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सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन

सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन भारत में सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में अनेक बुराइयाँ मौजूद थीं। 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों एवं भारतीयों ने इन्हें दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए, जिसके लिए अनेक समाज सुधारकों ने समाज सुधार हेतु आन्दोलन चलाए। भारत में शुरू हुए सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों के पीछे मुख्य कारण नवचेतना का उद्भव था।

प्रमुख सुधार आन्दोलन

धर्म में सुधार की प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों का विवरण निम्नलिखित है

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 को कलकत्ता में राजा राममोहन राय ने की थी। ब्रह्म समाज स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज में फैली विभिन्न बुराइयों-सती प्रथा, जातिवाद, अस्पृश्यता एवं बहुविवाह आदि का उन्मूलन करना था। इन्हीं के प्रयासों से लॉर्ड विलियम बैण्टिक ने 1829 ई. में एक कानून बनाकर सती प्रथा को प्रतिबन्धित कर दिया। राजा राममोहन राय ने भारतीय पत्रकारिता के लिए भी विशेष प्रयास किए थे, उन्हें पत्रकारिता का अग्रदूत कहा जाता है।

राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार देने एवं बहुपत्नी विवाह तथा बाल विवाह को रोकने हेतु भी विशेष प्रयास किए थे। 1850 ई. में राजा राममोहन राय, मुगल शासक अकबर द्वितीय के दूत बनकर तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में उपस्थित होने के लिए ब्रिटेन गए थे, जहाँ इनको अकबर द्वितीय की पेंशन राशि बढ़ाने का पक्ष ब्रिटिश सम्राट के सम्मुख रखना था। 27 सितम्बर, 1833 को राजा राममोहन राय की ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में मृत्यु हो गई थी।

राजा राममोहन राय की मृत्यु बाद आचार्य रामचन्द्र विद्या वागीश तथा द्वारिकानाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज के कार्यों को आगे बढ़ाया। द्वारिकानाथ टैगोर के पश्चात् उनके पुत्र देवेन्द्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में ब्रह्म समाज की गति-विधियाँ जारी रहीं। उन्होंने तत्वबोधिनी सभा का 1839 ई. में गठन किया था। 1858 ई. में केशवचन्द्र सेन द्वारा ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण करने पर उन्हें आचार्य बनाया गया।

राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 को हुगली (बंगाल) में हुआ था। इनकी शिक्षा पटना एवं बनारस में हुई थी। राजा राममोहन राय को अरबी, फारसी, संस्कृत, लैटिन, यूनानी, अंग्रेज़ी तथा हिब्रू आदि पाश्चात्य भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, इन्होंने जॉन डिग्बी के दीवान के रूप में कम्पनी में कुछ समय तक कार्य किया। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत माना जाता है।

सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को युगदूत कहा था। राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि मुगल शासक अकबर द्वितीय ने दी थी। तुहफत-उल-मुवाहीदीन या गिफ्ट टू मोनोथीस्ट तथा द परसेप्ट्स ऑफ जीसस, राजा राममोहन राय द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकें हैं।

बंगाली पत्रिका ‘संवाद कौमुदी’ का सम्पादन राजा राममोहन राय ने किया था। एकेश्वरवाद मत का प्रचार करने हेतु राजा राममोहन राय ने 1814 ई. में आत्मीय सभा का गठन किया था। 1825 ई. में वेदान्त कॉलेज की स्थापना भी राजा राममोहन राय ने की थी। 1817 ई. में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना राजा राममोहन राय एवं डेविड हेयर ने की थी। इन्होंने 1822 ई. में फारसी भाषा में मिरात-उल-अखबार तथा अंग्रेज़ी में ब्रह्मनिकल मैगजीन का प्रकाशन किया। 1823 ई. में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना से पूर्व कलकत्ता यूनिटेरियन सोसाइटी की स्थापना की थी। सुभाष चन्द्र | बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि दी थी।

केशवचन्द्र सेन के प्रयास

केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज के विचारों को अपनी वाक्पटुता एवं उदारवादी दृष्टिकोण से फैलाया, परन्तु अन्तर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के मुद्दे पर देवेन्द्रनाथ टैगोर के साथ उनका मतभेद हो गया।

देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज के न्यासी के रूप में केशवचन्द्र सेन से आचार्य की पदवी वापस ले ली। फलत: केशवचन्द्र सेन 1866 ई. में ब्रह्म समाज से पृथक् हो गए। देवेन्द्रनाथ के अनुयायियों का ब्रह्म समाज आदि ब्रह्म समाज कहलाया, जिसने देवेन्द्रनाथ के विचारों को आगे बढ़ाया, जबकि केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व वाले ब्रह्म समाज को भारतीय ब्रह्म समाज कहा गया। केशवचन्द्र सेन ने सामाजिक सुधारों में गति लाने के लिए इण्डियन रिफॉर्म एसोसिएशन की स्थापना की तथा सरकार से अनुरोध करके ब्रह्म विवाह अधिनियम को रूप देने के लिए राजी किया।

केशवचन्द्र सेन ने संगत सभा की स्थापना की। 1878 ई आचार्य केशवचन्द्र सेन ने अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजा से कर दिया, जो कि ब्रह्म विवाह अधिनियम, 1872 का उल्लंघन था। अत: भारतीय ब्रह्म समाज में उनके प्रति असन्तोष पनपने लगा। फलस्वरूप केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने भारतीय ब्रह्म समाज से पृथक् होकर साधारण ब्रह्म समाज का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा, मूर्तिपूजा का उन्मूलन तथा नारी मुक्ति को बढ़ावा देना था। साधारण ब्रह्म समाज की रूपरेखा आनन्द मोहन बोस ने तैयार की थी तथा उन्हें ही इसका प्रथम अध्यक्ष बनाया गया। शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल, द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी साधारण ब्रह्म समाज के प्रमुख समर्थक थे।

आचार्य केशव के प्रयासों से ही मद्रास में वेद समाज महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। 1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने इण्डियन मिरर नामक पत्र का प्रकाशन किया था, जो अंग्रेज़ी का भारत में प्रकाशित होने वाला प्रथम दैनिक अखबार था। केशवचन्द्र सेन ने टेबरनेकल ऑफ न्यू डिस्पेंसन (1868) तथा इण्डियन रिफॉर्म एसोसिएशन (1870) की स्थापना भी की थी। ‘ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है’-का नारा आदि ब्रह्म समाज ने दिया था।

प्रार्थना समाज

प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में आत्माराम पाण्डुरंग ने बम्बई में केशवचन्द्र सेन की सहायता से की थी। महादेव गोविन्द रानाडे तथा पण्डिता रमाबाई ने प्रार्थना समाज को प्रसिद्धि दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रार्थना समाज के प्रमुख उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, अछूतों का उद्धार, बाल विवाह का प्रतिरोध तथा विधवा विवाह, स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देना आदि थे।

महादेव गोविन्द रानाडे को पश्चिम भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। 1871 ई. में रानाडे ने सार्वजनिक समाज की स्थापना की। इन्हें अपनी प्रचण्ड मेधाशक्ति के कारण महाराष्ट्र का सुकरात भी कहा जाता था।

महादेव गोविन्द रानाडे ने 1884 ई. में दक्कन एजुकेशनल सोसायटी तथा 1891 ई. में महाराष्ट्र में विडो रिगैरेज एसोसिएशन की स्थापना की थी। महिलाओं के कल्याण के लिए आर्य महिला समाज की स्थापना पण्डिता रमाबाई ने की थी। आर्य समाज के एक अन्य अनुयायी प्रो. डी के कर्वे ने पूना में विडो होम तथा वर्ष 1906 में बम्बई में इण्डियन वूमेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी। प्रार्थना समाज ने दलित जाति मण्डल, समाज सेवा लीग आदि कल्याणकारी संगठनों की स्थापना की। आर जी भण्डारकर, जी जी अगरकर, गोपाल हरिदेशमुख, मालाबारी शिन्दे आदि प्रार्थना समाज से जुड़े थे। गोपाल हरिदेशमुख को लोकहितवादी के नाम से जाना जाता है। इन्होंने ‘प्रभाकर’ नामक पत्र में कई सुधारवादी लेख लिखे। इनको शतपत्रे कहा जाता है।

वेद समाज

वेद समाज की स्थापना 1864 ई. में एक तरुण युवक के. श्रीधरलू नायडू ने केशवचन्द्र सेन के सम्पर्क में आने के बाद की थी। 1871 ई. में यह ‘दक्षिण के ब्रह्म समाज’ के रूप में अस्तित्व में आया।

आर्य समाज

आर्य समाज की स्थापना 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में की थी। 1877 ई. में इसका मुख्यालय लाहौर को बनाया गया था। आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः स्थापित करना, भारत को सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक रूप में एक सूत्र में बाँधना तथा भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव को रोकना था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जाति रहित एवं वर्ग रहित समाज, विदेशी दासता से मुक्ति एवं आर्य धर्म की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने गौसेवा के लिए गौरक्षिणी सभा की स्थापना की थी तथा गौकरुणानिधि नामक पुस्तक की रचना भी की थी।

आर्य समाज का प्रसार पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा महाराष्ट्र में अधिक हुआ था। आर्य समाज के अन्य महत्त्वपूर्ण समर्थक-पण्डित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द तथा हंसराज आदि थे।

दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म छोड़कर अन्य धर्म अपनाने वालों के लिए शुद्धि आन्दोलन चलाया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने आर्य धर्म प्रचार-प्रसार का कार्य सर्वप्रथम आगरा से शुरू किया था तथा यहीं इन्होंने पाखण्ड-खण्डिनी पताका फहराई थी। 1893 ई. में शिक्षा के माध्यम को लेकर आर्य समाज का विभाजन हो गया। पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक लाला हंसराज ने 1886 ई. में दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज (लाहौर) तथा स्वाम’ श्रद्धानन्द ने लेखराम एवं मुंशीराम की सहायता से वर्ष 1902 में गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार की स्थापना की थी। ये पाश्चात्य शिक्षा के विरोधी थे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 ई. में गुजरात । के मौरवी नामक स्थान पर हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। दण्डी स्वामी पूर्णानन्द से इन्होंने 24 वर्ष की अवस्था में संन्यास की दीक्षा ली थी। इन्होंने ‘पुन: वेदों की ओर लौटो’ का नारा दिया तथा वेदों को ‘भारत का आधार स्तम्भ’ कहा। सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक की रचना दयानन्द सरस्वती ने की थी। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें-पाखण्ड खण्डन, वेद भाष्य भूमिका, ऋग्वेद भाष्य, अद्वैतमत का खण्डन, पंचमहायज्ञ विधि, वल्लभाचार्य मत का खण्डन आदि हैं। 1861 ई. में मथुरा के स्वामी बिरजानन्द से इन्होंने वेदों की गहन शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने ही सर्वप्रथम स्वराज, स्वदेशी शब्द का प्रयोग किया था तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था। इनकी मृत्यु अजमेर में 30 अक्टूबर, 1883 को हुई थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा किए गए परिवर्तनों एवं सुधारों के कारण ही उन्हें भारत का मार्टिन लूथर किंग कहा जाता है। वेलेण्टाइन चिरोल ने आर्य समाज को भारतीय अशान्ति का जन्मदाता कहा है।

रामकृष्ण मिशन

रामकृष्ण परमहंस (1837-1886 ई.) दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के पुजारी थे। जिनका प्रारम्भिक नाम गदाधर भट्टाचार्य था। शंकर वेदान्त से सम्बद्ध तोतापुरी ने उन्हें दीक्षित कर रामकृष्ण का नाम दिया। इनका मानना था कि सभी धर्मों का सार एक है और मानव की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, क्योंकि मानव ईश्वर का ही मूर्तिमान रूप है। इनके विचारों का प्रचार इनके शिष्य विवेकानन्द ने किया।

स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना बेल्लूर (कलकत्ता) में की थी। मिशन के दो मठ बारानगर (कलकत्ता) एवं मायावती (अल्मोड़ा) में स्थापित किए गए थे। इसकी स्थापना रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए की गई थी। रामकृष्ण मिशन ईसाई मिशनरी जैसी संस्थाओं पर आधारित था। इसका मुख्य कार्य सेवा था। इसके सिद्धान्त का आधार वेदान्त दर्शन था।

विवेकानन्द ने रामकृष्ण के सम्मान में 1887 ई. में ही बेल्लूर मठ की स्थापना की थी। स्वामी विवेकानन्द का मुख्य ध्येय दरिद्र नारायण की सेवा करना तथा हिन्दू धर्म की वास्तविकता से लोगों का परिचय कराना था। उन्होंने 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेकर हिन्दू धर्म की महत्ता प्रतिपादित की थी। स्वामी विवेकानन्द ने सेवा को ही ईश्वर की सेवा बताया था।

स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके समाज सुधार एवं समाज सेवा पर अधिक बल दिया। उन्होंने युवाओं को संस्कृति एवं सभ्यता पर विश्वास करने का पश्चिमी संस्कृति का अन्धानुकरण न करने तथा हिन्दू आह्वान किया था। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि वर्तमान में भी रामकृष्ण मिशन देश-विदेश आध्यात्मिक एवं सामाजिक कार्यों में संलग्न है।

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द का मूल नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। महाराज खेतड़ी के सुझाव पर नरेन्द्रनाथ दत्त ने अपना नाम स्वामी विवेकानन्द रखा था। 1896 ई. में इन्होंने न्यूयॉर्क में वेदान्त सोसायटी का गठन किया था। वर्ष 1900 में पेरिस में आयोजित द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन में भी स्वामी विवेकानन्द ने भाग लिया था। माघेट नोबल (सिस्टर निवेदिता) उनकी शिष्या थीं। स्वामी जी को 19वीं शताब्दी के नव हिन्दू जागरण का संस्थापक भी कहा जाता है। सुभाषचन्द्र बोस ने स्वामी विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता कहा था। स्वामी विवेकानन्द ने प्रबुद्ध भारत (अंग्रेज़ी) एवं उद्बोधन (बंगाली) नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया था। राजयोग, कर्मयोग एवं वेदान्त फिलॉसफी उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।

थियोसोफिकल सोसायटी

बनाया थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 ई. में न्यूयॉर्क (अमेरिका) में मैडम हेलना ब्लावत्सकी तथा कर्नल हेनरी ऑल्काट ने की थी। भारत में इसका में मुख्यालय 1882 ई. में अड्यार (मद्रास) गया था। थियोसोफिकल सोसायटी को भारत में प्रचारित एवं प्रसारित करने में आयरिश महिला ऐनी बेसेण्ट (1847-1933) का विशेष योगदान था।

थियोसोफिकल सोसायटी के प्रमुख उद्देश्य निम्न थे

  • धार्मिक भाईचारे को बढ़ावा देना।
  • धर्म को आधार बनाकर समाज सेवा करना।
  • प्राचीन धर्म की महत्ता को प्रतिपादित करना।
  • पुनर्जन्म एवं कर्म की भावना को मानकर, ईश्वर की एकता में विश्वास करना।
  • ईश्वर को आत्मिक हर्षोन्माद एवं अन्तर्ज्ञान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

ऐनी बेसेण्ट ने भारत में होमरूल लीग की स्थापना वर्ष 1916 में की थी। उन्होंने हिन्दू धर्म के प्रचारप्रसार के लिए मद्रास में हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया। थियोसोफिकल सोसायटी एवं होमरूल लीग आन्दोलन ने भारत में सामाजिक सुधार, शिक्षा के विकास तथा राष्ट्रीय चेतना जगाने में विशेष भूमिका निभाई थी।

ऐनी बेसेण्ट

ऐनी बेसेण्ट ने 1898 ई. में बनारस में सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की थी, जिसे वर्ष 1916 में मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया था। ऐनी बेसेण्ट ने 1893 ई. के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में भी भाग लिया था। इनकी विचारधारा को दैव विज्ञान के नाम से भी जाना जाता था। ऐनी बेसेण्ट कांग्रेस के 33वें अधिवेशन (कलकत्ता, 1917) में प्रथम महिला अध्यक्षा बनी थीं।

यंग बंगाल आन्दोलन

यंग बंगाल आन्दोलन का प्रवर्तक हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-31 ई.) था। इस आन्दोलन की शुरुआत 1826-31 ई. के मध्य बंगाल से हुई थी। इस आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे

  • सामाजिक चेतना का प्रसार करना।
  • प्रेस की स्वतन्त्रता।
  • उच्च सरकारी नौकरियों में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाना।
  • नारी-शिक्षा एवं नारी-अधिकारों को प्रोत्साहन देना।

एंग्लो इण्डियन हेनरी विवियन डेरोजियो फ्रांस की क्रान्ति से बहुत प्रभावित थे, इन्होंने कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज में 1826-31 ई. तक पढ़ाया था। इन्होंने अपने छात्रों को विवेकपूर्ण ढंग से सोचने, स्वतन्त्रता, समानता एवं सत्य का आलम्बन करने की सलाह दी म डरोजियो की कम उम्र में हैजे के कारण मृत्यु हो गई थी। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने डेरोजियो को बंगाल में आधुनिक सभ्यता का अग्रदूत एवं अपनी जाति के पिता के रूप में मान्यता दी थी। इनके प्रमुख अनुयायी रामगोपाल घोष, कृष्ण मोहन बनर्जी तथा महेश चन्द्र घोष थे। हेनरी विवियन डेरोजियो के अनुयायियों को डेरोजिया के नाम से जाना जाता था।

यंग बंगाल आन्दोलन ने बंगाल में नारी-शिक्षा एवं नारियों के अधिकारों के प्रति चेतना फैलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। एकेडमिक एसोसिएशन एवं सोसायटी फॉर द एक्जीवीशन ऑफ जनरल नॉलेज की स्थापना हेनरी विवियन डेरोजियो ने ही की थी। एंग्लो इण्डियन हिन्दू एसोसिएशन, बंगहित सभा एवं डिबेटिंग क्लब का गठन भी हेनरी विवियन डेरोजियो ने किया था। ईस्ट इण्डिया पत्र का सम्पादन हेनरी विवियन डेरोजियो ने किया था। डेरोजियो को आधुनिक भारत का प्रथम राष्ट्रवादी कवि माना जाता है।

मुस्लिम सुधार आन्दोलन

19वीं शताब्दी में इस्लाम धर्म की कुरीतियों को दूर करने के लिए कई सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए।

अलीगढ़ आन्दोलन

अलीगढ़ आन्दोलन का प्रवर्तन सर सैयद अहमद खाँ ने किया था। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में पाश्चात्य शिक्षा एवं वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना था। सर सैयद अहमद खाँ चाहते थे कि मुस्लिम वर्ग पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करके ही प्रशासन में अपना स्थान बना सकता है। उन्होंने इस्लाम में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी आवाज उठाई।

सर सैयद अहमद खाँ शुरुआत में हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे, परन्तु अंग्रेज़ों की संरक्षणवादी नीति का अनुसरण करने के बाद वे केवल मुस्लिम वर्ग के लिए कार्य करने लगे। उन्होंने कांग्रेस की स्थापना का विरोध किया था।

अलीगढ़ आन्दोलन को भारतीय राष्ट्रीय का मुकाबले अच्छी स्थिति में स्थापित करने के लिए रुपये का व्यक्तिगत दान भी दिया था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड नॉर्थबुक ने 10 हजार रुपए का व्यक्तिगत दान भी दिया था यद्यपि यह आन्दोलन मुस्लिम वर्ग की भलाई के लिए शुरू हुआ था, परन्तु शीघ्र ही यह राजनीतिक एवं प्रशासनिक उद्देश्य के लिए काम करने लगा। इस आन्दोलन से जुड़े अन्य प्रमुख व्यक्तिचिराग अली, नजीर अहमद, आदि थे।

सर सैयद अहमद खाँ

सर सैयद अहमद खाँ का जन्म 1817 ई. में दिल्ली में हुआ था। 1857 ई. के विद्रोह के समय सर सैयद अहमद खाँ कम्पनी की न्यायिक सेवा में कार्य करते हुए राजभक्त बने रहे। सैयद अहमद खाँ ने पीरीमुरीदी तथा दास प्रथा को इस्लाम के विरुद्ध बताया था।

तहजीब-उल-अखलाक पत्रिका का प्रकाशन सर सैयद अहमद खाँ ने किया था। सर सैयद अहमद खाँ ने समकालीन वैज्ञानिक प्रकाश के परिप्रेक्ष्य में कुरान पर टीका लिखी थी। 1864 ई. में कलकत्ता में साइण्टिफिक सोसायटी तथा 1875 ई. में अलीगढ़ में मुस्लिम एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना सर सैयद अहमद खाँ ने की थी। बनारस के राजा शिवप्रसाद के साथ सर सैयद अहमद खाँ ने देशभक्त एसोसिएशन की स्थापना की थी।

अहमदिया आन्दोलन

अहमदिया आन्दोलन की शुरुआत 1889 ई. में पंजाब के कादियान नामक स्थान पर मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी। गुलाम अहमद ने हिन्दू देवता कृष्ण तथा ईसा मसीह के अवतार होने का दावा इस्लाम का मसीहा माना। इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य इस्लाम को मूल रूप में स्थापित करना तथा मुस्लिम वर्ग में आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने विचारों को बराहीन-ए-अहमदिया नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया था।

अहमदिया आन्दोलन का हिन्दू एवं ईसाई धर्मों की मान्यताओं को मानने के कारण वैचारिक विरोध हुआ था। उन्होंने इस्लामी तलाक और बहुपत्नी विवाह के कानून का पोषण किया। यह एक उदारवादी आन्दोलन था, जिसने जेहाद का विरोध किया था।

देवबन्द आन्दोलन

1866 ई. में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबन्द स्थान पर कुरान एवं हदीस की शिक्षाओं का प्रसार करने तथा विदेशियों के खिलाफ जेहाद का नारा देने के लिए एक इस्लामी मदरसे की स्थापना की गई थी।

इस मदरसे की स्थापना में मोहम्मद कासिम ननौतवी एवं रशीद अहमद गंगोही का विशेष योगदान रहा था। देवबन्द आन्दोलन की शुरुआत इसी मदरसे से हुई थी। इस आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे।

  • मुस्लिम सम्प्रदाय का नैतिक एवं धार्मिक पुनरुद्धार
  • अंग्रेजी शिक्षा एवं पाश्चात्य संस्कृति पर प्रतिबन्ध।
  • मुस्लिम धर्म का प्रचार-प्रसार करने व्यक्तियों को तैयार करना।

देवबन्द शाखा ने 1885 ई. में बनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया, किन्तु 1888 ई. में देवबन्द के उलेमा ने सैयद अहमद खाँ की बनाई संयुक्त भारतीय देशभक्त सभा तथा मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल एसोसिएशन के विरुद्ध जारी किया। महमूद-उल-हसन (1851-1920 ई.) ने देवबन्द शाखा के धार्मिक विचारों को राजनीतिक तथा बौद्धिक रंग देने का भी प्रयत्न किया। देवबन्द आन्दोलन से जुड़े प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक शिबली नूमानी थे। इन्होंने वर्ष 1984 में लखनऊ में नदवतल उलेमा तथा दारुल उलूम की स्थापना की थी। आगे चलकर इस आन्दोलन से मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता का उदय हुआ।

पारसी सुधार आन्दोलन

पारसियों की सामाजिक अवस्था का पुनरुद्धार और पारसी धर्म की पुनः प्राचीन शुद्धता को प्राप्त करने के लिए 1851 ई. में नौरोजी फरदोन जी, दादाभाई नौरोजी एवं एस एस बंगाली ने रहनुमाई मजदायसन सभा गठित की। नौरोजी फरदोन जी पहले अध्यक्ष तथा एस बंगाली पहले सचिव थे। इस सभा ने अपने सन्देश को पारसियों तक पहुँचाने लिए एक पत्रिका राफ्त गोफ्तार (सत्यवादी) चलाई सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य किए साथ ही बी एम गई। के आर कामा ने पारसियों में शिक्षा के प्रसार के मालाबारी ने भी अपनी जाति के लिए सराहनीय प्रयास किए। पारसी सुधार आन्दोलन को संचालित करने हेतु वर्ष 1910 में एक जोरोस्टियन सम्मेलन हुआ।

सिखों में सुधार आन्दोलन

सिखों के धर्म सुधार आन्दोलन के अग्रदूत दयालदास थे। उन्होंने सिखों में प्रचलित हिन्दू रीति-रिवाजों के विरुद्ध उपदेश दिए और मूर्तिपूजा का विरोध किया। उनके अनुयायी निरंकारी कहलाए। उनके पुत्र दरबारा सिंह ने निरंकारी आन्दोलन को पंजाब और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त में बहुत प्रचारित किया।

1815 ई. में रामसिंह के नेतृत्व में सिख सुधार का नामधारी आन्दोलन शुरू हुआ, जो धर्म और नैतिकता में सादगी के पक्षधर थे। वे भक्ति संगीत पर जोर देते तथा सफेद कपड़े पहनते थे, किन्तु बाद में अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ लिए गए और रंगून भेज दिए गए। पाश्चात्य शिक्षा के लाभों को सिख समाज तक पहुँचाने के लिए 1892 ई. में अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना की गई, जो आगे चलकर गुरुनानक विश्वविद्यालय बना। वर्ष 1920 में गुरद्वारो के महन्तों के खिलाफ अकाली आंदोलन चला। वर्ष 1922 मे गुरुद्वारा प्रबन्धन एक्ट पारित किया गया।  वर्ष 1995 में इसे संशोधित कर सिरोमणि गुल्हारा प्रबंधक कमेटी की स्थापना हुई।

दलित जातियों के आन्दोलन

19वी सदी में भारतीय समाज में पाश्चात्य शिक्षा के फलस्वरूप चेतना का संचार हुआ, जिससे भारतीय समाज में प्रचलित अवैज्ञानिक एवं अन्धविश्वासों से परिपूर्ण रीति-रिवाजों, प्रधाओं आदि के प्रति विरोध की भावना भी फैलने लगी। निनजातीय आन्दोलनों की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत में हुई। पश्चिमी भारत में ज्योतिराव गोविन्दराव फुले (1827-90 ई.) ने निमजातियों के कल्याण के लिए सत्यशोधक समाज को स्थापना की। इन्होंने 1872 ई. में गुलामगिरी नामक पुस्तक लिखी। इनको अन्य पुस्तक सार्वजनिक सत्य धर्म है। उन्होंने निम्न जातियों के लोगों, स्त्रियों आदि के कल्याण के लिए कार्य करते हुए 1876 ई. में पूना नगरपालिका की सदस्यता ग्रहण की। 1888 ई. के बाद लोग उन्हें महात्मा कहने लगे।

वायकोम सत्याग्रह में के.पी. केशव मेनन ने मार्च, 1924 में तथा ई.बी. रामास्वामी नायकर (पेरियार) ने मी हिस्सा लिया था तथा त्रावणकोर की महारानी से मन्दिर में प्रवेश के बारे में आन्दोलनकारियों से भी समझौते हुए।

केरल में दलितों को मन्दिर में प्रवेश कराने के लिए नारायण गुरु (1854-1928 ई.) तथा ‘श्री नारायण धर्म परिपालन योगम्’ संगठन ने एझवा आन्दोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप दलितों को मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार मिला। नारायण गुरु ने मानव के लिए एक धर्म, एक जाति तथा एक ईश्वर का नारा दिया।

दक्षिण भारत में दलितों के उत्थान के लिए वर्ष 1917 में पी त्यागराज तथा डॉ. टी एम नैयर ने ब्राह्मणों के विरोधस्वरूप दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ की स्थापना की। इसमें रामास्वामी नायकर (1879-1973 ई.) ने जस्टिस पार्टी का गठन करके हिन्दू धर्म का तीव्र विरोध किया। उन्होंने हिन्दी भाषा एवं मूर्तिपूजा का विशेष विरोध किया।

उनके अनुयायी उन्हें तन्ते (पिता) एवं पेरियार (महान् आत्मा) के नाम से पुकारते थे। नायकर के बाद इस आन्दोलन को स. एन. अन्नादुरै (1909-69 ई.) ने आगे बढ़ाया। अन्ना ने इस दल का नाम बदलकर द्रविड़ संघ रखा तथा दलितों के उत्थान के लिए काम किया। औपनिवेशिक काल में दलितों के उत्थान के लिए सर्वाधिक प्रशंसनीय कार्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने किए। उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा, पूना समझौता आदि के द्वारा दलितों का उत्थान किया।

अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाकर जाति-प्रथा को चुनौती पेश करते हुए हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों को मानने से इनकार किया था। 19वीं और 20वीं शताब्दी के मध्य निम्न जातियों के उत्थान के लिए विशेष प्रयास किए गए।

गाँधीजी ने अछूतों के उत्थान हेतु कई कार्य किए। सर्वप्रथम उन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया तथा उनके कल्याण के लिए वर्ष 1932 में गाँधीजी ने अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण संघ की स्थापना की, जिसे वर्ष 1939 में हरिजन सेवक संघ नाम दिया गया। वर्ष 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पारित मूल अधिकारों के घोषणा-पत्र में जात-पाँत की जगह समानता की बात पहली बार की गई।

प्रमुख सामाजिक सुधार

ओपनिवेशिक काल में किए गए प्रमुख समाजिक सुधार निम्नलिखित है 

सती प्रथा पुर्तगाली वायसराय अल्बुकर्क ने सर्वप्रथम 1610 ई. में गोवा में इस प्रथा को बन्द करवाया था। राजा राममोहन राय के प्रयासों से लॉर्ड विलियम बैण्टिक ने 4 दिसम्बर, 1829 को 17वें नियम के तहत बंगाल में सती प्रथा पर रोक लगा दी। साथ ही, 1830 ई. में मुम्बई एवं मद्रास सहित अन्य क्षेत्रों में भी सती प्रथा पर रोक लगा दी गई।

बाल विवाह बाल विवाह के विरुद्ध सर्वप्रथम आवाज राजा राममोहन राय ने उठाई थी, परन्तु केशवचन्द्र सेन व बी एम मालाबारी के प्रयासों से सर्वप्रथम 1872 ई. में देसी बाल विवाह अधिनियम पारित हुआ था। इस अधिनियम में 14 वर्ष आयु की बालिकाओं तथा 18 वर्ष से कम आयु के बालकों के विवाह को प्रतिबन्धित किया गया।

एस एस बंगाली के प्रयासों के फलस्वरूप 1891 में ब्रिटिश सरकार ने एज ऑफ कन्सेण्ट एकर पारित किया, जिसमें 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई। वर्ष 1930 में बाल विवाह को रोकने के लिए शारदा अधिनियम पारित किया गया, जिसमें विवाह की आयु बालिकाओं के लिए 14 वर्ष तथा बालको के लिए वर्ष निर्धारित की गई।

विधवा पुनर्विवाह विधवा पुनर्विवाह के क्षेत्र में डलहौजी को सर्वाधिक योगदान कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के आचार्य ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने दिया। उन्होंने एक हजार हस्ताक्षरों से युक्त-पत्र, भेजकर विधवा विवाह को कानूनी रूप देने का अनुरोध किया था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासो के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार (लॉर्ड कैनिंग के समय) ने 1856 ई. में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम-15 पारित किया, जिसमें विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी गई। डी के कर्वे एवं वीरेसलिंगम पुन्तलु ने भी विधवा पुनर्विवाह के लिए कार्य किया।

रखमाबाई मुकदमा भारतीय इतिहास में 1884 का रखमाबाई का मुकदमा, सहमति की आयु तथा दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन पर आधारित है। बाल-हत्या प्रथा बाल-हत्या की प्रथा राजपूतों एवं बंगाल में अधिक प्रचलित थी। इनमें बालिका । शिशुओं को बेरहमी से मार दिया जाता था। 1795 ई. में बंगाल नियम-21 और 1804 ई. में नियम-3 के तहत इस कुप्रथा को रोकने के प्रयास किए गए।

दास प्रथा 1789 ई. में दासों के निर्यात को बन्द कर दिया गया। 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटिश सरकार ने दासता पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया था तथा प्रतिबन्ध को 1843 ई. में सम्पूर्ण भारत पर लागू किया गया। 1860 ई. में दासता को भारतीय दण्ड संहिता के द्वारा अपराध घोषित कर दिया गया।

प्रमुख सामाजिक-धार्मिक सुधार संगठन

संस्था संस्थापक संस्था संस्थापक
वेद समाज(मद्रास)श्री धरालू नायडूसोशल सर्विस लीग (बम्बई)एम. जोशी
पूना सेवा सदन (पूना)श्रीमती रमाबाई रानाडेविधवा विवाह संघ (महाराष्ट्र)विष्णु शास्त्री पण्डित
देव समाज (लाहौर)शिवनारायण अग्निहोत्रीमानव धर्म सभा (गुजरात)मेहताजी दुर्गादास मंचाराम
तरुण स्त्री सभा (कलकत्ता)जे.ई.डी. बेटनराजमुन्द्री सामाजिक सुधार संगठनंवीरेसलिंगम
सेवा समिति (इलाहाबाद)एच. एन. कुंजरुभारत धर्म महामण्डलपण्डित दीनदयाल शर्मा
राधास्वामी सत्संग (आगरा)शिवदयाल खत्री (तुलसी राम)नदवतल उलेमा (लखनऊ)मौलाना शिबली नुमानी, सैयद नजीर हुसैन
धर्म सभा (कलकता)राधाकान्त देवअखिल भारतीय दलित वर्ग संघबी.आर. अम्बेडकर
दक्कन एजुकेशन सोसायटी (पूना)जी. जी. अगरकरअखिल भारतीय हरिजन संघमहात्मा गाँधी
सर्वन्ट ऑफ इण्डिया सोसायटी (बम्बई)गोपालकृष्ण गोखलेपरमहंस मण्डली (महाराष्ट्र)दादोवा पाण्डुरंग

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