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वर्ष 1947 से 1964 तक का भारत

वर्ष 1947 से 1964 तक का भारत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के समक्ष अनेक चुनौतियाँ थीं। सबसे बड़ी चुनौती थी, देश की एकता व अखण्डता को सुनिश्चित रखते हुए एक राष्ट्र के रूप में भारत का पुनर्निर्माण। इसके पश्चात् के वर्षों में अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं, जिनकी भारत की वर्तमान दशा तथा दिशा को निश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् समस्याएँ/चुनौतियाँ

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत की प्रमुख राजनीतिक समस्याएँ निम्नलिखित थीं

  • शरणार्थियों का पुनर्वास
  • राज्यों का पुनर्गठन
  • भाषायी समस्या
  • केन्द्रीयकरण बनाम क्षेत्रीयतावाद की समस्या
  • देशी राज्यों का भारतीय संघ में विलय
  • स्वतन्त्र विदेश नीति के संचालन की समस्या

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत की प्रमुख आर्थिक समस्याएँ निम्नलिखित थीं

  • कृषि का तकनीकी दृष्टि से पिछड़ापन
  • कृषि में सामन्ती सम्बन्धों की समस्या
  • बेरोजगारी की समस्या
  • उद्योगों का अल्प विकास
  • ग्रामीण गरीबी और ऋणग्रस्तता की समस्या
  • आधारभूत संरचनाओं का अल्प विकास

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत की प्रमुख सामाजिक समस्याएँ निम्नलिखित थीं

  • सम्प्रदायवाद की समस्या
  • जातिवाद की समस्या
  • निरक्षरता की समस्या
  • जन्मदर और मृत्युदर का अधिक होना
  • स्त्रियों की हीन दशा

स्वतन्त्रता के पश्चात् सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था- -राजनैतिक रूप से देश को एकता के सूत्र में बाँधना तथा इसके लिए एक ऐसे संविधान का निर्माण, जो कि भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति के अनुरूप हो तथा एक सफल लोकतन्त्रात्मक गणराज्य के रूप में भारत की स्थिति सुदृढ़ करने में सक्षम हो।

इसके अतिरिक्त देश की सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक प्रगति के कार्यक्रमों का निर्माण तथा उनका क्रियान्वयन अन्य प्रमुख चुनौतियाँ थीं। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित घटनाओं का उल्लेख प्रासंगिक है।

संविधान का निर्माण

भारत के संविधान का विकास गहन रूप से भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन से जुड़ा है। राष्ट्रीय आन्दोलन ने भारत को एक लोकतान्त्रिक संसदीय 1, नागरिक अधिकार सम्पन्न तथा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से न्यायपूर्ण राजनैतिक इकाई के रूप में स्थापित करने के विचार का विकास किया। वर्ष 1928 की नेहरू रिपोर्ट के माध्यम से भारतीयों ने पहली बार संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत की।

वर्ष 1940 में लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा प्रस्तुत अगस्त प्रस्ताव में प्रथम बार ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया कि भारत के लिए नए संविधान का निर्माण कार्य पूरी तरह से नहीं, लेकिन प्रमुख रूप से भारतीयों द्वारा ही होना चाहिए। वर्ष 1942 के क्रिप्स मिशन में प्रथम बार संविधान सभा की स्थापना के तरीकों का उल्लेख किया गया था। अन्ततः वर्ष 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत भारतीय संविधान निर्मात्री सभा का गठन हुआ, जिसके सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाना तय हुआ तथा प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या पर एक सदस्य चुने जाने की व्यवस्था की गई।

जुलाई-अगस्त, 1946 में संविधान सभा के लिए निर्वाचन हुए, जिसमें देशी रियासतों ने भाग नहीं लिया फलत: ब्रिटिश प्रान्तों के अन्तर्गत आने वाले 296 स्थानों के लिए चुनाव हुआ, जिनमें से 208 स्थानों पर कांग्रेस ने तथा 78 मुस्लिम सीटों में से 73 सीटों पर मुस्लिम लीग ने विजय प्राप्त की। मुस्लिम लीग के इस सभा में सम्मिलित न होने के कारण जून, 1947 में संविधान सभा का पुनर्गठन हुआ, जिसमें सदस्यों की संख्या 324 निश्चित की गई।

इस संविधान सभा ने संविधान निर्मात्री सभा एवं अन्तरिम संसद की दोहरी भूमिका निर्वाह की। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। सच्चिदानन्द सिन्हा को इसका अस्थायी अध्यक्ष चुना गया।

इसके पश्चात् डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। अन्तरिम संसद के रूप में संविधान सभा के कार्यनिर्वहन के दौरान स्पीकर की भूमिका गणेश वासुदेव मावलंकर ने निर्वाह की। 26 नवम्बर, भारतीय संविधान बनकर तैयार हुआ, जिसे संविधान सभा के सदस्यों ने पारित किया। 24 जनवरी, 1950 को इस सभा की अन्तिम बैठक हुई और उसी दिन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति चुने गए। 26 जनवरी, 1950 को इस संविधान को लागू कर दिया गया।

रियासतों का एकीकरण

भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 के अनुसार रियासतों के सन्दर्भ में ब्रिटिश सर्वोपरिता का अन्त कर दिया गया और उन्हें इस अधिनियम द्वारा निर्मित दो अधिराज्यों भारत एवं पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होने की या अपने भावी सम्बन्धों का निर्धारण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई। रियासतों के मामले में 15 जून, 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने घोषणा की, कि वह भारत की किसी भी रियासत को स्वतन्त्रता की घोषणा करने तथा भारत के अवशिष्ट भाग से पृथक् होकर रहने के अधिकार को स्वीकार नहीं कर सकती।

रियासतों के मामले को सुलझाने के लिए भारत सरकार ने 6 जुलाई, 1947 को भारतीय रियासत विभाग नामक एक पृथक् विभाग की स्थापना की, जिसका कार्यभार तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल को सौंपा गया। भारत सरकार का रियासतों से सम्बन्ध दो प्रक्रियाओं के द्वारा नियमित किया गया। ये दोनों प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं

पहली प्रक्रिया

रियासतों का केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रशासित किसी भी इकाई या पड़ोस के प्रान्तों में मिल जाना। इसके तहत पूर्वी भाग की रियासते उड़ीसा और मध्य प्रदेश के प्रान्तों में मिल गई तथा दक्कन की रियासतें एवं गुजरात की रियामते बम्बई प्रान्त में मिल गई।

दूसरी प्रक्रिया

इस प्रक्रिया में कुछ रियासतों को मिलाकर वृहत्तर प्रशासनिक संघ बन गया। इसके तहत काठियावाड़ (सौराष्ट्र) का संयुक्त राज्य, मत्स्य का संयुक्त राज्य, राजस्थान का संयुक्त राज्य, विंध्य प्रदेश का संयुक्त राज्य, ग्वालियर, इन्दौर और मालवा का संयुक्त राज्य तथा पटियाला एवं ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन (पेप्सू) संयुक्त राज्य बने। इसके अलावा मयूरभंज का विलय उड़ीसा में, कोल्हापुर बम्बई में, रामपुर, बनारस, उत्तर प्रदेश में तथा बड़ौदा की रियासत का विलय बम्बई प्रान्त में हो गया। जबकि भोपाल, कूच बिहार, त्रिपुरा तथा मणिपुर केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत चले गए। सरदार पटेल को सरकार की ओर से रियासतों से बातचीत करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 15 अगस्त, 1947 तक अधिकांश भारतीय रियासतों ने भारत में शामिल होना स्वीकार कर लिया था। केवल जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर ही ऐसे राज्य थे, जिन्होंने भारत संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया।

जूनागढ़

जूनागढ़ की जनसंख्या लगभग सात लाख थी। यह राज्य चारों तरफ से भारत से घिरा था, यहाँ का नवाब महाबठकन रसूल खान था, किन्तु राज्य की 80% जनसंख्या हिन्दू थी। सितम्बर, 1947 में जूनागढ़ रियासत ने पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर दी, जबकि राज्य की अधिकांश जनसंख्या भारत में रहना चाहती थी। राज्य के नागरिकों ने इस निर्णय के विरुद्ध विद्रोह कर स्वतन्त्र अस्थायी हुकूमत की स्थापना कर ली। इससे घबराकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। तत्पश्चात् जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज भुट्टो ने 8 नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ के भारत में विलय का पत्र भारत सरकार को भेजा फलत: 9 नवम्बर, 1947 को भारत सरकार ने जूनागढ़ का प्रशासन हस्तगत कर लिया। बाद में 20 जनवरी, 1948 को जनमत संग्रह करवाकर अधिकृत रूप से जूनागढ़ का विलय भारत संघ में हो गया, क्योंकि जनमत संग्रह में निर्णय लगभग पूरी तरह भारत के पक्ष में गया था।

हैदराबाद

हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी। यह चारों तरफ से भारतीय भू-भाग से घिरी हुई थी। यहाँ का शासक निजाम, मुसलमान था, जबकि बहुसंख्यक जनसंख्या हिन्दू थी। हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान ने पाकिस्तान की सरपरस्ती में स्वयं को स्वतन्त्र बनाए रखने की मंशा जताई। 29 नवम्बर, 1947 को भारत सरकार एवं हैदराबाद के मध्य 1 वर्ष की अवधि के लिए यथा स्थिति समझौता सम्पन्न हुआ, जिससे कि 15 अगस्त, 1947 से पूर्व की स्थिति कायम रहे, किन्तु निजाम ने समझौते का पालन नहीं किया। निजाम का झुकाव पाकिस्तान की ओर था, इसलिए वह जानबूझकर भारत के साथ विलय को टाल रहा था तथा अपनी सैनिक क्षमता बढ़ाकर संघर्ष की तैयारी कर रहा था। इसी बीच एक कट्टर मुस्लिम संगठन इतिहाद उल मुसलमीन ने अपने रजकार सैनिकों की सहायता से तथा नवाब की मदद से हैदराबाद की जनता का दमन करना प्रारम्भ किया।

हैदराबाद क्षेत्र के किसानों को संगठित किया। निदोष लोगों की रक्षा हेतु भारत सरकार ने इसके कृत्य के विरुद्ध कांग्रेस ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा। दूसरी तरफ साम्यवादियों ने भी राज्य में ऑपरेशन पोलो के तहत सैन्य कार्यवाही की। सितम्बर, 1948 में भारतीय सैनिक मेजर जनरल जे. एन. चौधरी के नेतृत्व में हैदराबाद में प्रवेश कर गए। हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय कर लिया गया।

निजाम को राजप्रमुख का दर्जा दिया गया तथा 50 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन दी गई। 26 जनवरी, 1950 को स्वतन्त्र भारत के संविधान के तहत हैदराबाद को भाग ‘ख’ के अन्तर्गत राज्य की स्थिति प्रदान की। वर्ष 1956 में इसका विभाजन कर मराठी भाग (मराठवाड़ा) मुम्बई में, कन्नड़ भाग मैसूर में तथा तेलुगू भाग (तेलंगाना) आन्ध्र प्रदेश में मिला दिया गया तथा राजप्रमुख पद समाप्त कर दिया गया।

कश्मीर

कश्मीर की समस्या शेष दो रियासतो से भिन्न थी। यहाँ की बहुसंख्यक जनता मुस्लिम थी, जबकि यहाँ एक हिन्द राजा का शासन था। अगस्त, 1947 में कश्मीर के शासक ने अपने विलय के विषय मे कोई तात्कालिका निर्णय नहीं लिया।

वह अपनी स्वतन स्थिति बनाए रखना चाहता था, जबकि पाकिस्तान इसे अपने राज्य में मिलाना चाहता था। अक्टूबर, 1947 मे उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के कबायलियों एवं अनेक पाकिस्तानियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और राजधानी श्रीनगर के समीप तक आ गए।

इस स्थिति में राज्य की रक्षा के लिए 24 अक्टूबर, 1947 को महाराज हरिसिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद की मांग को तथा कश्मीर का विलय भारत संघ में करने की प्रार्थना भी की। 26 अक्टूबर, 1947 को इस प्रस्ताव को स्वीकार कर भारत सरकार ने भारतीय सेना को कश्मीर भेजा तथा युद्ध की समाप्ति पर जनमत संग्रह की शर्त के साथ कश्मीर को भारत का अंग मान लिया गया।

इस प्रकार 31 अक्टूबर, 1947 को अस्थायी संकटकालीन शासन का निर्माण किया गया और शेख अब्दुल्ला को इसका प्रधान नियुक्त किया गया। जनवरी, 1948 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तानी कबायलियों के कश्मीर पर आक्रमण कर देने की सूचना दी। दूसरी ओर पाकिस्तान ने इस विलय को अवैध बताया।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने वर्ष 1948 में इस समस्या के समाधान हेतु अन्तर्राष्ट्रीय आयोग की नियुक्ति की। जनवरी, 1949 को भारत व पाकिस्तान युद्ध विराम के लिए इस शर्त पर राजी हो गए कि कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र संघ के निरीक्षण में जनमत संग्रह होगा। वर्ष 1951 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा की बैठक प्रारम्भ हुई तथा वर्ष 1954 में राज्य की संविधान सभा ने जम्मू-कश्मीर के भारत संघ में विलय की पुष्टि कर दी।

भाषायी समस्या

स्वतन्त्रता के पश्चात् देश की राष्ट्रीय राजभाषा की समस्या एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरी। बी. जी. खेर की अध्यक्षता में एक सरकारी भाषा समिति का गठन हुआ। दक्षिण के राज्य हिन्दी भाषा का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1948 में संविधान सभा में न्यायाधीश एस के धर के अधीन एक भाषायी प्रान्त आयोग गठित किया गया।

इस कमीशन ने राष्ट्रीय एकता एवं प्रशासनिक सुविधा दोनों दृष्टियों से भाषायी आधार पर प्रान्तों के गठन के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। दिसम्बर, 1948 में फिर एक आयोग का गठन हुआ, जिसमें नेहरू, पटेल और पट्टाभि सीतारमैया शामिल थे। इसे जेवीपी आयोग भी कहा जाता है। इस कमीशन ने भी भाषायी आधार पर प्रान्तों के गठन के प्रस्ताव निर्णय के विरुद्ध एक व्यापक आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। आन्ध्र प्रदेश में पोट्टी श्री रामलू ने आपरण मशन शुरू कर दिया। अनशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गई, जिसके कारण आन्ध्र प्रदेश में हिंसक आन्दोलन प्रारम्भ हो गया।

वर्ष 1953 में आन्ध्र प्रदेश को राज्य का दर्जा मिल गया। वर्ष 1953 में राज्य पुनर्गठन फजल अली की अध्यक्षता में किया गया। के एम पणिक्कर तथा एच. एन. कुंजरू इसके अन्य सदस्य थे। इस आयोग ने अन्ततः भाषायी आधार पर प्रान्तों के गठन की सिफारिश की, परन्तु इस आयोग ने बम्बई और ने पजाब को पृथक् प्रान्त बनाने का प्रस्ताव रद्द कर दिया।

नवम्बर 1956 में भारतीय संसद ने राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार भारतीय 14 राज्य और 6 केन्द्रशासित राज्यों का प्रावधान लाया गया। बम्बई के द्वारा निरन्तर विरोध को देखते अन्त में सरकार ने वर्ष 1960 में बम्बई का विभाजन गुजरात एवं महाराष्ट्र के रूप में दो राज्यों में कर दिया।

आर्थिक प्रगति की रूपरेखा

स्वतन्त्रता के पूर्व भी आर्थिक आयोजन के प्रयास किए गए थे। वर्ष 1938 में नेहरू की प्रेरणा से राष्ट्रीय योजना समिति का गठन हुआ। वर्ष 1944 में 8 उद्योगपतियों ने मिलकर आर्थिक विकास के लिए योजना रखी, जिस बम्बई प्लान के नाम से जाना जाता है। आठ उद्योगपति थे-पुरुषोत्तमदास, ठाकुरदास, जे. आर. डी. टाटा, जी. डी. बिड़ला, आदेंसिर दलाल, श्रीराम, कस्तूर भाई लाल भाई, डी शरीफ एवं जान मथाई।

श्रीमन नारायण ने गाँधीवादी योजना तथा एम. एन राय ने पीपुल्स प्लान प्रस्तुत किया। के सी नियोगी समिति की संस्तुति पर 15 मार्च, 1950 को एक संविधानेतर संस्था के रूप में योजना आयोग का गठन किया गया। योजना आयोग का प्रमुख उद्देश्य देश की वास्तविक पूँजी एवं संसाधनों का अनुमान लगाकर देश के विकास के लिए इनका सन्तुलित प्रयोग करना था।

योजना आयोग द्वारा बनाई गई कार्य योजनाओं का मूल्यांकन करने के लिए 6 अगस्त, 1952 को एक गैर-संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय विकास परिषद् का गठन किया गया। योजना आयोग एवं राष्ट्रीय विकास परिषद् ने भारत की अर्थव्यवस्था को प्रगति के पथ पर लाने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को मूर्त रूप दिया।

भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 को आरम्भ की गई थी। इस योजना में कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई थी। कृषि को वरीयता देने के पीछे प्रमुख कारण कृषि की दयनीय स्थिति में सुधार लाकर खाद्यान्न की बढ़ती माँग की आपूर्ति करना था। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल में ही भाखड़ा नांगल, दामोदर घाटी तथा हीराकुड जैसी बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं को शुरू किया गया।

इंजनों के निर्माण के लिए चितरंजन कारखाना तथा जलपोतों के निर्माण के लिए स्टीम नेवीगेशन कम्पनी इस काल में सिन्दरी उर्वरक कारखाना, हिन्दुस्तान मशीन टूल्स, उत्तर प्रदेश सीमेण्ट निगम के साथ-साथ रेल स्थापित की गई। अमेरिका की एस्सो तेल कम्पनी की मदद से वर्ष 1959 में ट्राम्बेबे (बम्बई) में एक तेलशोधक कारखाना स्थापित किया गया।

भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना में आधारभूत उद्योगों के विकास को प्राथमिकता दी गई थी। इसका मुख्य कारण आधारभूत एवं भारी उद्योगों पर विशेष बल के साथ देश का तीव्र औद्योगीकरण करना था। द्वितीय पंचवर्षीय योजना का काल वर्ष 1956 से लेकर वर्ष 1961 तक का था। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में उद्योगों के विकास के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा मिली। इस योजनाकाल में भारत का सामाजिक-आर्थिक ढाँचा अपने विकास के आरम्भिक चरण में था।

भारत की तृतीय पंचवर्षीय योजना वर्ष 1961 से लेकर वर्ष 1966 के बीच चलाई गई थी। इस योजना का प्रमुख लक्ष्य कृषि एवं उद्योगों का तीव्र विकास करके भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना था। मगर यह योजना चीन एवं पाकिस्तान के आक्रमण तथा विदेशी विनिमय संकट एवं प्रतिकूल व्यापार शेष के कारण अपने लक्ष्यों को प्राप्त न कर सकी। इसी योजनावधि में भारतीय रुपये का प्रथम बार अवमूल्यन हुआ था।

तृतीय पंचवर्षीय योजना में भारतीय विकास दर में काफी गिरावट आई, क्योंकि चीन एवं पाकिस्तान हुए युद्धों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी क्षति पहुँचाई। तृतीय पंचवर्षीय योजना की विफलता से सरकार ने सबक लेते हुए, भारत का चहुंमुखी विकास करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को नए प्रारूप में शुरू किया, जिससे वर्तमान में देश की अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है।

बैंकिंग क्षेत्र में सुधार 

योजनावधि में भारत सरकार ने कृषि एवं उद्योगों के विकास के साथ-साथ बैंकिंग क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया। 1 अप्रैल, 1935 को स्थापित किए गए रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का 1 जनवरी, 1949 को राष्ट्रीयकरण किया गया तथा उसे भारत के केन्द्रीय बैंक का दर्जा दिया गया।

इसी क्रम में 1 जुलाई, 1955 को गोरेवाला समिति की अनुशंसाओं पर इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण करके, उसे स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया नाम दिया गया। वर्तमान में स्टेट बैंक ऑफ इणिजशहा है। नई औद्योगिक नीति 80 अप्रैल, 1950 को घोषित की गई, जिसमें सरकार ने समाजवादी इण्डिया भारत का सबसे बड़ा व्यावसायिक बैंक है तथा यह भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में विशेष भूमिका समाज की स्थापना को अपना मूल उद्देश्य निर्धारित किया। इस औद्योगिक नीति को भारत का आर्थिक संविधान भी कहा जाता है।

सामाजिक प्रगति की रूपरेखा

स्वतन्त्रता के बाद भारत में भूमि सुधार, शिक्षा, स्वशासन, सुरक्षा आदि के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। औपनिवेशिककालीन भूमि व्यवस्था को बदलकर नवीन भू-राजस्व व्यवस्था को लागू किया गया। महालवाड़ी, रैयतवाड़ी तथा स्थायी बन्दोबस्त प्रणालियों को समाप्त करके भूमि सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। नवीन कृषि नीति के तहत मध्यस्थों का उन्मूलन किया गया तथा काश्तकारी सुधार को लागू करके कृषि का पुनर्गठन किया गया। भारत में जमींदारी प्रथा को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया।

जमींदारी उन्मूलन

काश्तकारों के सुधारों के लिए लगान का नियमन एवं भूमि पर मालिकाना हक दिलाया गया। जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1950 सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश में पारित किया गया, तदुपरान्त यह धीरे-धीरे सभी राज्यों में पारित हो गया। काश्तकारों की सुरक्षा के लिए नियमों का निर्माण किया गया।

कृषि का पुनर्गठन करते हुए जोतों की सीमाबन्दी एवं चकबन्दी की गई तथा जमींदारों या प्रतिव्यक्ति अधिकतम जमीन रखने की उच्चतम सीमा कुल राज्यों में निश्चित की गई। 60 के दशक में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने के बाद भारत में 70 के दशक में हरित क्रान्ति लाने के लिए विशेष प्रयास किए गए। परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बन गया।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम

महात्मा गाँधी के विचारों के अनुरूप ग्रामीण क्षेत्रों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए 2 अक्टूबर, 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया। इसके पश्चात् वर्ष 1953 में राष्ट्रीय विकास योजना को आरम्भ किया गया। ये दोनों ही कार्यक्रम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहे। इसके पश्चात् वर्ष 1957 में बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में ग्रामोद्धार समिति का गठन किया गया। मेहता समिति ने त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली को स्थापित करने की सिफारिश की।

इसके तहत तीन स्तर

1. ग्राम पंचायत                                                          2. तहसील पंचायत तथा                     3. जिला पंचायत के गठन की सिफारिश की।

1 अप्रैल, 1959 में सरकार ने मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की तथा 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर से पंचायती राज का विधिवत् उद्घाटन पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने किया।

विधायी सुधार कार्य

वर्ष 1951 में खान अधिनियम पारित किया गया, जिसके द्वारा स्त्रियों का खान में काम करना वर्जित कर दिया गया तथा गृह सेवा कानून ने स्त्रियों के लिए कार्य करने के 8 घण्टे सुनिश्चित किए। इसके साथ ही वेतन सहित तीन माह मातृत्व अवकाश लेने की सुविधा भी दी गई।

वर्ष 1955 में हिन्दू विवाह कानून बनाया गया, जिसके द्वारा बहु-विवाह को गैर-कानूनी ठहराया गया और एक पुरुष को एक ही विवाह करने का अधिकार दिया गया। पुन:विवाह एक पत्नी के रहते हुए नहीं किया जा सकता। इसी वर्ष हिन्दू उत्तराधिकार कानून भी पारित किया गया, जिससे धन पर समान अधिकार घोषित किया गया। पुत्री को पिता की सम्पत्ति म माझ्या के समान हक प्रदान किया गया। वर्ष 1956 में ही अस्पृश्यता विरोधी कानून भी पारित किया गया, जिसके तहत अस्पृश्यता को गैर-कानूनी संज्ञेय अपराध बना दिया गया। वर्ष 1961 में दहेज विरोधी अधिनियम पारित किया गया। वर्ष 1960 में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी एन भगवती के द्वारा लोक अदालत की स्थापना सर्वप्रथम गुजरात में की गई।

प्रेस एवं शिक्षा की प्रगति

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में प्रेस एवं शिक्षा के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। एक ओर ब्रिटिश कालीन प्रतिबन्धों को समाप्त किया गया, तो दूसरी ओर यहाँ की जनता एवं समाज के अनुकूल कदम उठाए गए।

 प्रेस के क्षेत्र में प्रगति

समाचार-पत्र जाँच समिति (वर्ष 1947)

संविधान सभा में स्पष्ट किए गए मौलिक अधिकारों के प्रकाश में समाचार-पत्रों के कानूनों की समीक्षा करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1947 में श्री गंगानाथ झा की अध्यक्षता में समाचार-पत्र जाँच समिति, 1947 का गठन किया था। इस समिति ने वर्ष 1931-1934 के समाचार-पत्र अधिनियम एवं भारतीय दण्ड-संहिता की धारा 124-A एवं 153-A को संशोधित करने की सिफारिशें की थीं।

– समाचार-पत्र (आपत्तिजनक विषय) 1951 अधिनियम,

भारत सरकार ने वर्ष 1951 में समाचार-पत्र (आपत्तिजनक विषय) प्रकाशित करने पर जमानत माँगने तथा जब्त करने का प्रावधान किया। आपत्तिजनक सामग्री को जब्त करने के साथ-साथ पीड़ित प्रकाशकों एवं मुद्रणालय स्वामियों को जूरी द्वारा न्याय माँगने का अधिकार दिया गया।

इस अधिनियम का भारतीय कार्यकर्ता पत्रकार संघ एवं अखिल भारतीय समाचार-पत्र सम्पादक सम्मेलन द्वारा विरोध किया गया। भारत सरकार ने समाचार-पत्र आयोग की अनुशंसा पर वर्ष 1951 के समाचार-पत्र अधिनियम को वर्ष 1956 में निरस्त करके वर्ष 1956 का समाचार-पत्रों का पन्ने तथा मूल्य अधिनियम एवं 1960 का संसद कार्यवाही (संरक्षण तथा प्रकाशन) अधिनियम पारित किए, जिनसे भारतीय प्रेस के विकास को एक नई दिशा मिली।

समाचार-पत्र आयोग

वर्ष 1951 के समाचार-पत्र अधिनियम के विरोध के परिणामस्वरूप भारत सरकार ने भारतीय समाचार-पत्रों के कार्य की समीक्षा करने के लिए न्यायाधीश जी एस राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में समाचार-पत्र आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने वर्ष 1954 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए अनुशंसा की, कि अखिल भारतीय समाचार-पत्र परिषद् का गठन करके पन्ना मूल्य पद्धति अपनाई जाए तथा वर्ग पहेलियों को बन्द किया जाए एवं विज्ञापनों की कड़ी संहिता बनाई जाए, साथ ही समाचार-पत्रों के संकेन्द्रण को रोका जाए।

शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति

राधाकृष्णन आयोग (वर्ष 1948-49)

स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रीय सरकार ने शिक्षा का विकास करने के लिए वर्ष 1948 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्ण की अध्य्क्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग ने वर्ष 1949 में अपनी निम्नलिखित अनुशंसाएं दी थी

  • विस्वविधालय से पहले 1 वर्ष का अध्ययन अनिवार्य हो।
  • विश्वविद्यालय में कम-से-कम 11-11 सप्ताहों के तीन सत्र में 180 दिन की पढ़ाई होनी चाहिए
  • सामान्य शिक्षा, संस्कारी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, उच्च शिक्षा के तोच मुख्य उद्देश्य निर्धारित किए गए।
  • विश्वविद्यालय की स्नातक उपाधि, प्रशासनिक सेवाओं के लिए आवश्यक हो।
  • शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए।
  • सभी विश्वविद्यालयों के स्तर एक समान किए जाएँ।
  • अध्याएको के वेतनो मे वृद्धि होनी चाहिए।
  • देश में विश्वविद्यालय शिक्षा की देख-रेख करने के लिए एक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की जाए।
  • कृषि, वाणिज्य, विद्या, अभियान्त्रिकी तथा तकनीकी, विधि और आयुर्विज्ञान पर अधिक बल देना चाहिए।

पारमाण

समाचार के बाद राष्ट्रीय सरकार ने शिक्षा का विकास करने सर्वपल्ली राधाकृष्णन की IN योग ना किया। इस आयोग ने वर्ष अव  • वैज्ञानिक प्रगति

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग

वर्ष 1949 में डॉ. राधाकृष्णन आयोग की अनुशंसाओं के बाद भारत सरकार ने वर्ष 1953 में विश्वविद्यालय आयोग गठित किया। इसका गठन एक स्वायत्ततापूर्ण संस्थान के रूप में किया गया। इसके लिए अनुदान सरकार से प्राप्त होता है तथा इसे शिक्षा स्तरों को निश्चित एवं समन्वित करने का अधिकार दिया गया है।

कोठारी शिक्षा आयोग (वर्ष 1964)

भारत सरकार ने शिक्षा के सभी पक्षों एवं प्रक्रमों की समीक्षा करने के लिए वर्ष 1964 में डॉ. डी एस कोठारी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग को यूनेस्को सचिवालय ने श्री जे एफ मैकडूगल की सेवाएँ उपलब्ध कराई थीं।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित तथ्यों को प्रकाशित किया था।

  • सामाजिक उत्तरदायित्व तथा नैतिक शिक्षा की भावना को उत्पन्न करने वाली शिक्षा प्रणाली अपनाई जाए।
  • समाज सेवा, कार्य अनुभव आदि को शिक्षा के सभी स्तरों पर लागू किया जाए।
  • माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक बनाया जाए।
  • विश्वविद्यालयों में अन्तर्राष्ट्रीय मानकों को स्थापित किया जाए।
  • कृषि, अनुसन्धान तथा वैज्ञानिक शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी जाए।
  • विद्यालयों के लिए श्रेणी तथा प्रशिक्षण पर ध्यान दिया जाए।

वैज्ञानिक प्रगति

द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु ऊर्जा की विभीषिका से सबक लेते हुए, भारत ने ऊर्जा का शान्तिपूर्ण कार्यों में उपयोग को प्राथमिकता दी। वर्ष 1918 में भारत सरकार ने परमाणु की आयोग स्थापित किया तथा डॉ. होमी जहाँगीर भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना  की।

इसी क्रम में वर्ष 1964 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना की गई। भारतीय होमी जहाँगीर भाभा ने वर्ष 1961 में तीन चरणों वाला दीर्घकालीन नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम बनाया था। इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य यूरेनियम एवं थोरियम के प्राकृतिक संसाधनों का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए उपयोग करना था।

भारत ने नाभिकीय ऊर्जा के अनुसन्धान हेतु देश का पहला परमाणु अनुसन्धान रिएक्टर अप्सरा 4 अगस्त 1956 को बम्बई में स्थापित किया था। भारत में 1960 के दशक में इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडीयन एण्ड एप्लाइड साइंसेज की स्थापना की गई। वर्ष 1980 में कनाडा के सहयोग से अनुसन्धान रिएक्टर साइरस का निर्माण किया गया। वर्ष 1962 में नांगल (पंजाब) प्रथम गुरु जल संयन्त्र की स्थापना की गई।

भारत ने शुरुआत से ही नाभिकीय नीति का प्रमुख उद्देश्य शान्तिपूर्ण कार्यों विशेषकर ऊर्जा प्राप्ति की अपना लक्ष्य घोषित किया है तथा विद्युत ऊर्जा की माँग की पूर्ति के लिए विभिन्न परमाणु प्रतिष्ठानों की स्थापना की है। वर्ष 1963 में तिरुवनन्तपुरम के समीप थुम्बा से प्रथम साउण्डिग रॉकेट का प्रक्षेपण किया गया। वर्ष 1969 में भारतीय राष्ट्रीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान समिति का पुनर्गठन करके भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) की स्थापना की गई।

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की रूपरेखा

पंचशील समझौता

भारत एवं चीन के बीच नई दिल्ली में 29 अप्रैल, 1954 को पंचशील समझौता हुआ था। पंचशील समझौते से आशय आचरण के पाँच सिद्धान्तों से था। इस समझौते के अन्तर्गत दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को लेकर निम्नलिखित सिद्धान्त निर्धारित किए गए थे

  • एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना।
  • परस्पर अनाक्रमण की भावना।
  • एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  • समानता एवं पारस्परिक लाभ।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना का विकास।

वर्ष 1954 में तिब्बत मुद्दे को लेकर भारत एवं चीन के बीच पंचशील समझौते के परिणामस्वरूप निर्धारित मापदण्डों ने भारत की विदेश नीति को एक सकारात्मक दिशा प्रदान की। यद्यपि नेहरू की विदेश नीति को वर्ष 1962 के चीन आक्रमण के समय गहरा धक्का लगा था, लेकिन अधिकांश समय नेहरू द्वारा दिए गए पंचशील सिद्धान्त, भारतीय विदेश नीति के प्रमुख वाहक रहे हैं।

नेहरू की विदेश नीति ने अधिकांश समय में भारत की प्रतिष्ठा को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में स्थापित किया। वर्तमान में भारत के सम्बन्ध पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक प्रगति की ओर अग्रसर हैं। यद्यपि कुछ देशो चीन, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के साथ स्थलीय सीमा सम्बन्धी विवाद हैं। वर्तमान समय में निर्मित हो रहे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच भारत को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने में भारतीय विदेश नीति एक सीमा तक सफल रही है।

गुट-निरपेक्षता

भारतीय स्वतन्त्रता के समय, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दो ध्रुवीय गुटों का बोलबाला था। प्रथम साम्यवादी गुट जिसका नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था, जबकि पूँजीवाद समर्थक दूसरे पश्चिमी गुट का समर्थन अमेरिका कर रहा था। दोनों गुट विश्व स्तर पर अपना-अपना प्रभुत्व फैलाने के लिए प्रयासरत थे। भारत स्वतन्त्रता के बाद किसी भी गुट में शामिल न होकर गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। इस नीति का पालन करने से भारत दोनों गुटों के प्रति तटस्थ रहकर अपना सामाजिक-आर्थिक विकास कर सका।

30 सितम्बर 1961 को यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में प्रथम शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पण्डित जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल नासिर तथा यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने मिलकर गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की शुरुआत की तथा गुट-निरपेक्ष नौति के प्रमुख प्रावधान निर्धारित किए। अधिक-से-अधिक देशों को इसमें शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

गुट-निरपेक्ष देशों का द्वितीय एवं तृतीय शिखर सम्मेलन क्रमश: काहिरा एवं लुसाका (जाम्बिया) में आयोजित किए गए थे। गुट-निरपेक्ष देशों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शान्ति एवं सौहार्द स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन देशों ने द्विध्रुवीय राजनीति की विषमता के बीच अपने विकास के लिए महत्त्वपूर्ण प्रयास किए हैं।

एशियाई नीति

पड़ोसी देशों एवं एशियाई देशों के साथ मित्रवत् सम्बन्ध बनाने तथा आपसी सद्भाव में वृद्धि हेतु भारत ने अनेक प्रयास किए। जोकि निम्नलिखित हैं

प्रथम एशियाई सम्मेलन

मार्च, 1947 में वैश्विक मामलों की भारतीय परिषद् के तत्वावधान में नई दिल्ली में आयोजित किया गया, जिसका उद्देश्य एशियाई राष्ट्रों के मध्य मैत्री व सहयोग को प्रोत्साहित करना तथा एशियाई जनता की प्रगति व हितों में वृद्धि करना था।

द्वितीय एशियाई सम्मेलन

जनवरी, 1949 में इण्डोनेशिया की समस्या पर विचार करने के लिए नई दिल्ली में 19 देशों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें इण्डोनेशिया पर अधिग्रहण की निन्दा की गई तथा डच पुलिस एवं सैनिकों को इण्डोनेशिया से अविलम्ब चले जाने को कहा गया तथा जनवरी, 1950 तक इण्डोनेशिया को स्वतन्त्र किए जाने की माँग की गई।

मई, 1950 में एशियाई राष्ट्रों के मध्य सांस्कृतिक एवं आर्थिक सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से फिलीपीन्स के बोगुई शहर में एशियाई देशों का एक सम्मेलन हुआ, जो बोगुई सम्मेलन नाम से जाना जाता है।

बाण्डुंग सम्मेलन

अप्रैल, 1955 में इण्डोनेशिया के बाण्डंग शहर में एफ्रोएशियाई देशों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें 29 देशों के 340 एशियाई-अफ्रीकी प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन का आयोजन भारत, बर्मा एवं इण्डोनेशिया ने सम्मिलित रूप से किया था।

इस सम्मेलन में पंचशील के सिद्धान्तों पर जोर दिया गया तथा एशिया एवं अफ्रीकी देशों से सम्बन्ध रखने वाली आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार किया गया। इस सम्मेलन को तृतीय शक्ति के अभ्युदय का प्रतीक कहा गया।

स्वेज नहर संकट

वर्ष 1956 में अमेरिका और ब्रिटेन ने मिस्र पर गुट-निरपेक्षता की नीति छोड़ देने के लिए भारी दबाव डाला और उन्होंने नील नदी पर ‘आस्वान डैम’ (बाँध) बनाने के लिए की गई वित्तीय सहायता का वादा वापस ले लिया। प्रतिक्रिया स्वरूप मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे नहर का उपयोग करने वाले घबरा गए। ब्रिटेन और फ्रांस ने इसके अन्तर्राष्ट्रीयकरण की मांग की।

फलस्वरूप जब ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने स्वेज क्षेत्र में अपनी सेनाएँ उतारी, तो नेहरू ने इसे ‘खुला हमला’ बताया, क्योंकि कुस्तुंतुनिया सन्धि 1889 ई. के अनुसार इसे मिस्र का अभिन्न अंग माना गया था। अन्तत: भारत के प्रयास और संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के कारण इस संकट का समाधान हुआ और वर्ष 1969 में स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण हो गया।

इसी प्रकार वर्ष 1956 में हंगरी के प्रश्न पर भारत ने न तो सोवियत संघ का विरोध किया तथा न ही पश्चिमी शक्तियों का समर्थन, बल्कि तटस्थ रहकर सोवियत संघ की सहानुभूति हासिल की। वर्ष 1960 में कांगो की स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए कांगो में बेल्जियम फौजों के प्रवेश का व्यापक विरोध किया तथा भारतीय शान्ति सैनिकों को कांगो में भेजकर मार्च, 1963 में कांगों गृहयुद्ध को समाप्त करवाया।

पी एल 480 समझौता

वर्ष 1959 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने अपनी भारत यात्रा से प्रभावित होकर स्वदेश लौटने के बाद मई, 1960 में दोनों देशों के बीच 4 वर्ष की अवधि के लिए पी एल 480 नामक एक समझौता हुआ, जिसके तहत अमेरिका ने भारत को पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न भेजने का आश्वासन दिया।

7 दिसम्बर, 1964 में लालबहादुर शास्त्री के समय भारत और अमेरिका के बीच नई दिल्ली में एक समझौता हुआ, जिसके तहत अमेरिका ने भारत को तारापुर में परमाणु संयन्त्र स्थापित करने के लिए 8 करोड़ डॉलर दिए तथा इसके लिए ईंधन देने का भी आश्वासन दिया।

वर्ष 1964 में भारत में विकट खाद्यान्न संकट उपस्थित होने पर भी अमेरिका ने पी एल 480 के तहत भारत को बड़ी मात्रा में खाद्यान्नों की आपूर्ति की। वर्ष 1965 में भारत-पाक युद्ध के समय अमेरिका ने दोनों देशों पर युद्ध बन्द न करने तक आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए और 6 जहाजों में भरकर भारत को जो सामग्री भेजी गई थी, उसे भारतीय तट से केवल 15 किमी की दूरी से वापस बुला लिया, जबकि पाकिस्तान ने उसके द्वारा दिए गए युद्धास्त्रों का भारत के विरुद्ध प्रयोग किया, परन्तु अमेरिका ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। अतः अमेरिका इस काल में भारत के प्रति अधिकांशत: नकारात्मक दृष्टिकोण ही दर्शाता रहा।

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