमिका को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हर सैनिक अपने गाँव से जुड़ा था। गाँव की हर समस्या उसकी अपनी समस्या थी, लेकिन सैनिकों की कुछ विशिष्ट शिकायतें भी थीं; जैसे-

  • सरकार एवं सैनिकों के मध्य मुख्य विवाद वेतन को लेकर था।
  • 1856 ई. में सेना में लगभग 2,38,000 भारतीय सैनिक तथा 45,322 यूरोपीय सैनिक थे, परन्तु सेना के कुल व्यय का 50% से अधिक भाग यूरोपीय सैनिकों पर खर्च किया जाता था।
  • एक भारतीय सैनिक सेवा काल में अधिकतम र 174 ही वेतन पा सकता था, जबकि यूरोपीय सैनिक प्रारम्भ में ही इतना वेतन प्राप्त कर लेता था।
  • 1856 ई. के सामान्य सेना भर्ती अधिनियम के अन्तर्गत सैनिकों को कहीं भी भेजा जा सकता था।
  • सैनिकों को बिना भत्ते के दूर भेजा जाता था; जैसे-पंजाब एवं सिन्ध में लड़ते समय अंग्रेज़ों ने विदेशी सेवा भत्ता देने से इनकार किया।
  • 1864 ई. में डाकघर अधिनियम द्वारा सैनिकों की नि:शुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गई।
  • सैनिकों की धार्मिक भावनाएँ एवं नस्लवाद ने भी स्थिति को प्रतिकूल बनाया।

तात्कालिक कारण

चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग को 1857 ई. के विद्रोह का तात्कालिक कारण माना जाता है। कैनिंग के काल में 1857 ई. में सैनिकों के प्रयोग के लिए पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस के स्थान पर इनफिल्ड रायफल का प्रयोग शुरू करवाया, जिसमें कारतूसों को लगाने से पूर्व दाँतों से खींचना पड़ता था। सैनिकों में यह अफवाह फैल गई कि कारतूसों में गाय और सुअर दोनों की चर्बी लगी है इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनों भड़क उठे, जिसके परिणामस्वरूप 1857 ई. के विद्रोह की शुरुआत हुई।

विद्रोह का स्वरूप

1857 ई.के विद्रोह के स्वरूप के सन्दर्भ में इतिहासकारों में कई मत हैं। मुख्यत: यह मतभेद तीन बिन्दुओं पर आधारित हैं। सैनिक विद्रोह, भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संघर्ष तथा सामंतीय असन्तोष और उस पर प्रतिक्रिया। कुछ महत्त्वपूर्ण विचारकों के मत इस प्रकार हैं

विद्रोह के स्वरूप सम्बन्धी मत

विचारक मत
वीर सावरकरभारत का प्रथम एवं सुनियोजित स्वाधीनता संग्राम
एस बी चौधरीस्वतन्त्रता का प्रथम युद्ध
जेम्स आउट्रम एवं डब्ल्यू टेलरअंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम षड्यन्त्र
    एल ई आर रीजधर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध
टी आर होम्जबर्बरता एवं सभ्यता के बीच युद्ध
बेन्जामिन डिजरेलीराष्ट्रीय विद्रोह, सचेत संयोग का परिणाम, सुनियोजित
अशोक मेहताराष्ट्रीय विद्रोह
डॉ. एस एन सेन स्वतन्त्रता संग्राम
   डॉ. ईश्वरी प्रसाद स्वतन्त्रता संग्राम
डॉ. रामविलास शर्माजनक्रान्ति
सर जॉन लॉरेन्स, सीले, ट्रेविलियन, होम्जपूर्णतः सिपाही विद्रोह
आर सी मजूमदारयह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम, न तो प्रथम, न ही राष्ट्रीय तथा न ही स्वतन्त्रता संग्राम था
मार्क्सवादी विचारकसैनिक एवं कृषक का प्रजातान्त्रिक गठजोड़, जो विदेशी तथा सामन्तशाही दासता से मुक्ति चाहता था

विद्रोह का प्रारम्भ

वर्ष 1867 का विद्रोह स्वतः स्फूर्त अनियोजित था या यह किसी सुनियोजित षडयन्त्र का परिणाम था, इस बारे में इतिहासकार एकमत नहीं है। इस विद्रोह से सम्बन्धित समस्त उपलव्य दस्तावेज ब्रिटिश स्रोतों पर आधारित है।

विद्रोहियों का कोई दस्तावेज नहीं मिला है। कुछ इतिहासकार इसे सुनियोजित मानते हैं तथा इसके लिए लाल कमल तथा चपाती को विद्रोह के चिह के रूप में वितरित करने की कथा कहते हैं, परन्तु इसके कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार इसे स्वत: स्फूर्त विद्रोह मानते है।

विद्रोह का प्रारम्भ बैरकपुर (बंगाल) से हुआ। यहाँ चर्थी वाले कारतूस का विरोध करते हुए 34वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च, 1897 को अंग्रेज़ अधिकारी सार्जेण्ट ह्यूसन को गोली मार दी एवं लेफ्टीनेण्ट बाग की भी हत्या कर दी। 8 अप्रैल, को मंगल पाण्डेय को फांसी दे दी गई, जो तत्कालीन गाजीपुर (अब बलिया) जिले के निवासी थे। 24 अप्रैल, 1857 को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के 99 सिपाहियों ने चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इनमें से 85 सैनिकों को 10 वर्ष की सजा सुनाई गई। इसके विरोध में 10 मई, 1857 को मेरठ के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर अपने साथियों को छुड़ा लिया तथा दिल्ली की ओर कूच किया। 11 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार करके विद्रोहियों ने मुगल शासक बहादुरशाह द्वितीय जो बहादुरशाह जफर’ के नाम से भी जाना जाता था, को नेता स्वीकार किया।

विद्रोह के प्रमुख केन्द्र

दिल्ली

11 मई, 1857 को विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया, उन्होंने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर जो कि कम्पनी के पेंशनयाफ्ता थे एवं नाममात्र की सत्ता को धारण करते थे, को अपना नेतृत्व सौंपा। दिल्ली पर नियन्त्रण के दौरान कम्पनी का राजनैतिक एजेण्ट साइमन फ्रेजर मारा गया।

दिल्ली पर नियन्त्रण के पश्चात् व्यवस्था बनाए रखने हेतु एक सैन्य समिति का निर्माण किया गया, जिसका प्रमुख बख्त खान (खान बहादुर खान) को बनाया गया। जल्द ही यह विद्रोह पूरे उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में फैल गया। इन क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें गैर-सैनिकों की संख्या, सैनिकों से अधिक थी।

20 सितम्बर, 1857 को बहादुरशाह ने हुमायूँ के मकबरे में अंग्रेज़ लेफ्टिनेण्ट हडसन के सामने समर्पण कर दिया। दिल्ली पर अधिकार के लिए होने वाले संघर्ष के दौरान जॉन निकल्सन मारा गया। दिल्ली में खूनी दरवाजे के पास लेफ्टिनेण्ट हडसन ने बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों मिर्जा मुगल, मिर्जा ख्वाजा सुल्तान और एक पौत्र मिर्जा अबूबक्र की गोली मारकर हत्या कर दी।

बहादुरशाह को शेष जीवन रंगून में रहकर बिताना पड़ा, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। विद्रोह के समय प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा गालिब दिल्ली में थे। उन्होंने लिखा “यहाँ मेरे सामने रक्त का विशाल सागर है, केवल खुदा ही जानता है कि मुझे अभी और क्या देखना है।”

लखनऊ

लखनऊ में विद्रोह 30 मई को प्रारम्भ हुआ। जिसका नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया, जो अपने अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर के नाम पर शासन सम्भाल रही थीं। लखनऊ में विद्रोह के दौरान वहाँ का चीफ कमिश्नर हेनरी लॉरेन्स था। विद्रोहियों से बचने के लिए उसने रेजीडेन्सी में शरण ली, जहाँ वह लड़ते हुए मारा गया। इसके पश्चात् ब्रिगेडियर इंग्लिश ने कमान सँभाली। 30 जून को चिनहट (लखनऊ में स्थित) का युद्ध एक महत्त्वपूर्ण घटना है। हजरत महल पराजित होकर नेपाल भाग गईं, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई।

कानपुर

यहाँ विद्रोह 5 जून को प्रारम्भ हुआ, जिसका नेतृत्व नाना साहब (धोंधू पन्त) ने किया। नाना साहब पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। कम्पनी ने बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उनकी पेंशन बन्द कर दी थी। इस विद्रोह में उन्हें तात्या टोपे की सहायता प्राप्त हुई। चौड़ाघाट एवं बीबीगढ़ की घटना का सम्बन्ध कानपुर में हुए विद्रोह से है।

इसमें विद्रोहियों द्वारा आश्वासन के बावजूद चौड़ाघाट (इलाहाबाद) में अंग्रेजों की हत्या कर दी गई थी तथा बीबीगढ़ में भी अंग्रेज स्त्रियों एवं बच्चों की हत्या कर दी गई थी। अंग्रेजों ने इस घटना को अत्यधिक दुष्प्रचारित किया और 6 सितम्बर, 1857 तक कैम्पबेल ने कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। नाना साहब नेपाल के जंगलों में भाग गए।

झाँसी एवं ग्वालियर

झाँसी में गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारी के अभाव में डलहौजी ने झाँसी के साथ 1817 ई. की सन्धि का उल्लंघन करते हुए 1854 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया था। परिणामस्वरूप झाँसी में 4 जून, 1857 को राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई (मूल नाम मनु) ने विद्रोह की शुरुआत की, जिसको दबाने के लिए अंग्रेज ह्यूरोज ने झाँसी की ओर प्रस्थान किया और 3 अप्रैल, 1858 को झाँसी पर कब्जा कर लिया; परिणामस्वरूप रानी लक्ष्मीबाई कालपी होते हुए ग्वालियर जा पहुंची, जहाँ ताँत्या टोपे ने उनका साथ दिया, जो कानपुर के पतन के बाद वहाँ पहुँचे थे।

ग्वालियर के दुर्ग की रक्षा करते हुए 17 जून, 1858 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गई, जिसकी वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज (Hurose) ने कहा, “भारतीय क्रान्तिकारियों में वह अकेली मर्द है।” ( ” तात्या टोपे को सिन्धिया के सामन्त मानसिंह ने अप्रैल, 1859 में अंग्रेजों को सौंप दिया, जिसे अंग्रेज़ों ने 18 अप्रैल 1859 को फाँसी दे दी। ताँत्या टोपे का वास्तविक नाम रामचन्द्र पाण्डुरंग था।

अन्य क्षेत्र

  • जगदीशपुर (आरा, बिहार) में विद्रोह का नेतृत्व जमींदार कुँवर सिंह ने किया था।
  • असम में विद्रोह का नेतृत्व वहाँ के दीवान मनीराम दत्त ने, वहाँ के अन्तिम राजा के पोते कन्दपेश्वर सिंह को राजा घोषित करके किया।
  • कोटा (राजस्थान) में एक भारतीय सैन्य टुकड़ी ने विद्रोह कर अंग्रेज एजेण्ट मेजर बर्टन की हत्या कर दी।
  • उड़ीसा में सम्भलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र शाही और उज्ज्वल शाही ने विद्रोह किया।
  • गंजाम में साबरों ने राधाकृष्ण दण्डसेन के नेतृत्व में विद्रोह किया।
  • पंजाब में 9वीं अनियमित सेना (घुड़सवार) के वजीर खाँ ने अजनाला में विद्रोह किया।
  • कुल्लू में राणा प्रताप सिंह और वीर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया।
  • सतारा में रंगोजी बापूजी गुप्ते ने विद्रोह का नेतृत्व किया।

दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा विद्रोह के समय शान्त था। बंगाल, पंजाब, राजपूताना, पटियाला, जीन्द, हैदराबाद, मद्रास आदि ऐसे क्षेत्र थे, जहाँ विद्रोह नहीं पनप सका। यहाँ के शासकों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ी सरकार की मदद भी की।

विद्रोह के प्रमुख केन्द्र

केंद्र नेता अंग्रेज अधिकारीशुरुआत दमन
दिल्लीबहादुरशाह जफर, बख्त खाँनिकल्सन, हडसन, विलोवी11 मई 185720 सितम्बर 1857
कानपुरनाना साहब, तात्या टोपेकैम्पबेल 5 जून 1857दिसम्बर 1857
लखनऊबेगम हजरत महलकैम्पबेल, लॉरेन्स, हैवलॉक4 जून 185731 मार्च 1858
झाँसी, ग्वालियररानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपेह्यूरोज4 जून 185717 जून 1858
इलाहाबादलियाकत अलीकर्नल नीलजून 18571858
जगदीशपुरकुँवर सिंहविलियम टेलर12 जून, 1857दिसम्बर 1858
फैजाबादमौलवी अहमदउल्लारेनार्डजून 1857 5 जून 1858
बरेलीखान बहादुर खाँविसेण्ट आयरजून 1857 1858

 विद्रोह के अन्य केन्द्र एवं नेता

केन्द्र नेताकेन्द्रनेता
गोरखपुर मुल्तानपुर फरीदाबादगजोधर सिंहमेरठकदम सिंह
सुल्तानपुरशहीद हसनमन्दसौर शहजादा हुमायूँ
फर्रुखाबादनवाब तफज्जल हुसैनरायपुरनारायण सिंह
हरियाणाराव तुलारामगढ़मण्डलाशंकरशाह एवं राजा ठाकुर
मथुरा देवी सिंहसागरशेख रमजान

विद्रोह का दमन

1857 के महाविद्रोह को लगभग 1 वर्ष के अन्दर ही ब्रिटिश सरकार द्वारा दबा दिया गया। दिल के पतन के साथ ही विद्रोह का केन्द्र बिन्दु भी नष्ट हो गया। विद्रोह के अन्य नेता बहादुरी के साथ अलग-अलग लड़े, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ एक सुनियोजित एवं लक्ष्य केन्द्रित अभियान चलाया। इस अभियान के पास उत्कृष्ट संसाधन तथा कुशल सैन्य अधिकारी थे। विद्रोह के सभी नेता वीरगति को प्राप्त हुए तथा जो बचे थे वे देश छोड़कर चले गए। नाना साहेब काना में पराजित हुए तथा 1859 ई. में नेपाल की ओर कूच कर गए, फिर उनका कुछ पता न चला।

तात्या टोपे मध्य भारत के घने जंगलों में छिप गए तथा वहीं से छापामार युद्ध अभियान चलाते र 1859 ई. में एक मित्र की गद्दारी के कारण वे गिरफ्तार हो गए तथा 15 अप्रैल 1859 को उ फाँसी दे दी गई। झाँसी की रानी पहले ही वीरगति पा चुकी थीं। 1859 ई. के अन्त तक भारत के पुनः ब्रिटिश सत्ता स्थापित हो चुकी थी।

1857 ई. से पूर्व के सैनिक विद्रोह

1857 ई. के पूर्व भी भारत में अंग्रेजों के खिलाफ अनेक सैन्य विद्रोह हुए थे; जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित विद्रोह हैं

  • 1764 ई. बक्सर के युद्ध के समय हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में लड़ रही सेना के कुछ सिपाही करके मीरकासिम से मिल गए।
  • 1806 ई. वेल्लोर में सैनिक विद्रोह।
  • 1824 ई. बैरकपुर छावनी में दोहरे भत्ते के बिना रंगून जाने के प्रश्न पर विद्रोह।
  • 1825 ई. असम स्थित तोपखाने में विद्रोह।
  • 1830 ई. शोलापुर में वेतन भत्ते के लिए विद्रोह।
  • 1842 ई. बैरकपुर विद्रोह 47वीं रेजीमेण्ट में बर्मा जाने के विरुद्ध विद्रोह।
  • 1844 ई. उचित भत्ते के अभाव में 34वीं एवं 64वीं रेजीमेण्ट के सैनिकों का सिन्ध के सैन्य अभियान पर जाने से इनकार।
  • 1849 ई. पंजाब स्थित गोविन्दगढ़ की एक रेजिमेण्ट का विद्रोह।

विद्रोह की असफलता के कारण

1857 ई. के विद्रोह के कारण भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व के लिए गम्भीर सकट पैदा हो गया। विद्रोह के वर्षों में भारत पर उनका नियन्त्रण लगभग शून्य जैसा हो गया था, लेकिन विभिन्न कारणों ने इस स्थिति को स्थायी नहीं रहने दिया। 1857 ई. के विद्रोह के समय भारत के वायसराय लॉर्ड कैनिंग तथा ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री बिस्कॉट पामसर्टन थे। विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

समन्वय एवं नेतृत्व का अभाव

विद्रोह के विभिन्न केन्द्रों में परस्पर समन्वय का अभाव था। विद्रोह के दौरान किसी केन्द्रीय संगठन का निर्माण नहीं किया गया। किसी स्थान पर विजय पा लेने के बाद उनके आगे के लिए कोई निश्चित योजना नहीं थी। यद्यपि बहादुरशाह द्वितीय को प्रतीक के रूप में नेतृत्व सौंपा गया था, लेकिन उनकी आयु इतनी अधिक थी कि वह विद्रोह को दिशा नहीं दे सके। विभिन्न नेताओं के इस संघर्ष में अपने-अपने हित थे। ब्रिटिश साम्राज्य से एक-समान शत्रुता ने उन्हें एक साथ ला दिया था, परन्तु विद्रोह के समय अनेक योग्य सेनापति अंग्रेज़ों के पक्ष में शामिल थे, जिन्होंने विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

सीमित क्षेत्र तथा राष्ट्रीय भावना का अभाव

देश का एक बहुत बड़ा भाग; जैसे-बंगाल, पंजाब, कश्मीर, उड़ीसा तथा दक्षिण भारत इससे अछूता रहा था। विद्रोह का क्षेत्र सीमित होने से इसे दबाने में अंग्रेज़ों को आसानी हो। इस विद्रोह में राष्ट्रीय भावना’ का पूर्णतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका।

यद्यपि विद्रोहियों को जनता की सहानुभूति प्राप्त थी, लेकिन पूरा देश उनके साथ नहीं था। शिक्षित, व्यापारी, भारतीय शासक न केवल उनका समर्थन कर रहे थे, बल्कि अंग्रेज़ों का सहयोग भी कर रहे थे। अनेक सिपाहियों ने भी विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया, बल्कि अंग्रेज़ों की सहायता की। बम्बई तथा मद्रास की सेनाओं ने विद्रोह में अंग्रेज़ों का साथ दिया।

देशी राजाओं का अंग्रेज़ों का साथ देना

विद्रोह के दौरान अनेक देशी राजाओं ने कम्पनी का साथ दिया। सिखों एवं गोरखों ने कई जगह इस विद्रोह को दबाने में कम्पनी का सहयोग किया। कश्मीर में गुलाब सिंह ने अंग्रेज़ों का साथ दिया। सिन्धिया का एक मन्त्री दिनकर राव, हैदराबाद के वजीर सर सालार जंग, भोपाल की बेगम तथा नेपाल के मन्त्री जंगबहादुर ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की सहायता की। इसके अतिरिक्त पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने भी विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की सहायता की।

इसी सन्दर्भ में कैनिंग ने टिप्पणी की थी कि-“इन शासकों एवं सरदारों ने तरंगरोधको का कार्य किया, अन्यथा इसने हमें एक झोंके में ही बहा दिया होता।” विद्रोह के समय कैनिंग ने कहा था कि “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए, तो हमें कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा।”

सीमित संसाधन

अंग्रेज़ों की तुलना में विद्रोहियों के संसाधन सीमित थे। भारतीय सैनिक अभी भी पारम्परिक तरीकों से युद्ध कर रहे थे। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के सामने भारतीय अस्त्र-शस्त्र ठहर न सके।

नाना साहब ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि “यह नीली टोपी वाली राइफल तो गोली चलने से पहले ही मार देती है।” इसके अलावा अंग्रेजों ने आधुनिक संचार एआवागमन के साधनों का भी बेहतर उपयोग किया। एक विद्रोही सैनिक ने मरते हुए कहा था “इस तार ने हमारा गला घोंट दिया।”

विद्रोह के परिणाम

यद्यपि 1857 ई. का विद्रोह असफल रहा, लेकिन अपनी विफलता में भी इसने एक महान् उद्देश्य की पूर्ति की। वास्तव में यह उस आन्दोलन का प्रेरणा स्रोत बन गया, जिसने वह कर दिखाया जो विद्रोह नहीं कर सका। 1857 ई. की विद्रोह के पश्चात् ब्रिटिश नीतियों एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन लाए गए।

कम्पनी की सत्ता का अन्त

विद्रोह असफल होने के पश्चात् ब्रिटिश क्राउन ने कम्पनी से भारत पर शासन करने के सभी अधिकार वापस ले लिए। 1 नवम्बर, 1858 को इलाहाबाद में आयोजित दरबार में लॉर्ड कैनिंग ने महारानी की उद्घोषणा को पढ़ा। भारत में शासन के लिए 1858 का अधिनियम पारित किया गया। गवर्नर-जनरल को वायसराय (क्राउन का प्रतिनिधि) बना दिया गया।

इस अधिनियम के अनुसार अब भारत का शासन, ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत के राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की भारत परिषद् या इण्डिया काउन्सिल का गठन किया गया। अब भारत के शासन से सम्बन्धित सभी गतिविधियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई। भारत परिषद् की प्रकृति केवल सलाहकारी थी। इस अधिनियम से पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा की गई व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया तथा पूर्व से चले आ रहे कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स तथा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की शक्तियाँ भारत सचिव को दे दी गईं।

प्रशासनिक परिवर्तन

विद्रोह के पश्चात् अंग्रेज़ों ने प्रशासनिक परिवर्तन भी किए। भारत में एक व्यवस्थित शासन प्रणाली की स्थापना के लिए भारत सरकार अधिनियम, 1858 पारित किया गया। विद्रोह का अंग्रेज़ों ने एक कारण यह माना था कि कम्पनी के पास भारतीयों की इच्छा जानने का कोई तरीका नहीं था। इसी को दूर करने के लिए 1861 ई. के भारत परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत तीन भारतीयों को विधानपरिषद् में नियुक्त किया गया। 1861 ई. का इण्डियन हाईकोर्ट अधिनियम तथा 1861 ई. का भारतीय लोक सेवा अधिनियम पारित किया गया।

सैन्य परिवर्तन

इस विद्रोह के पश्चात् सैन्य व्यवस्था में भी सुधार किया गया तथा सेना के पुनर्गठन के लिए पील कमीशन का गठन किया गया। यूरोपीय सेना जो अब तक मात्र 40 हजार थी, उसे बढ़ाकर 65 हजार कर दिया गया तथा भारतीय सेना को 2.38 लाख से घटाकर 1.40 लाख कर दिया गया। बंगाल में यूरोपीय सैनिकों का अनुपात 1 : 2 तथा बम्बई एवं मद्रास में यह अनुपात 2 : 5 कर दिया गया। सेना तथा तोपखाने में ऊँचे पद केवल यूरोपियों के लिए आरक्षित कर दिए गए।

भारतीयों के ऊपर निर्भरता को कम किया गया तथा भारतीय सेना को क्षेत्रीयता के आधार पर बाँटा गया, जिससे एक क्षेत्र की को अन्य क्षेत्र के विरुद्ध प्रयोग में लाया जा सके। भारतीयों को अधिकारी वर्ग से बाहर रखने का प्रयास किया गया। वर्ष 1914 तक कोई भी भारतीय सूबेदार पद से ऊपर नहीं पहुंचा। इसके साथ ही भारतीय सैनिकों को लड़ाकू एवं गैर-लड़ाकू वर्ग में विभाजित किया गया। सिख, गोरखा, पठान को लड़ाकू वर्ग तथा जिन क्षेत्रों में विद्रोह हुआ; जैसे-अवध, बिहार एवं मध्य भारत के लोग गैर-लड़ाकू वर्ग में रखे गए।

रियासतों के प्रति नीति में परिवर्तन

1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् देशी रियासत के अधीनस्थ स्थिति एवं ब्रिटिश परम सत्ता की अवधारणा को औपचारिक रूप से स्थापित किया गया। अक्टूबर, 1858 में महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्र में यह कहा गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों को साम्राज्य में नहीं मिलाएगी और पहले से चले आ रहे समझौतों का सम्मान करेगी। अपने राज्यक्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्यक्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही और साथ ही धार्मिक शोषण समाप्त करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की। गोद लेने की प्रथा को भी स्वीकृति दी गई। इस प्रकार उन्होंने स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुन: वापस करने का आश्वासन दिया।

जमींदारों के प्रति नीति में परिवर्तन

जमींदारों को बनाए रखने की नीति अपनाई गई एवं उन्हें पुन: स्थापित किया गया। उन्हें आश्वस्त करने के लिए स्वयं कैनिंग ने 1858 ई. में अवध जाकर विद्रोह में हिस्सा नहीं लेने वालों को सनद प्रदान की तथा इनाम बाँटे, लेकिन जमींदारों के न्याय एवं व्यवस्था बनाए रखने से सम्बन्धित अधिकार छीन लिए गए। 1857 ई. के विद्रोह ने भारतीयों में भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण विकसित किया। आगे उन्होंने कभी सामन्तवादी व्यवस्था को पुन: स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया। विद्रोह के परिणामस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया था। इसके अलावा इस क्रान्ति ने आगे आने वाले प्रत्येक आन्दोलन के लिए प्रेरणा प्रदान की।

1857 के विद्रोह का महत्त्व

1857 का विद्रोह भले ही असफल हो गया हो, किन्तु इसके परिणाम दूरगामी हुए। इस विद्रोह के नेताओं को भारतीयों ने राष्ट्रीय नायकों का दर्जा दिया तथा देश के लिए मर मिटने की प्रेरणा प्राप्त की। देश राजनैतिक रूप से एक हुआ तथा भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति घृणा की भावना बढ़ती गई। इस विद्रोह से जिस अभियान की शुरुआत हुई, उसकी अन्तिम परिणति वर्ष 1947 में स्वतन्त्रता के साथ पूरी हुई।

विद्रोह से सम्बन्धित प्रमुख पुस्तकें

पुस्तकेंलेखक
फर्स्ट वार ऑफ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्सवी डी सावरकर
द पीजेण्ट एण्ड द राजएरिक स्टोक्स
द ग्रेट रिबेलियनअशोक मेहता
सिपौय म्यूटिनी एण्ड द रिवोल्ट ऑफ 1857आर सी मजूमदार
हिस्ट्री ऑफ इण्डियन म्यूटिनीटी आर होम्स
सिविल रिबेलियन इन द इण्डियन म्यूटिनी एस बी चौधरी
सिपॉय म्यूटिनी 1857एस पी चट्टोपाध्याय
हिस्ट्री ऑफ इण्डियन म्यूटिनीमालेसन
द फर्स्ट वार इण्डियन इण्डिपेडेन्स 1857-59मार्क्स एवं एंजल्स
एन एस्से ऑन द कॉज ऑफ द इण्डियन रिवोल्टसैयद अहमद खान
एट्टीन फिफ्टी सेवन (1857)एस एन सेन

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