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सिन्धु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता की पूरी जानकारी

सिन्धु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता कॉस्ययुगीन, आद्य ऐतिहासिक कालीन हड़प्पा अथवा सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं (टिगरिस और यूफ्रेट्स के तट पर मेसोपोटामिया, नील नदी के तट पर मिस्र तथा हांगहो के तट पर चीन की सभ्यता) में से एक है। रेडियो कार्बन (C-14) पद्धति के आधार पर इसका काल 2600 ई.पू.से 1900 ई.पू. के बीच निर्धारित किया गया है।

उद्भव एवं विस्तार

सिन्धु घाटी सभ्यता भारतीय उप महाद्वीप में प्रथम नगरीय क्रान्ति’ की अवस्था को दर्शाती है। सर्वप्रथम चाल्स मेन्सन ने 1826 ई. में हड़प्पा नामक स्थल पर एक प्राचीन सभ्यता के दबे होने की बात लिखी। भारतीय पुरातत्व के जनक माने जाने वाले अलेक्जेण्डर कनिंघम ने यहाँ का अवलोकन किया, लेकिन इस स्थल के महत्त्व को समझा नहीं जा सका। वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अध्यक्ष जॉन मार्शल के निर्देशन में हड़प्पा स्थल का ज्ञान हुआ। सर्वप्रथम हड़प्पा की खोज के कारण इसका नाम हड़प्पा सभ्यता पड़ा।

इस सभ्यता के उद्भव को उन ग्रामीण संस्कृतियों के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है, जो उत्तर-पश्चिम के एक बड़े क्षेत्र में 6000 ई. पू. से 4000 ई. पू. के मध्य अस्तित्व में आई। बलूचिस्तान में मेहरगढ़ तथा किलीगुल मोहम्मद, अफगानिस्तान में मुण्डीगाक एवं पंजाब में जलीलपुर इसके उदाहरण है। हड़प्पा सभ्यता के निर्माताओं का निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण स्रोत कंकाल हैं। सर्वाधिक कंकाल मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं। सिन्धु सभ्यता में चार प्रजातियाँ भूमध्यसागरीय, प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड, मंगोलॉयड एवं अल्पाइन पाई जाती हैं, जिनमें सबसे अधिक भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग थे।

सिन्धु घाटी सभ्यता के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सीमान्त भाग शामिल था। इस क्षेत्र में इस सभ्यता से पहले और बाद में भी संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं, जिन्हें क्रमश: आरम्भिक तथा परवर्ती हड़प्पा कहा जाता है। इन संस्कृतियों से हड़प्पा सभ्यता को अलग करने के लिए कभी-कभी इसे विकसित हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है। यह सभ्यता उत्तर में जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने पर स्थित दैमाबाद तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट (सुत्कागेण्डोर) से लेकर पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आलमगीरपुर तक फैली हुई थी। समूचा क्षेत्र त्रिभुजाकार है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 12,99,600 वर्ग किमी है, जो मिस एवं मेसोपोटामिया दोनों से बड़ा है।

सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख क्षेत्र एवं सम्बद्ध पुटास्थल

क्षेत्रसम्बद्ध पुरास्थल
अफगानिस्तानमुण्डीगाक, शोर्तुघई
बलूचिस्तान (पाकिस्तान) मेहरगढ़, सुत्कागेण्डोर, सुत्काकोह, बालाकोट, रानाधुण्डई, कुल्ली, दबसादात एवं डाबरकोट
सिन्धकोटदीजी, आमरी, मोहनजोदड़ो, अलीमुराद, चन्हूदड़ो, जुदीरोजड़ो
गुजरात

  • कच्छ का रन
  • काठियावाड़ प्रदेश
  • धौलावीरा, देशलपुर, सुरकोटदा
  • लोथल, रंगपुर, रोजदी, मालवन, भगतराव
राजस्थानकालीबंगा
उत्तर प्रदेशआलमगीरपुर, बड़ागाँव एवं हुलास
जम्मू-कश्मीरमाण्डा
हरियाणाराखीगढी, बनावली, मीताथल, दौलतपुर, सिसवल
पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान)हड़प्पा, डेरा इस्माइलखान, रहमानढेरी, जलीलपुर
पंजाब (भारत)रोपड़ (रूपनगर), बाड़ा, संघोल

नगर योजना

सिन्धु घाटी सभ्यता की सर्वप्रमुख विशेषता उसकी नगर योजना एवं जल निकास प्रणाली थी। नगर योजना जाल पद्धति
पर आधारित थी। नगरों में पक्की ईटों का प्रयोग किया गया था। नगरों की नालियाँ ईंटों या पत्थरों से ढकी होती थी, जिसके निर्माण में ईंटों के अलावा चूने और जिप्सम का प्रयोग भी किया जाता था। नगरों के अवशेषों से पूर्व और पश्चिम दिशा में दो टीले मिले हैं। प्रायः पश्चिमी भाग छोटा था, लेकिन ऊँचाई पर बना था और पूर्वी हिस्सा बड़ा था, लेकिन निचले इलाके में था। ऊँचाई वाले भाग को नगर-दुर्ग तथा निचले हिस्से को निचला-नगर कहा गया है। दोनों हिस्सों की चारदीवारियाँ पक्की ईटों की बनाई गई थीं।

नगर नियोजन व्यवस्थित था। ये नगर आयताकार या वर्गाकार आकृति में मुख्य सड़कों तथा चौड़ी गलियों के ग्रिड (जाल) पर आधारित थे। सड़कें एक-दूसरे को समकोण बनाते हुए काटती थीं तथा नगर अनेक खण्डों में विभक्त था। सड़कों का निर्माण मिट्टी से किया गया था। सड़को के दोनों ओर नालियों का निर्माण पक्की ईंटों द्वारा किया गया था। नालियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर ‘नर मोखे’ (सोख्ते) बनाए गए थे।

प्रमुख भवन

सिन्धु सभ्यता में बड़े-बड़े भवन मिले हैं, जिनमें स्नानागार, अन्नागार, सभा भवन, पुरोहित आवास आदि प्रमुख हैं। मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह 11.88 मी लम्बा, 7.01 मी चौड़ा और 2.43 मी गहरा है। इसकी सतह पक्की ईंटों की है, जिसे जिप्सम तथा मोर्टार द्वारा जोड़ा गया है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त अन्नागार सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत है, जो 45.71 मी लम्बी तथा 15.23 मी चौड़ी है। यहाँ से एक बहुस्तम्भीय सभागार तथा एक आयताकार इमारत भी प्राप्त हुई है। ये सम्भवतः प्रशासकीय कार्यों के लिए थीं। हड़प्पा के अधिकतर साक्ष्य दुर्ग के उत्तर में मिले है। यहीं से अन्नागार (6-6 की दो पंक्तियों में), मजदूरों के आवास एवं गोल चबूतरे मिले हैं। यहाँ अन्नागार दुर्ग से बाहर अवस्थित है। सिन्धु सभ्यता के लोग जुड़ाई के लिए मिट्टी के गारे तथा जिप्सम के मिश्रण का उपयोग करते थे।

आवासीय भवन

प्रत्येक आवास के बीच में एक आँगन होता था। आँगन के चारों ओर कमरे, रसोईघर एवं स्नानागार बने होते थे। स्नानागार गली की ओर बने होते थे। मकानों के दरवाजे मध्य में न होकर एक किनारे पर होते थे। कच्ची तथा पक्की ईंटों से बनने वाले भवनों में सजावट आदि का अभाव था। ईंटों के निर्माण का निश्चित अनुपात 4:2 : 1 था। प्रत्येक मकान में स्नानागार, कुएँ एवं गन्दे जल की निकासी के लिए मोरियों का प्रबन्ध था। भवनों में एकरू थी। घरों के दरवाजे मुख्य सड़क की ओर न खुलकर पीछे की ओर खुलते थे। केवल लोथल में खिड़कियाँ बाहर की तरफ खुलती थीं। सामान्यत: मकान छोटे होते थे, जिनमें चार-पाँच कमरे होते थे। बड़े तथा दो मंजिले भवन के भी अवशेष मिले हैं।

सिन्धु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता प्रमुख स्थल

हड़प्पा

हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को नगर टीला तथा पश्चिमी टीले को दुर्गटीला के नाम से सम्बोधित किया गया। हड़प्पा का दुर्ग क्षेत्र सुरक्षा प्राचीर से घिरा हुआ था। यहाँ से ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे तथा सर्वाधिक अभिलेख युक्त मुहरें प्राप्त हुई हैं। यहाँ की मुहरों पर सर्वाधिक एक शृंगी पशु अंकित हैं। यहाँ शव उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाए जाते थे। शवाधानों से काँस्य दर्पण, सुरमा लगाने की सलाई तथा सीपी का चम्मच प्राप्त हुआ है।

मोहनजोदड़ो

इसका अर्थ मृतकों का टीला होता है। यहाँ से एक सभागार, कांसे की नर्तकी की मूर्ति, पुरोहित आवास, महाविद्यालय भवन, सीपी की बनी पटरी (Scale), सेलखड़ी से बना पुरोहित का धड़, जालीदार अलंकरण युक्त मिट्टी का बर्तन, गले हुए ताँबे का ढेर, घोड़े का दाँत तथा सेलखड़ी का बना बाट प्राप्त हुआ है। यहाँ से एक सिलबट्टा तथा मिट्टी का तराजू भी मिला है। यहाँ से प्राप्त एक मुद्रा पर एक आकृति है, जिसमें आधा भाग मानव का तथा आधा बाघ का। यहाँ से आंशिक शवाधान तथा पूर्ण समाधिकरण के साक्ष्य मिले हैं। पुरोहित आवास वृहत् स्नानागार के उत्तर-पूर्व में स्थित था। मोहनजोदड़ो के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को स्तूप टीला भी कहा जाता है।

कालीबंगा

इसका अर्थ काले रंग की चूड़ी है। यहाँ ईंटों से निर्मित चबूतरा, लकड़ी के पाइप तथा अनेक घरों में अपने-अपने कुएँ का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। यहाँ का नगर दुर्ग समानान्तर चतुर्भुजाकार था। कालीबंगा का एक फर्श पूरी हड़प्पा सभ्यता का एकमात्र उदाहरण है, जहाँ अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया है। शल्य-चिकित्सा के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ बच्चे की एक खोपड़ी मिली है, जिसमें 6 छेद हैं। इससे जल कपाली या मस्तिष्क शोथ की बीमारी का पता चलता है। यहाँ से प्राप्त एक कंकाल के बाएँ घुटने पर किसी धारदार कुल्हाड़ी से काटने का निशान है।

चन्हूदड़ो

यहाँ प्राक् हड़प्पा संस्कृति, झूकर एवं झांगर संस्कृति के भी अवशेष मिले हैं। चन्हूदड़ो से किलेबन्दी के साक्ष्य नहीं मिले हैं। यहाँ से जला हुआ एक कपाल, चार पहियों वाली गाड़ी, एक मिट्टी की मुद्रा पर तीन घड़ियालों तथा दो मछलियों का अंकन, एक ईंट पर कुत्ते और बिल्ली के पंजों के निशान, मिट्टी के मोर की एक आकृति एवं एक वर्गाकार मुद्रा की छाप पर दो नग्न नारियाँ, जो हाथ में एक-एक ध्वज पकड़े हैं तथा ध्वजों के बीच से पीपल की पत्तियाँ निकली हैं, प्राप्त हुई हैं। यह एकमात्र पुरास्थल है, जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली हैं।

लोथल

यह एक बन्दरगाह नगर था। यहाँ से फारस की मुहर, धान एवं बाजरा, पक्के रंगो से रंगा पात्र घोड़े की लघु मृणमूर्ति तथा तीन युगल समाधियो के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ से ताँबे तथा सोने का काम करने वाले शिल्पियों की उद्योगशालाएँ भी प्रकाश में आई हैं। यहाँ के एक घर से सोने के दाने, सेलखड़ी की चार मुहरें, सीप एवं ताँबे की बनी चूड़ियाँ तथा पूरी तरह से रंगा हुआ एक मिट्टी का जार मिला है। यहाँ से शंख का कार्य करने वाले दस्तकारों के कारखाने भी मिले हैं।

यहाँ से प्राप्त मृद्भाण्ड पर एक चित्र उकेरा गया है जिस पर एक कौआ तथा एक लोमड़ी उत्कीर्ण हैं। नाव के आकार की दो मुहरें तथा लकड़ी का अन्नागार, हाथी दाँत तथा सीप का पैमाना, एक दिशा मापक यन्त्र, ताँबे का पक्षी, ल, खरगोश तथा कुत्ते क आकृतियाँ मिली हैं, जिनमें ताँबे का कुत्ता उल्लेख है। आटा पीसने के दो पाट मिले हैं, जो पूरी कि सभ्यता का एकमात्र उदाहरण है। मेसोपोटामिया तीन बेलनाकार मुहरें यहाँ से प्राप्त हुई हैं।

रोजदी

गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित इस स्थान में क । ईंटों के बने चबूतरे और नालियों सहित बिल्लौर गोमेद पत्थर के बने बाट, गोमेद, बिल्लौर के छेर मनके तथा पक्की मिट्टी के मनके मिले हैं।

बनावली

यहाँ से अच्छे किस्म का जौ, ताँबे का वाणाग्र, पक्की मिट्टी के बने हल की आकृति का खिलौना, ताँबे की कुल्हाड़ी, पत्थर एवं मिट्टी के बने मकान के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ नाली पद्धति का अभाव था तथा नगर योजना शतरंज के जाल के आकार की बनाई गई थी। यहाँ दुर्ग तथा निचला नगर अलग-अलग न होकर एक ही प्राचीर से घिरे थे। एक मकान से धावन पात्र (Wash Basin) के साक्ष्य मिले हैं। एक अन्य मकान से सोने, लाजवर्द, कानेंलियन के मनके, छोटे बटखरे मिले हैं।

रोपड़

यहाँ से ताँबे की कुल्हाड़ी एवं एक कब्रगाह में आदमी के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है। यहाँ संस्कृति के पाँच चरण मिलते हैं। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तन, आभूषण, चर्ट तथा फलक महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ शवों को अण्डाकार गड्ढों में दफनाया जाता था। में कुछ शवाधान से मिट्टी के पकाए गए आभूषण, शंख की चूड़ियाँ, गोमेद पत्थर के मनके, ताँबे की अंगूठियाँ आदि प्राप्त हुई हैं।

सुरकोटदा

यहाँ से घोड़े की अस्थियाँ तथा एक विशेष प्रकार की कब्र प्राप्त हुई है। अन्य नगरों के विपरीत यह नगर दो भागों-गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था। यहाँ के दुर्ग को पीली कुटी हुई मिट्टी से निर्मित चबूतरे पर बनाया गया था। यहाँ एक बड़े आकार की शिला से ढकी हुई कब्र मिली है तथा एक कब्रिस्तान से कलश शवाधान का साक्ष्य भी मिलता है।

धौलावीरा

धौलावीरा का शाब्दिक अर्थ होता है-सफेद कुआँ। इसकी नगर योजना समानान्तर चतुर्भुज के रूप में थी। यह अन्य शहरों की तरह दो नहीं, अपितु तीन भागों में बँटा हुआ था। इसके दो भागों की मजबूत घेराबन्दी की गई थी। यहाँ से दस चिह्नों वाला बड़ा अभिलेख, मिट्टी का कंघा तथा स्टेडियम का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

 बालाकोट

भवन निर्माण के लिए मुख्यत: कच्ची ईंटों का ही प्रयोग किया जाता था। बालाकोट का सबसे समृद्ध उद्योग सीप उद्योग था। यहाँ से बड़ी संख्या में सीप की बनी चूड़ियों के टुकड़े मिले हैं।

कोटदीजी

यहाँ से पत्थर की नींव पर आधारित मकान का साक्ष्य मिला है। यहाँ से पत्ती के आकार का वाणाग्र, काँसे से बनी मोटी चूड़ी का टुकड़ा, चाक पर निर्मित मृद्भाण्ड जिस पर छह दलीय पुष्प, झुमका, हृदय, छत्ता जैसी आकृतियाँ निर्मित हैं, प्राप्त हुए हैं।

अलीमुराद

यह अत्यन्त छोटा स्थल है, जो चारों ओर से एक पाषाण निर्मित दीवार से घिरा है। यह एक ग्रामीण स्थल ज्ञात होता है। यहाँ से कुआँ तथा काँसे की एक कुल्हाड़ी एवं चाँदी के आभूषण प्राप्त हुए हैं।

संघोल

यह स्थल भारतीय पंजाब में स्थित है, जिसकी खुदाई का श्रेय एस एस तलवार तथा आर एस बिष्ट को है। यहाँ से ताँबे की दो छेनियाँ तथा वृत्ताकार अग्निकुण्ड के साक्ष्य मिले हैं।

मीताथल

हरियाणा में स्थित इस स्थल की खुदाई सूरजभान के नेतृत्व में वर्ष 1968 में हुई। यहाँ से प्राक्, उन्नत तथा उत्तर हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ से ताँबे की कुल्हाड़ी एवं चाँदी के आभूषण प्राप्त हुए हैं।

कुन्तासी

गुजरात के राजकोट जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई एमके धाविलकर, एम आर रावल तथा वाई एम चित्तलवास द्वारा करवाई गई। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में लम्बी सुराहियाँ, दो हत्थे कटोरे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी आदि प्रमुख हैं। एक मकान के कमरे से सेलखड़ी के हजारों छोटे मनके तथा ताँबे की कुछ चूड़ियाँ एवं दो अंगूठियाँ मिली हैं।

हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएँ

हड़प्पा सभ्यता की अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं जो इसे समकालीन सभ्यताओं में अद्वितीय स्थान दिलाती हैं। इन विशेषताओं में नगर नियोजन, उन्नत जल निकास प्रणाली. कला एवं शिल्प, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन एवं प्रकृति संरक्षण आदि वर्तमान में भी प्रासंगिक हैं।

आर्थिक स्थिति

सैन्धवकालीन अर्थव्यवस्था सिंचित कृषि अधिशेष, पशुपालन, विभिन्न दस्तकारियों में दक्षता और समृद्ध आन्तरिक एवं विदेशी व्यापार पर आधारित थी।

कृषि

सैन्धव सभ्यता के लोगों का कृषि के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान है। दो फसलों की खेती, हल का प्रयोग, फसलों की विविधता इनकी देन है। सिन्धु सभ्यता के लोग नौ अनाज -गेहूँ, जौ, राई, मटर, तिल, सरसों, चावल, कपास, बाजरा आदि पैदा करते थे।

सिन्धु सभ्यता से कोई फावड़ा या फाल नहीं मिला है। सम्भवतः ये लोग लकड़ी के हलों का प्रयोग करते थे। कालीबंगा से जुते हुए खेत एवं बनावली से मिट्टी का हल जैसा खिलौना प्राप्त हुआ है। इस काल के लोग तरबूज, खरबूजा, नारियल, अनार, नींबू, केला जैसे फलों से परिचित थे।

मोहनजोदड़ो, हड़प्पा एवं लोथल से अन्नागार के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। सामान्यत: नहरों के साक्ष्य एवं उर्वरक के प्रयोग के प्रमाण नहीं मिले हैं, किन्तु जल संग्रह के लिए बाँधों के निर्माण (जलाशय) का साक्ष्य धौलावीरा से प्राप्त हुआ है।

अफगानिस्तान में शोर्तुघई नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं। चावल की खेती का प्रमाण लोथल एवं रंगपुर से प्राप्त हुआ है। सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय सिन्धु सभ्यता के लोगों को दिया जाता है। इसीलिए यूनानी साहित्य में कपास को सिंडोन अर्थात् जिसकी उत्पत्ति सिन्ध में हुई है, नाम दिया था।

पशुपालन

सैन्धव सभ्यता के लोग बहुत सारे पशु पालते थे, जिनमें बैल, गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सुअर आदि प्रमुख थे। , ये लोग बिल्ली, कुत्ता, हाथी एवं गैण्डे से भी परिचित थे। कूबड़ वाला साँड़ सबसे प्रिय पशु था। घोड़े के अस्तित्व का संकेत परवर्तीकाल में मोहनजोदड़ो, लोथल, राणाघुण्डई एवं सुरकोटदा से मिलता है।

लोथल एवं रंगपुर से घोड़े की मृण्मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। ऊँट की अस्थियाँ कालीबंगा से प्राप्त हुई हैं। कुछ पशु-पक्षियों; जैसे-बन्दर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू के अवशेष खिलौनों और मूर्तियों के रूप में मिले हैं। बाघ का अंकन सिर्फ सिन्ध प्रदेश के स्थलों में ही हुआ है, परन्तु सिन्ध से बाहर सिर्फ कालीबंगा की मुहर पर बाघ का चित्र मिलता है।

व्यापार एवं वाणिज्य

सिन्धु सभ्यता में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत अवस्था में था। इसकी पुष्टि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल में अनाज के बड़े-बड़े कोठारों के पाए जाने से ही नहीं होती, बल्कि बड़े भू-भाग में ढेर सारी मिट्टी की मुहरों (सील), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप-तौलों के अस्तित्व से भी होती है। इस सभ्यता के अन्तर्गत आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार दोनों ही विकसित अवस्था में थे। व्यापार सन्तुलन सिन्धु सभ्यता के पक्ष में था। आन्तरिक व्यापार में कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात एवं बलूचिस्तान आदि क्षेत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। हड़प्पाई लोग सिन्धु सभ्यता क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु, शल्क आदि का व्यापार करते थे। व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे, वरन् वस्तु विनिमय प्रणाली व्यापार का आधार थी।

बाह्य व्यापार मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान, फारस के खाड़ी एवं मध्य एशिया आदि क्षेत्रों से था मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुहा (सिन्धु क्षेत्र) दे साथ व्यापारिक सम्बन्ध की चर्चा है। पुरालेखों में द मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों दिलमन (बहरीन द्वीप) और माकन (ओमान) की चर्चा है, जो मेसोपोटामिया और मेलुहा के बीच में है।

प्रमुख आयातित वस्तुएँ एवं उनका प्राप्ति स्थल

आयातित वस्तुएँ स्थल/क्षेत्र
सोनाअफगानिस्तान, फारस, कर्नाटक
चाँदीईरान, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया
ताँबाखेतड़ी (राजस्थान), बलूचिस्तान
टिनईरान, अफगानिस्तान
सेलखड़ीबलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात
हरित मणिदक्षिण भारत
शंख एवं कौड़ियाँसौराष्ट्र (गुजरात), दक्षिण भारत
   नील-रत्नबदख्शाँ (अफगानिस्तान)
शिलाजीतहिमालय क्षेत्र
फिरोजाईरान
लाजवर्दबदख्शाँ, मेसोपोटामिया
गोमेदसौराष्ट्र (गुजरात)
स्टेटाइटईरान
स्फटिकदक्कन का पठार, उड़ीसा, बिहार
स्लेटकाँगड़ा (हिमाचल प्रदेश)
सीसाईरान, राजस्थान, अफगानिस्तान, दक्षिण भारत

यहाँ की बहुत-सी मुहरें मेसोपोटामिया की खुदाई निकली हैं। फारस की खाड़ी में मलका एवं बहरीन तथा मेसोपोटामिया के उर, किश, टेल, अस्मर, टे एवं निप्पुर में सिन्धु सभ्यता की मुहरें पाई गई हैं, जो चौकोर हैं तथा जिन पर एक सींग वाले पशु की आकृति एवं सिन्धु लिपि उत्कीर्ण है।

मेसोपोटामिया की एक बड़ी बेलनाकार मुहर मोहनजोदड़ो से तथा एक छोटी बेलनाकार मुहर लोथल से प्राप्त हुई है। सैन्धव सभ्यता के लोग यातायात के रूप में दो पहियों एवं चार पहियों ही वाली बैलगाड़ी अथवा भैंसागाड़ी का उपयोग करते थे। बैलगाड़ी के पहिए ठोस होते थे। हड़प्पा सभ्यता के मुख्य व्यापारिक नगर अथवा बन्दरगाह थे-लोथल, भगतराव, मुण्डीगाक, बालाकोट, सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह, मालवन, प्रभासपाटन, डाबरकोट।

सामाजिक स्थिति

समाज की इकाई परम्परागत तौर पर परिवार थी। मातृदेवी की पूजा तथा मुहरों पर अंकित चित्र से यह परिलक्षित होता है कि समाज सम्भवतः को मातृप्रधान व मातृसत्तात्मक था। समाज सम्भवतः अनेक वर्गों; जैसे-पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पी, जुलाहे एवं श्रमिक में विभाजित था। योद्धा वर्ग के अस्तित्व का साक्ष्य नहीं मिला है। दस्तकारों में कुम्भकारों को समाज में विशेष स्थान प्राप्त था। –

भोजन, वस्त्र एवं अन्य

भोजन के रूप में इस सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, खजूर तथा साथ ही भेड़, सुअर और मछली का मांस खाते थे। घर के बर्तन के रूप में मिट्टी तथा धातु के बने कलश, थाली, कटोरे, तश्तरी, गिलास एवं चम्मच का प्रयोग करते थे। सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रचलन था। पुरुष वर्ग दाढ़ी एवं मूंछों का शौकीन था।

ताँबे से निर्मित दर्पण, कंघे एवं उस्तरे मिले हैं। आभूषणों का प्रयोग पुरुष एवं महिलाएँ दोनों करते थे। काजल, पाउडर, लिपस्टिक, दर्पण आदि साक्ष्यों से इनकी सौन्दर्यप्रियता की जानकारी मिलती है।

आभूषणों में कण्ठहार, भुजबन्ध, कर्णफूल, छल्ले, चूड़ियाँ, करधनी, पाजेब आदि ऐसे आभूषण मिले हैं, जिन्हें स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे। हांलाकि कवच का प्रयोग सिन्धु सभ्यता के लोग नहीं करते थे। पासे का खेल, नृत्य, संगीत, शिकार, पशुओं की लड़ाई आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।

शवाधान पद्धति

तीन प्रकार के शवाधान-पूर्ण, आंशिक एवं दाह-संस्कार का प्रमाण मिलता है। पूर्ण समाधिकरण में सम्पूर्ण शव को भूमि में दफना दिया जाता था। आंशिक समाधिकरण में पशु-पक्षियों के खाने के बाद अवशेष को भूमि में दफना दिया जाता था। दाह-संस्कार में शव को पूर्ण रूप से जलाकर उसकी भस्म को भूमि में गाड़ा जाता था। पुरुषों और महिलाओं, दोनों के शवाधानों से आभूषण मिले हैं। हड़प्पा के एक कब्रिस्तान से एक पुरुष की खोपड़ी के समीप शंख के तीन छल्लों, जैस्पर के मनके तथा सैकड़ों सूक्ष्म मनकों से बना एक आभूषण मिला है। कुछ स्थानों पर मृतकों को ताँबे के दर्पणों के साथ दफनाया गया था, जो पारलौकिक जीवन में विश्वास को दर्शाता है

हड़प्पा दुर्ग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कब्रिस्तान को एच कब्रिस्तान (H) का नाम दिया गया है। लोथल से प्राप्त एक कब्र में शव का सिर पूर्व एवं पैर पश्चिम की ओर एवं शव का शरीर करवट लिए हुए लिटाया गया है। सुरकोटदा से अण्डाकार शवगृह के अवशेष मिले हैं।

कला एवं शिल्प

प्राचीन संस्कृतियों में कला एवं शिल्प दोनों एक-दूसरे से सम्बद्ध थे। इस काल की कला भी इसका अपवाद नहीं है। इस सभ्यता के अन्तर्गत हमें विभिन्न प्रकार के कलारूप मिलते हैं; जैसे-काँस्य कला, मृण्मूर्तियाँ, मनका निर्माण तथा मुहर निर्माण। मनकों के निर्माण में कार्जीलियन, जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर; ताँबे, काँसे, सोने और चाँदी जैसी धातुएँ तथा शंख, फयॉन्स एवं पक्की मिट्टी का प्रयोग किया जाता था।

ताँबे और काँसे से औजार, हथियार, गहने और बर्तन बनाए जाते थे। सोने और चाँदी से गहने और बर्तन बनाए जाते थे। प्राप्त आकर्षक वस्तुओं में मनके, बाट और फलक हैं। मोहनजोदड़ो से हाथ से बना हुआ सूती कपड़े का एक टुकड़ा मिला है।

आलमगीरपुर से प्राप्त मिट्टी की एक नाँद पर बुने हुए वस्त्र के निशान मिले हैं। इस सभ्यता के लोगों द्वारा नाव बनाने के भी साक्ष्य मिले हैं। भारत में चाँदी सर्वप्रथम सिन्धु सभ्यता में पाई गई है। इस काल की मुहरें भी प्राचीन शिल्पकारिता के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।

मृद्भाण्ड

इस समय कुम्हार के चाक से निर्मित मृद्भाण्ड काफी प्रचलित थे, जिन पर गाढ़ी लाल चिकनी मिट्टी पर काले रंग के सुन्दर चित्र उकेरे गए हैं। ये लोग चाक का उपयोग करने में बड़े कुशल थे। बर्तनों पर विभिन्न रंगों की चित्रकारी, आमतौर पर वृत्त या वृक्ष की आकृति तथा कुछ पर मनुष्य की आकृतियाँ दिखाई देती हैं।

सिन्ध प्रदेश में भारी संख्या में आग में पकी मिट्टी (टेराकोटा) की बनी मूर्तिकाएँ (फिगरिन) मिली हैं। चन्हूदड़ो तथा लोथल में मनके बनाने का कार्य होता था। चन्हूदड़ो में सेलखड़ी की मुहरें तथा चर्ट के बटखरे भी तैयार किए जाते थे। बालाकोट तथा लोथल में सीप उद्योग विकसित अवस्था में था।

मृण्मूर्तियाँ

मिट्टी से निर्मित आकृति को मृण्मूर्ति कहा जाता है। मृण्मूर्तियों का उपयोग या तो खिलौने के रूप में या पूज्य प्रतिमा के रूप में होता था। इस सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों में मानव के अतिरिक्त पशु-पक्षियों में बैल, भैंसाभेड़, बकरा, बाघ, सुअर, गैण्डा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बत्तख एवं कबूतर की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। मानव मृणमूर्तियाँ ठोस हैं, पर पशुओं की को खोखली।

नर एवं नारी की मृण्मूर्तियों में सर्वाधिक नारी की म मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। कुत्ता, हाथी, सुअर, खरगोश, गिलहरी, सर्प, कछुआ, घड़ियाल, गौरैया, मुर्गा, चील और उल्लू की मूर्तियाँ भी मिली हैं। गाय और घोड़े की मृण्मूर्तियों का अभाव है। इन पकी मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण चिकोटी पद्धति से किया जाता था।

धातु मूर्तियाँ

धातु की बनी मूर्तियाँ मोहनजोदड़ो, लोथल, चन्हूदड़ो एवं कालीबंगा से प्राप्त हुई हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की काँस्य मूर्ति के गले में कण्ठहार सुशोभित है। सहज भाव से नृत्यरत् नर्तकी का चूड़ियों से भरा बायाँ हाथ, जाँघ पर एवं दाहिना हाथ, जो चूड़ियों और कगनों से भरा है, कमर पर टिका हुआ है।

प्रस्तर मूर्तियाँ

प्रस्तर मूर्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी अथवा पुरोहित की मूर्ति है। योगी की मूंछे नहीं हैं, किन्तु दाढ़ी विशेष रूप से सँवारी गई है। बाएँ कन्धे को ढकते हुए तिपतिया छाप वाली शाल ओढ़े हुए है। योगी के नेत्र अधखुले हैं, निचले होंठ मोटे तथा उसकी दृष्टि नाक के अग्रभाग पर टिकी हुई है। श्वेत पाषाण निर्मित एक संयुक्त पशु मूर्ति भी प्राप्त हुई है, जिसमें शरीर भेड़ का तथा मस्तक हाथी का है। दैमाबाद से ताँबे का रथ चलाता मनुष्य, साँड, गैण्डा एवं हाथी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

लिपि

इस काल के लोगों ने लेखन कला का आविष्कार किया था। सिन्धु लिपि में 65 मूल चिह्न एवं 375 से 400 तक चित्राक्षर (पिक्टोग्राफ) हैं। लिपि भावचित्रात्मक है तथा प्रत्येक अक्षर किसी ध्वनिभाव या वस्तु का सूचक है। यह लिपि दाईं से बाईं ओर तथा पुन: बाईं से दाईं ओर लिखी जाती है।

इस पद्धति को बोस्ट्रोफेदन कहा गया है। लिपि प सबसे ज्यादा ‘U’ आकार तथा सबसे ज्यादा प्रचलित चिह्न ‘मछली’ का है। अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त हैं। सबसे लम्बे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न हैं। यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है।

माप-तौल 

इस काल के लोग तौल में 16 या उसके आवर्तकों का प्रयोग करते थे; जैसे-16, 64, 160, 320, 60, 12,800 इत्यादि तक। बाटों के निचले मानदण्ड द्विआधारी थे, जबकि ऊपरी मानदण्ड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। सोलह के अनुपात की यह परम्परा आधुनिक काल तक चलती रही है। बट घनाकार, वर्तुलाकार, बेलनाकार, शंक्वाकार एवं ढोलाकार थे।

मोहनजोदड़ो से सीप का तथा लोथल से हाथीदाँत से निर्मित एक-एक पैमाना मिला है। लोग मापना भी जानते थे। ऐसे डण्डे पाए गए हैं, जिन पर माप के निशान लगे हुए हैं, जिनमें एक काँसे का भी है।

मुहर

इस सभ्यता की मुहरें बेलनाकार, वर्गाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार रूप में मिली हैं। अधिकांश मुहरों का निर्माण सेलखड़ी (Steatite) से हुआ है। कुछ मुहरें काचली मिट्टी (Faience), गोमेद, चर्ट और मिट्टी की भी बनी हुई प्राप्त हुई हैं। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एकशृंगी बैल, भैंस, बाघ, गैण्डा, हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गए हैं। इनमें सर्वाधिक आकृतियाँ एकशृंगी बैल की हैं।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर पशुपति शिव की आकृति बनी है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक अन्य मुहर पर पीपल की दो शाखाओं के बीच कोई निर्वस्त्र देवी खड़ी है, जिसके सामने एक भक्त घुटने के बल झुका हुआ है। भक्त के पीछे मानवीय मुख से युक्त एक बकरी खड़ी है और नीचे की ओर सात भक्त-गण नृत्य में मग्न दिखाए गए हैं।

मोहनजोदड़ो, लोथल एवं कालीबंगा से राजमुद्रांक (Sealings) मिले हैं। मुहरों का सर्वाधिक प्रचलित प्रकार चौकोर था। सर्वाधिक संख्या में मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई हैं। मुहरों पर सिंह, ऊँट तथा घोड़े का चित्रण नहीं मिलता है।

धार्मिक स्थिति

इस सभ्यता के लोग मानव, पशु तथा वृक्ष तीनों रूपों में ईश्वर की उपासना करते थे। मातृदेवी की उपासना, पशुपति शिव की उपासना, लिंग, योनि, नाग पूजा, वृक्ष पूजा, पशु पूजा, अग्नि पूजा, जल पूजा, भक्ति एवं परलोक जैसी अवधारणा इस सभ्यता के धार्मिक जीवन के अंग थे।

इनके धार्मिक दृष्टिकोण का आधार इहलौकिक तथा व्यावहारिक अधिक था। लोग भूत-प्रेत, तन्त्र-मन्त्र में विश्वास करते थे। इस सभ्यता से स्वस्तिक एवं चक्र के साक्ष्य भी मिलते हैं, जो सम्भवतः सूर्य पूजा का प्रतीक था।

लोग यज्ञ से परिचित थे तथा पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। इस सभ्यता में कहीं से किसी मन्दिर का अवशेष नहीं मिला है। पशुओं में कूबड़ वाला साँड इस सभ्यता के लोगों के लिए विशेष पूजनीय था।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर पद्मासन लगाए एक तीन मुख वाला पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा हुआ है, जिसके सिर पर तीन सींग हैं। इसके बाईं ओर गैण्डा एवं भैंसा तथा दाईं ओर हाथी एवं बाघ हैं। आसन के नीचे दो हिरण बैठे हुए हैं। इसे पशुपति शिव का आद्य रूप माना गया है।

हड़प्पा से पकी मिट्टी की स्त्री-मूर्तिकाएँ भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्तिका में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है, जो उर्वरता देवी की प्रतीक हो सकती है। कालीबंगा, लोथल एवं बनावली से अग्निवेदिका का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। सिन्धु सभ्यता से बड़ी संख्या में ताबीज मिले हैं, जिससे उनके अन्धविश्वासों का पता चलता है।

सिन्धु सभ्यता का पतन

इस सभ्यता के पतन के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं था, वरन् अलग-अलग स्थलों के लिए अलग-अलग कारक उत्तरदायी थे। सिन्धु सभ्यता आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार के सन्तुलन पर आधारित थी। विभिन्न कारणों से यह सन्तुलन टूट गया एवं सभ्यता का पतन हो गया। पतन के सन्दर्भ में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं।

सिन्धु सभ्यता के पतन का अर्थ सभ्यता की समाप्ति न होकर सभ्यता का रूप परिवर्तन है। बाद के काल में यह सभ्यता एक बार फिर नगरीय चरण से ग्रामीण चरण में पहुँच गई। अत: बाद के काल में गाँवों की संख्या में वृद्धि देखी गई। सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग मत प्रकट किए हैं, जो निम्न हैं-

विद्वान्   मत
गार्डन चाइल्ड एवं ह्वीलरबाह्य एवं आर्यों के आक्रमण
जॉन मार्शल, मैके एवं एस आर रावबाढ़
ओरल स्टाइन, ए एन घोषजलवायु परिवर्तन
 एम आर साहनीभूगर्भिक परिवर्तन
जॉन मार्शलप्रशासनिक शिथिलता
के यू आर कनेडीप्राकृतिक आपदा

सिन्धु सभ्यता की देन

इस सभ्यता ने भारतीय धर्म, कला-कौशल, रहन-सहन एवं लिपि पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। विज्ञान के विकास में भी इस सभ्यता का महत्त्वपूर्ण योगदान था। इस सभ्यता में प्रचलित अनेक धारणाओं एवं विश्वासों की निरन्तरता ऐतिहासिक काल में भी विद्यमान रही।

दशमलव पद्धति पर आधारित माप-तौल प्रणाली, नगर नियोजन तथा नालियों की व्यवस्था, बहुदेववाद का प्रचलन, मातृदेवी की पूजा, शिव पूजा, वृक्ष पूजा, लिंग एवं योनि पूजा, योग का प्रचलन, जल का धार्मिक महत्त्व, स्वास्तिक, चक्र आदि प्रतीक, पशुओं का धार्मिक महत्त्व, ताबीज, तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग, आभूषणों का प्रयोग, बहुफसली कृषि व्यवस्था, अग्निपूजा या यज्ञ, मुहरों का उपयोग, खानपान, वेशभूषा तथा रहन-सहन, इक्कागाड़ी एवं बैलगाड़ी, आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार इत्यादि सिन्धु घाटी सभ्यता की प्रमुख देन हैं। उत्तम नगरीय प्रबन्धन तथा स्वच्छता पर विशेष ध्यान आज की स्मार्ट सिटी अवधारणा को प्रेरित करता है।

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