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भारत में प्रेस एवं शिक्षा का विकास

भारत में प्रेस एवं शिक्षा का विकास भारत में यूरोपियों के आगमन के सिर्फ नकारात्मक पक्ष ही नहीं, बल्कि कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। आधुनिक भारत में प्रेस एवं शिक्षा के विकास को इन्हीं सन्दर्भो में समझा जा सकता है। प्रेस एवं शिक्षा के विकास में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिसने अन्तत: भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के उद्भव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाचार पत्रों का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों को जनता तक पहुँचाना तथा जनता की आवश्यकताओं को सरकार तक पहुँचाना था।

प्रेस का विकास

भारत में प्रेस का विकास एक युगान्तरकारी घटना थी। इसके विकास से भारत में जहाँ एक ओर विचारों की अभिव्यक्ति को माध्यम मिला, वहीं इसने देश में अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं अज्ञानता के विरुद्ध मुहिम भी चलाई। राष्ट्रीय विचारधारा के प्रचार-प्रसार में तो इसका अतुलनीय योगदान रहा। इसके विकास में विदेशियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अन्तत: यह इन्हीं विदेशियों की सत्ता को उखाड़ फेंकने का सशक्त माध्यम भी बनी।

विदेशियों के प्रयास

भारत में प्रिण्टिग प्रेस की शुरुआत सबसे पहले पुर्तगालियों ने 1557 ई. में की थी, जब गोवा के कुछ पादरियों ने मिलकर भारत की प्रथम पुस्तक को प्रकाशित किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी 1684 ई. में बम्बई में अपनी प्रथम प्रिण्टिग प्रेस स्थापित की। आधुनिक भारतीय प्रेस का प्रारम्भ 1766 ई. में विलियम बोल्ट्स के प्रयासों से प्रारम्भ हुआ, परन्तु ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें वापस लन्दन भेज दिया।

जेम्स ऑगस्टस हिक्की को भारत में पत्रकारिता के इतिहास का अग्रदूत माना जाता है। भारत में सर्वप्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने 1780 ई. में बंगाल गजट अथवा द कलकत्ता जनरल एडवाइजर के रूप में किया था, परन्तु वारेन हेस्टिंग्स के विरोधस्वरूप यह समाचार-पत्र जल्दी ही बन्द हो गया, क्योंकि इसमें कम्पनी की तीव्र आलोचना की जाती थी। नवम्बर, 1780 में ही प्रकाशित ‘इण्डिया गजट’ दूसरा सामाचार-पत्र था।

भारतीयों के प्रयास

1816 ई. में अंग्रेज़ी में प्रकाशित भारत का पहला समाचार-पत्र गंगाधर भट्टाचार्य का साप्ताहिक बंगाल गजट था। 1818 ई. में मार्शमेन ने दिग्दर्शन नामक मासिक पत्रिका बंगाली में निकाली। राजा राममोहन राय को राष्ट्रीय प्रेस की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। इन्होंने प्रेस के माध्यम से समाज सुधार का प्रचार किया तथा इसे धार्मिक-दार्शनिक समस्याओं पर विचार एवं चर्चा का माध्यम भी बनाया। इन्होंने संवाद कौमुदी, मिरात उल अखबार तथा ब्रह्मनिकल मैगज़ीन प्रकाशित की। राजा राममोहन राय के सुधारों का विरोध करने के लिए 1822 ई. में चन्द्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। भारत में पत्रकारिता के क्षेत्र में जेम्स सिल्क बकिंघम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने प्रेस को जनता का प्रतिबिम्ब बनाया तथा प्रेस की जाँच-पड़ताल करके समाचार देने तथा आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने को कहा।

इन्होंने 1818 ई. में कलकत्ता जर्नल का प्रकाशन करके सरकार को परेशानी में डाल दिया। उन्हें 1823 ई. में इंग्लैण्ड वापस भेज दिया गया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने 1859 ई. में सोमप्रकाश का प्रकाशन बंगाली भाषा में प्रारम्भ किया, जिसका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी था। बंगाल में जब नील पैदा करने वाले किसानों में अशान्ति बढ़ी, तो सोमप्रकाश ने किसानों के हितों का जोरदार समर्थन किया। कुछ वर्षों पश्चात् क्रिस्टोफर दास पाल द्वारा सम्पादित हिन्दू पैट्रियाट को भी विद्यासागर ने अधिगृहीत कर लिया। क्रिस्टोफर दास पाल को भारतीय पत्रकारिता का राजकुमार भी कहा जाता है। 1861 ई. में देवेन्द्रनाथ टैगोर तथा मनमोहन घोष ने इण्डियन मिरर का प्रकाशन प्रारम्भ किया, जो किसी भी भारतीय द्वारा सम्पादित दैनिक प्रकाशित होने वाला एकमात्र पत्र था। 1868 ई. में मोतीलाल घोष ने अंग्रेजी-बंगाली साप्ताहिक के रूप में अमृत बाजार पत्रिका की शुरुआत की। 1878 ई. में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिए यह रातोंरात मात्र अंग्रेजी में प्रकाशित होने लगी।

 हिन्दी एवं अंग्रेज़ी के आरम्भिक समाचार-पत्र

भारत का प्रथम हिन्दी समाचार-पत्र उदन्त मार्तण्ड था, जिसका प्रकाशन जुगल किशोर ने 1826 ई. कानपुर में किया था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हिन्दी पत्रकारिता में महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1867 ई. में इनके सम्पादन में बनारस से ‘कविवचन सुधा’ प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ।

भारत में अंग्रेजों द्वारा सम्पादित अनेक समाचार-पत्र प्रकाशित किए गए। 1861 ई. में ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ को प्रारम्भ किया गया, जिसके लिए ‘बॉम्बे स्टैण्डर्ड’ तथा ‘बॉम्बे टाइम्स’ नामक पत्र को मिलाया गया था। वेनेट एवं कॉलमेन कम्पनी ने जिसके सम्पादक उदार विचारों वाले अंग्रेज रॉबर्ट नाइट थे। मद्रास से 1878 ई. यह अखबार निकाला था। 1875 ई. में स्टेट्समैन का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, में अंग्रेजी में हिन्दू एक साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित होने लगा।

ऐनी बेसेण्ट ने होमरूल का प्रचार करने के लिए ‘मद्रास स्टैण्डर्ड’ को अपने नियन्त्रण में लेकर उसका नाम न्यू इण्डिया रखा। वर्ष 1922 में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ का प्रकाशन के एम पणिक्कर के सम्पादन में प्रारम्भ हुआ। अकाली-सिख आन्दोलन के परिणामस्वरूप इस पत्र की स्थापना हुई। मराठी साप्ताहिक ‘क्रान्ति’ तथा अंग्रेजी साप्ताहिक ‘न्यू स्पार्क’ का प्रकाशन मार्क्सवादी विचारों को फैलाने के लिए किया गया। भारतीयों और अंग्रेजों ने भारत में विभिन्न भाषाओं में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

प्रमुख समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ

समाचार-पत्र/पत्रिकाएँसंस्थापक/सम्पादक भाषा स्थान
समाचार दर्पणकाशीसेन बांग्ला (1818)कलकत्ता
कलकत्ता जर्नलजेम्स बकिंघमअंग्रेजी (1818)कलकत्ता
संवाद कौमुदीराजा राममोहन राय बांग्ला (1821)कलकत्ता
मिरात उल अखबारराजा राममोहन रायफारसी (1822)कलकत्ता
द ट्रिब्यूनसर दयाल सिंह मजीठियाअंग्रेजी (1827)चण्डीगढ़
रफ्त गोफ्तारदादाभाई नौरोजीगुजराती (1831)बम्बई
बम्बई दर्पणबाल शास्त्रीमराठी (1832)बम्बई
हिन्दू पैट्रियाटहरिश्चन्द्र मुखर्जीअंग्रेजी (1855)
इन्दु प्रकाशएम जी रानाडेहिन्दी 1862
नेटिव ओपीनियनवी एन माण्डलिकअंग्रेजी (1864)बम्बई
ज्ञान प्रदायिनीनवीन चन्द्र रायहिन्दी (1866)
हरिश्चन्द्र मैगजीनभारतेन्दु हरिश्चन्द्रहिन्दी (1872)उत्तर प्रदेश
हिन्दी प्रदीपबालकृष्ण भट्टहिन्दी (1877)उत्तर प्रदेश
हिन्दूवीर राघवाचारीअंग्रेजी (1878)मद्रास
बंगालीसुरेन्द्रनाथ बनर्जीअंग्रेजी (1879)कलकत्ता
बंगवासीजोगिन्दर नाथ बोसबांग्ला (1881)कलकत्ता
केसरीबाल गंगाधर तिलकमराठी (1881)बम्बई
हिन्द-ए-स्थानरामपाल सिंहहिन्दी (1883)उत्तर प्रदेश
हिन्दुस्तान स्टैंडर्डसच्चिदानन्द सिन्हाअंग्रेजी (1899)
इण्डियन रिव्यूजी ए नटेशनअंग्रेजी (1900)मद्रास
मॉडर्न रिव्यूरामानन्द चटर्जीअंग्रेजी (1907)कलकत्ता
प्रतापगणेश शंकर विद्यार्थीहिन्दी (1910)कानपुर
कामरेडमोहम्मद अलीअंग्रेजी (1911)कलकत्ता
अल हिलालअबुल कलाम आजादउर्दू (1912)कलकत्ता
अल बिलागअबुल कलाम आजादउर्दू (1913)कलकत्ता
हमदर्दमोहम्मद अलीउर्दू (1913)दिल्ली
सर्वेण्ट ऑफ इण्डियाश्रीनिवास शास्त्रीअंग्रेजी (1918)
यंग इण्डियामहात्मा गांधी   अंग्रेजी (1919)अहमदाबाद
नव जीवनमहात्मा गांधीहिन्दी, गुजराती (1919)अहमदाबाद
आजशिवप्रसाद गुप्तहिन्दी (1920)
सोशलिस्टएस ए डांगेअंग्रेजी (1922)
हरिजनमहात्मा गांधीहिन्दी, गुजराती (1933)पूना
नेशनल हेराल्डजवाहरलाल नेहरूअंग्रेजी (1938)दिल्ली
बॉम्बे क्रानिकलफिरोजशाह मेहताअंग्रेजीबम्बई
संजीवनीके के मित्राबांग्लाकलकत्ता
मराठाबाल गंगाधर तिलकअंग्रेजीबम्बई

अन्य प्रमुख पुस्तके एवं पत्र

पुस्तके/पत्र लेखक/सम्पादक 
इण्डिया डिवाइडेडडॉ. राजेन्द्र प्रसाद
इण्डिपेन्डेण्ट (पत्र)मोतीलाल नेहरू
वागदरामोहम्मद इकबाल
इण्डिया विन्स फ्रीडमअबुल कलाम आजाद
सोजे वतनमुंशी प्रेमचन्द
माई एक्सपेरीमेण्ट विद टुथ महात्मा गाँधी
हिन्द स्वराज महात्मा गाँधी
अभ्युदय (पत्र) मदन मोहन मालवीय
हिन्दुस्तान (पत्र) मदन मोहन मालवीय
लीडर (पत्र)मैथिलीशरण गुप्त
भारत भारतीअरविन्द घोष
कर्मयोगी (पत्र)अरविन्द घोष
वन्दे मातरम्  द्विजेन्द्रनाथ टैगोर
भारतीइकबाल
तराने हिन्दपरांजपे
काल (पत्र)पट्टाभि सीतारमैया
कांग्रेस का इतिहासगोपालकृष्ण गोखले
नेशन (पत्र)गोपालकृष्ण गोखले
सुधारकवेलण्टाइन शिरोल
इण्डियन अनरेस्टरवीन्द्रनाथ टैगोर
होम एण्ड द वर्ल्डसी आर दास
इण्डिया फॉर इण्डियन्ससुरेन्द्रनाथ बनर्जी
ए नेशन इन द मेकिंगसुन्दरलाल
इण्डियन स्ट्रगलसुभाषचन्द्र बोस
कॉमन वील (पत्र)ऐनी बेसेण्ट
हिट्स फॉर सेल्फ कल्चरलाला हरदयाल
भारत दुर्दशाभारतेन्दु हरिश्चन्द्र
गीता रहस्यबाल गंगाधर तिलक
युगान्तर (पत्र)भूपेन्द्र दत्त
द स्टोरी ऑफ द इण्टीग्रेशन ऑफ द इण्डियावी पी मेनन
बहुविवाहईश्वर चन्द्र विद्यासागर
देशेर कथा (इस पुस्तक में औपनिवेशिक साम्राज्य द्वारा मस्तिष्क की सम्मोहक विजय के रूप में चेतावनी थी तथा इस पुस्तक ने नुक्कड़ नाटकों तथा लोकगीतों को प्रेरित किया।)सखाराम गणेश देउस्को
 विटाल विध्वंसक (इस पुस्तक में अस्पृश्य समुदाय को लक्षित कर प्रथम मासिक पत्रिका ‘विटाल विध्वंसक’ गोपाल बाबा वलंगकर द्वारा प्रकाशित की गई थी।)गोपाल बाबा वलंगकर

प्रमुख समाचार एजेन्सियाँ  

एजेन्सियाँ स्थापना वर्ष
रायटरवर्ष 1860
एसोसिएट प्रेस ऑफ इण्डियावर्ष 1905
फ्री प्रेस न्यूज सर्विसवर्ष 1927
यूनाइटेड प्रेस ऑफ इण्डियावर्ष 1934

प्रेस के विरुद्ध प्रतिबन्ध

भारत के समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं से जनता में चेतना का विकास होता है जिससे अंग्रेजों के विरुद्ध एक आन्दोलन का विकास होता था। इस कारण ब्रिटिश सरकार ने समाचार-पत्रों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध आरोपित किए, जो अग्रलिखित हैं

सर्वष्ट यण मय जीवन आज सोशलिस्ट

समाचार-पत्रों का पत्रेक्षण अधिनियम, 1799

लॉर्ड वेलेजली ने कम्पनी की नीतियों का दुष्प्रचार रोकने के लि समाचार-पत्रों का पत्रेक्षण अधिनियम, 1799 बनाया, जिसके तहत समाचार-पत्रों पर मुद्रकों, सम्पादकों एवं पत्र स्वामियों का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया गया। इस अधिनियम के तहत चार्ल्स मैक्लीन के समाचार-पत्र बंगाल किरकारू के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की गई, जिसका प्रतिरोध चार्ल्स मैक्लीन ने किया। परिणामस्वरूप लॉर्ड वेलेजली को अपने से त्याग-पत्र देना पड़ा। 1818 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इस अधिनियम को समाप्त कर दिया। पद

अनुज्ञप्ति नियम, 1823

जब 1823 ई. में जॉन एडम्स कार्यवाहक गवर्नर-जनरल बना, तब उसने समाचार-पत्रों को प्रतिबन्धित करने के लिए अनुज्ञप्ति नियम, 1823 बनाया। इस नियम के तहत राजा राममोहन राय के मिरात उल अखबार को बन्द कर दिया गया तथा कलकत्ता जर्नल के सम्पादक जे एस बकिंघम को इंग्लैण्ड निर्वासित कर दिया था।

अनुज्ञप्ति नियम-1823 के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे

  1.  प्रकाशक तथा मुद्रक को मुद्रणालय स्थापित करने के लिए कम्पनी से अनुज्ञप्ति लेनी होगी।
  2. इस नियम का अनुपालन न करने पर ₹ 400 जुर्माना अथवा कारावास का दण्ड होगा।
  3. दण्डाधिकारियों को बिना अनुज्ञप्ति वाले मुद्रणालयों को जब्त करने का अधिकार होगा।
  4. गवर्नर जनरल को अनुज्ञप्ति को रद्द करने अथवा नया प्रार्थना-पत्र माँग लेने का अधिकार होगा।

भारतीय समाचार-पत्रों का मुक्तिदाता

 1823 ई. के अनुज्ञप्ति नियमों को कार्यवाहक गवर्नरजनरल चार्ल्स मैटकॉफ ने भारत सरकार के विधि सदस्य लॉर्ड मैकाले की सहायता से 1835 ई. में रद्द कर दिया तथा नया नियम लिबरेशन ऑफ द इण्डियन प्रेस अधिनियम बनाया, जिसके तहत प्रकाशकों एवं पत्र स्वामियों को केवल प्रकाशन जगह का नाम सरकार को सूचित करना अनिवार्य बनाया। मैटकॉफ ने भारतीय प्रेस को प्रतिबन्धों से मुक्त कर दिया, इसका समर्थन | मैकाले ने भी किया। इसलिए चार्ल्स मैटकॉफ को भारतीय समाचार-पत्रों का मुक्तिदाता कहा जाता है।

अनुज्ञप्ति नियम, 1857

ब्रिटिश सरकार ने समाचार-पत्रों को प्रतिबन्धित करने के लिए अनुज्ञप्ति अधिनियम, 1857 लागू किया, जिसके अन्तर्गत 1828 ई. के अनुज्ञप्ति नियमों को पुनः लागू किया गया तथा समाचार-पत्रों के लिए लाइसेन्स नियम बनाए गए। ये नियम एक वर्ष के लिए लागू किए गए थ, जिसके उपरान्त मैटकॉफ के पूर्ववर्ती नियम लागू हुए।

पंजीकरण अधिनियम, 1867

यह अधिनियम समाचार-पत्रों की बढ़ती लोकप्रियता विशेषकर सोम प्रकाश के विरुद्ध पारित किया गया था। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे

  • प्रत्येक मुद्रित पुस्तक एवं समाचार-पत्र पर मुद्रक, प्रकाशक एवं मुद्रण स्थान का नाम देना अनिवार्य किया गया।
  • प्रकाशन के एक माह के भीतर मुद्रित समाचार-पत्र, पुस्तक की एक नि:शुल्क प्रति स्थानीय सरकार को देनी होती थी।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878

भारतीय असन्तोष को दबाने के लिए आयरलैण्ड के दमन अधिनियम की तर्ज पर लॉर्ड लिटन द्वारा वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 पारित किया गया। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे

  • जिला स्तर पर दण्डनायकों को यह अधिकार दिया गया कि वे समाचार-पत्रों से अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करवाएँ तथा अवहेलना पर मुद्रणालय को जब्त करें।
  • दण्डनायक के निर्णय के विरुद्ध अपील करने की अनुमति नहीं होगी।
  • कार्यवाही से बचने के लिए सम्बन्धित पत्र अपने प्रूफ (प्रमाण) सेंसर बोर्ड को देंगे

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट में देशी समाचार-पत्रों एवं विदेशी समाचार-पत्रों में विभेद किया गया था। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को मुंह बन्द करने वाला अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप सोम प्रकाश बन्द हो गया तथा अमृत बाजार पत्रिका रातोरात अंग्रेजी में छपने लगी थी। भारत मिहिर, ढाका प्रकाश, सहचर आदि अनेक पत्रों पर मुकदमे दायर किए गए। लॉर्ड रिपन ने इस अधिनियम को भारी विरोध के कारण 1882 ई. में निरस्त कर दिया था।

समाचार-पत्र अधिनियम, 1908

वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया, जिसके कारण सारे भारत में असन्तोष की भावना फैल गई। भारतीय समाचार-पत्रों ने कर्जन की नीतियों की तीव्र आलोचना की। अत: सरकार ने समाचार-पत्रों को बाधित करने के लिए समाचार-पत्र अधिनियम, 1908 पारित किया। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे

  • आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करने पर सम्पत्ति एवं मुद्रणालय को जब्त किया जा सकता था।
  • स्थानीय सरकार मुद्रक अथवा प्रकाशक की अनुमति को रद्द कर सकती थी।
  • मुद्रक तथा प्रकाशकों को मुद्रणालय के जब्त होने के 15 दिन के अन्दर उच्च न्यायालय में अपील करने की अनुमति थी।

इस अधिनियम की कठोरता के कारण संध्या, युगान्तर एवं वन्देमातरम् आदि समाचार-पत्रों को अपना प्रकाशन बन्द करना पड़ा, क्योंकि ये समाचार-पत्र बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे थे।

भारतीय समाचार अधिनियम, 1910

ब्रिटिश सरकार ने समाचार-पत्रों पर प्रभावी नियन्त्रण लगाने के लिए भारतीय समाचार अधिनियम, 1910 लागू किया। इस अधिनियम में समाचार-पत्र के प्रकाशकों से पंजीकरण जमानत ₹500 से लेकर ₹2000 अधिकतम निर्धारित की गई। सरकार को जमानत जब्त करने तथा पंजीकरण रद्द करने का अधिकार दिया गया। पुनः पंजीकरण राशि कम-से- कम ₹ 1000 तथा अधिकतम राशि ₹ 10,000 निर्धारित की गई तथा पुन: आपत्तिजनक सामग्री छापने पर मुद्रणालय को जब्त करने का अधिकार दिया गया। प्रकाशकों को 2 माह के अन्दर उच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार दिया गया। प्रत्येक समाचार-पत्र के प्रकाशकों को समाचार-पत्र की दो निःशुल्क प्रतियाँ सरकार के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया। इस अधिनियम ने भारतीय समाचार-पत्रों पर कारगर प्रतिबन्ध लगाए। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इसमें भारतीय सुरक्षा अधिनियम जोड़ दिए गए, जिससे प्रतिबन्ध अधिक कठोर हो गए। इस अधिनियम के तहत लगभग 991 मुद्रणालयों एवं समाचार-पत्रों के विरुद्ध कार्यवाही की गई।

प्रेस इन्क्वायरी कमेटी, 1921 

भारतीय समाचार-पत्रों के प्रति कठोर प्रेस कानूनों की समीक्षा के लिए वर्ष 1921 में विधि सदस्य सर तेजबहादुर सप्रू की अध्यक्षता में प्रेस इन्क्यायरी कमेटी की नियुक्ति की गई। इस कमेटी की अनुशंसा पर वर्ष 1908 एवं वर्ष 1910 के प्रेस अधिनियमों को निरस्त कर दिया गया।

 भारतीय समाचार (संकटकालीन शक्तियाँ) अधिनियम, 1931

ब्रिटिश सरकार ने संकटकालीन अधिनियम, 1931 पारित किया, जिसमें 1910 के अधिनियम के प्रावधानों को लागू किया गया। इस अधिनियम द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रसार को प्रतिबन्धित किया गया था

अधिनियम के माध्यम से प्रान्तीय सरकार को भी ऐसी शक्तियाँ दे दी गई, जिसमें सरकार को शब्द संकेत अथवा आकृति द्वारा किसी हत्या के अथवा अन्य किसी अनुसंज्ञेय अपराध करने की प्रेरणा देने पर अथवा ऐसे अपराध की प्रशंसा करने पर कड़ा दण्ड देने की अनुमति थी।

आपराधिक संशोधित अधिनियम, 1932 को; 1931 के अधिनियम को संशोधित करके पारित किया गया था। इसमें निरोधक कानूनों को और कठोर बना दिया गया तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पत्रेक्षण कानूनों को लागू कर दिया गया, जिसके तहत राष्ट्रीय कांग्रेस के विषय में समाचार-पत्र प्रकाशित करना अवैध बना दिया गया। वर्ष 1945 में इन नियमों को समाप्त किया गया था।

शिक्षा का विकास

ब्रिटिश शासन में भारत में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सर्वप्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने प्रयास किए। उन्होंने 1771 ई. में कलकत्ता में अरबी एवं फारसी पढ़ाने के लिए कलकत्ता मदरसा की स्थापना की। हेस्टिंग्स के सहयोगी सर विलियम जोंस ने 1778 ई. में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना की तथा प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन हेतु प्रयास किए।

इसी क्रम में 1791 ई. में जोनाथन डंकन ने बनारस में संस्कृत कॉलेज खोला था। 1800 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कम्पनी के असैनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की थी।

19वीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में शिक्षा के विकास में ईसाई मिशनरियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इसमें पहला योगदान डेनमार्क की प्रोटेस्टेण्ट मिशनरी का था। जीगेन बेल्स व प्ल्यूशा के नेतृत्व में डेन मिशन ने दक्षिण भारत में शैक्षिक कार्य किया।

1739 ई. में विलियम कैरे ने कलकत्ता के निकट श्रीरामपुर में अपना केन्द्र स्थापित किया। 1810 ई. में बैपटिस्ट मिशन की स्थापना हुई।

ब्रिटिश सरकार ने सर्वप्रथम 1813 ई. के चार्टर एक्ट में भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए एक लाख रुपये का प्रावधान किया। 1817 ई. में पाश्चात्य विज्ञान और मानविकी विषयों की पढ़ाई के लिए कलकत्ता में राजा राममोहन राय, डेविड हेयर तथा सर हाईड ईस्ट ने मिलकर हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। बिटिश सरकार ने कलकत्ता, बनारस एवं आगरा में तोप संस्कृत कॉलेजो की स्थापना प्राच्य भाषाओं को मावा देने के लिए की थी। जेईडीबेथून ने 1849 ई में भारतीय बालिकाओं के लिए एक विद्यालय खोला, जिसका संचालन बाद में लॉर्ड डलहौजी ने किया। यह विद्यालय बेधून महाविद्यालय के नाम से प्रसिस हुआ। बम्बई में स्टुअर्ट एल्फिस्टन ने देशी शिक्षा समिति को प्रोत्साहन दिया।

शिक्षा का अधोमुखी निस्यंदन सिद्धान्त

निजी प्रयत्नों को शिक्षा के क्षेत्र में पूर्णरूपेण देना चाहिए।

औपनिवेशिक युग में ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि प्रत्येक भारतीय वर्ग तक शिक्षा को नहीं पहुंचाया जा सकता है, इसलिए उन्होंने शिक्षा के सर्वप्रथम प्रसार के लिए अधोमुखी निस्पंदन सिद्धान्त लागू किया। इस सिद्धान्त के अनुसार भारतीय उच्च वर्गों को शिक्षित किया जाए, जिनसे छनकर शिक्षा का प्रसार निम्न वर्गों तक हो जाएगा।

एक सरकारी नीति के रूप में इस सिद्धान्त को ऑकलैण्ड ने लागू किया था, परन्तु शीघ्र ही यह नौति असफल हो गई। इसका मुख्य कारण था-उच्च वर्गों का ब्रिटिश सरकार में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने पर अन्य भारतीय वर्गों से पृथक् रहना। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1854 ई. के वुड डिस्पैच के बाद इस नीति को त्याग दिया।

आंग्ल-प्राच्य भाषा विवाद 

शिक्षा का प्रसार करने के लिए एक 10 सदस्यीय लोक शिक्षा की सामान्य समिति गठित की गई। लोक शिक्षा के लिए गठित सामान्य समिति में भारत में शिक्षा के विकास से सम्बन्धित दो दलों का उद्भव हुआ। एक दल प्राच्य भाषा का समर्थक (Orientalists) था, जो भारत में शिक्षा का प्रसार प्राच्य भाषा माध्यम अर्थात् संस्कृत, अरबी से करना चाहते थे। प्राच्य मत के प्रमुख समर्थक एच. टी. प्रिंसेप, एच. एच. विल्सन थे, जबकि आंग्ल भाषा के समर्थक (Occidentalist) मुनरो, एलफिंस्टन एवं लॉर्ड मैकाले थे।

आंग्ल भाषा के समर्थकों के अनुसार भारत में वैज्ञानिक ज्ञान का संचार अंग्रेजी भाषा माध्यम से ही किया जा सकता है। प्राच्य भाषा के समर्थक भारत में वैज्ञानिक ज्ञान का प्रचार स्थानीय भाषा में करना चाहते थे।

विधि सदस्य मैकाले ने तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैण्टिक को पत्र लिखकर आंग्ल भाषा में शिक्षा का प्रसार करने का अनुरोध किया, जिसे बैण्टिक ने स्वीकार करते हुए कम्पनी को इस पर कार्य करने के लिए कहा। 1835 ई. में विलियम बैण्टिक के समय मैकाले शिक्षा पद्धति लागू की गई। 1854 ई. से पूर्व मैकाले की यह नीति भारत में शिक्षा के विकास का प्रमुख आधार रही।

1854 का चार्ल्स वुड डिस्पैच

19 जुलाई, 1864 को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के प्रधान सदस्य सर चार्ल्स वुड ने भारत की भावी शिक्षा के लिए एक योजना प्रस्तुत की, जिसे जिसे वुड डिस्पैच कहा गया। इसे भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा भी कहा जाता है।

इसकी प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं

  •  यूरोपियन ज्ञान को अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ देशी भाषाओं के माध्यम से जनसाधारण तक पहुँचाया जा सकता है।
  • सरकार की शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार था।
  • ग्रामों में देशी भाषायी पाठशालाओं सहित जिलों में एंग्लो वर्नाकुलर हाईस्कूल और कॉलेज खोले जाएँ।
  • निजी प्रयत्नों को बढ़ावा देने के लिए अनुदान पद्धति लागू की जाए।
  • कम्पनी द्वारा पाँचों प्रान्तों में लोक शिक्षा विभाग स्थापित किए जाएंगे।
  • कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में तीन विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएँ।
  • व्यावसायिक, तकनीक एवं महिला शिक्षा को बढ़ाने के प्रयास किए जाएँ।

वुड डिस्पैच की सिफारिशों को तुरन्त लागू करते हुए ब्रिटिश सरकार ने 1855 ई. में लोक शिक्षा विभाग की स्थापना की तथा 1857 ई. में कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में लन्दन विश्वविद्यालय की तर्ज पर विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। कलकत्ता में इन्जीनियरिंग कॉलेज की स्थापना 1856 ई. में हुई। 1840 ई. में मुम्बई में भारतीय शिक्षा समिति भंग करके उसके स्थान पर शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई। 1851 ई. में ‘पूना कॉलेज’ तथा 1854 ई. में बम्बई में प्राण्ट मेडिकल कॉलेज की नींव पड़ी। 1847 ई. में थॉमसन ने रुड़की में प्रथम इन्जीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। प्रथम मेडिकल कॉलेज 1835 ई. में कलकत्ता में खोला गया था।

हण्टर शिक्षा आयोग (1882-83 ई.)

ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा में अव्यवस्था की समीक्षा करने के लिए 1882 ई. में हण्टर शिक्षा आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग में आठ भारतीय भी थे। हण्टर शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डब्ल्यू डब्ल्यू हण्टर थे। इस आयोग को प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के प्रसार के लिए भी उपाय सुझाने थे। साथ ही, 1854 ई. के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति का मूल्यांकन भी करना था।

हण्टर शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए थे

  • माध्यमिक स्तर पर साहित्यिक शिक्षा एवं व्यावहारिक शिक्षा देने के दो खण्ड हों।
  • स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार को विशेष प्रयास करने चाहिए।
  • निजी प्रयत्नो को शिक्षा के क्षेत्र में पूर्णरूपेण देना चाहिए
  • बम्बई, कलकत्ता एवं मद्रास के अलावा स्थानों पर महिला-शिक्षा का विकास किया चाहिए।

हण्टर शिक्षा आयोग की सिफारिशों के परिणामस्वरूप भारत में माध्यमिक एवं कॉलेज स्तर की शिक्षा तीव्र विकास हुआ। 1882 ई. में पंजाब एव 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904

कर्जन ने ब्रिटिश सरकार के प्रशासन को सुधारने के लिए वर्ष 1901 में शिमला में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें भारतीय शिक्षा के विकास पर चर्चा की गई।

इस सम्मेलन के फलस्वरूप सर टॉमस रैले के अध्यक्षता में एक आयोग वर्ष 1902 में गठित किय गया, जिसका कार्य विश्वविद्यालयी शिक्षा की समीक्षा करना था। सैयद हुसैन बिलग्रामी तथा गुरुदास बनर्जी दो भारतीय इस आयोग के सदस्य थे। इस आयोग की अनुशंसा पर वर्ष 1904 में भारतीद जिसके मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया

जिसके मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे 

  • गवर्नर-जनरल को विश्वविद्यालयों की सीमा निश्चित करने का अधिकार दिया जाए तथा अशासकीय कॉलेजों पर नियन्त्रण कठोर किया जाए।
  • विश्वविद्यालयों को प्राध्यापकों, व्याख्याताओं एवं प्रयोगशालाओं का समुचित प्रबन्ध करना चाहिए।
  • विश्वविद्यालयों में 6 वर्ष तक के लिए उप-सदस्य नियुक्त किए जाने चाहिए, जिनकी संख्या कम-से-कम 50 एवं अधिक-से-अधिक 100 होनी चाहिए।
  • उप-सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जानी चाहिए।

भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 का राष्ट्रवादी तत्त्वों ने व्यापक विरोध किया, क्योंकि इसमें निजी कॉलेजों पर कठोर प्रतिबन्ध लादे गए थे। अतः यह अधिनियम अपने मूल रूप लागू न हो सका, परन्तु इस अधिनियम का एक अच्छा प्रभाव यह हुआ कि शिक्षा पर ₹ 5 लाख का अनुदान निश्चित किया गया तथा भारत में एक शिक्षा महानिदेशक की नियुक्ति भी की गई। शिक्षा महानिदेशक एच डब्ल्यू ऑरेन्ज थे। वर्ष 1905 में कार्लाइल परिपत्र जारी हुआ, जिसके तहत राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विद्यार्थियों के प्रयोग किए जाने की निन्दा की गई। कर्जन के समय कृषि विभाग एवं पुरातत्त्व विभाग की स्थापना की गई, साथ ही वर्ष 1904 के प्राचीन स्मारक, अभिलेख संरक्षण अधिनियम को पारित करने में सहायता दी गई।

शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव (वर्ष 1913)

वर्ष 1906 में सर्वप्रथम बड़ौदा रियासत में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया। इससे प्रेरित होकर गोपालकृष्ण गोखले जैसे राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार से नीति लागू करने के लिए दबाव बनाया। ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रवादियों की मांगों को तो पूर्णत: नहीं माना, परन्तु उसने निरक्षरता समाप्त करने की नीति का पालन करते हुए प्रत्येक प्रान्त में विश्वविद्यालय स्थापित किए तथा प्रान्तीय सरकारों से सिफारिश की, कि वह समाज के निर्धन एवं पिछड़े वर्गों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का उपाय करें। विश्वविद्यालयों, प्राथमिक तथा माध्यमिक स्कूलों के अध्यापकों के प्रशिक्षण और माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए निजी प्रयासों के महत्त्व पर बल दिया गया।

सैडलर आयोग (वर्ष 1917-19)

कलकत्ता विश्वविद्यालय की शिक्षा नीतियों की समीक्षा करने के लिए वर्ष 1917 में एम ई सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग के दो प्रमुख भारतीय सदस्य आशुतोष मुखर्जी एवं जियाउद्दीन अहमद थे। इस आयोग ने कलकत्ता विश्वविद्यालय की शिक्षा नीतियों की आलोचना करते हुए उसे शिक्षा के विकास में असफल बताया था।

आयोग की प्रमुख अनुशंसाएँ

  •  विश्वविद्यालयों के नियम कठोर नहीं होने चाहिए तथा स्कूल की शिक्षा 12 वर्ष की होनी चाहिए। उत्तर माध्यमिक परीक्षा के पश्चात् ही विश्वविद्यालय छात्रों को भर्ती होना चाहिए।
  • उत्तर माध्यमिक शिक्षा चरण के पश्चात् स्नातक की उपाधि के लिए शिक्षा तीन वर्ष की होनी चाहिए।
  • महिलाओं के लिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार होना चाहिए।
  • अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए ढाका एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय में शिक्षा विभाग स्थापित किए जाएँ।
  • व्यावहारिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रमों के अध्ययन को बढ़ावा दिया जाए।

वर्ष 1916 में मैसूर; वर्ष 1917 में पटना एवं बनारस, वर्ष 1918 में उस्मानिया विश्वविद्यालय तथा वर्ष 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एवं ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। अलीगढ़ तथा बनारस विश्वविद्यालय सीधे सरकार के अधीन थे। उस्मानिया विश्वविद्यालय ने शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी न रखकर उर्दू रखा। वर्ष 1919 के मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अधीन प्रान्तों में शिक्षा विभाग लोक निर्वाचित मन्त्री के नियन्त्रण में दे दिया गया। शिक्षा के लिए केन्द्रीय अनुदान बन्द कर दिया गया तथा केन्द्रीय सरकार ने शिक्षा में रुचि रखनी बन्द कर दी।

हाटौंग समिति (1929 ई.)

वर्ष 1929 में शिक्षा के विकास पर रिपोर्ट देने के लिए सर फिलिप हार्टोग की अध्यक्षता में एक सहायक समिति की नियुक्ति की गई। इस समिति की सिफारिश के आधार पर वर्ष 1935 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का पुनर्गठन किया गया। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं

  •  सुधार एवं एकीकरण की नीति का पालन करते हुए प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीय महत्त्व पर बल दिया जाए।
  • ग्रामीण छात्रों को वर्नाकुलर मिडिल स्कूल स्तर पर रोककर , उन्हें व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा दी जाए।
  •  विश्वविद्यालयों को शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य करते हुए विवेकहीन प्रवेशों को रोकना चाहिए

वर्धा योजना

महात्मा गाँधी ने वर्ष 1937 में मौलिक शिक्षा के लिए हरिजन समाचार-पत्र में वर्धा योजना प्रकाशित की, इस योजना का ब्यौरा जाकिर हुसैन ने प्रस्तुत किया। इसमें अध्यापकों के प्रशिक्षण, पर्यवेक्षण वा परीक्षण के सुझाव दिए गए। योजना के तहत विद्यार्थियों को मातृभाषा में सात वर्ष का अध्ययन करना था। हस्त उत्पादक कार्य प्रणाली अपनाना इस योजना की मुख्य विशेषता थी। वर्ष 1947 के बाद भारत सरकार इस योजना को अमल में लाई थी।

सार्जेण्ट योजना (1944 ई.)

वर्ष 1944 में भारत सरकार ने शिक्षा सलाहकार सर जॉन सार्जेण्ट के सुझाव राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार की, जिसे सार्जेण्ट योजना कहा गया। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे

  • 6 से 11 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध हो।
  • प्रारम्भिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय स्थापित किए जाएँ।
  • 11 से 17 वर्ष तक के बच्चों के लिए 6 वर्ष की शिक्षा व्यवस्था की जाए।
  • उत्तर माध्यमिक श्रेणी समाप्त की जाए।
  • 40 वर्ष में देश में शिक्षा के पुनर्निर्माण का कार्य होना चाहिए।

योजना का मूल्यांकन

पश्चिमी शिक्षा का तत्कालीन राजनीति तथा भारतीयों की राजनीतिक गतिविधियों पर गहरा असर पड़ा था। उन प्रान्तों में जहाँ पश्चिमी शिक्षा का अधिक प्रसार हुआ था, राजनीति और शिक्षा के मध्य स्पष्ट सम्बध था, तथापि इस मापदण्ड को सामान्य रूप से नहीं अपनाया जा सका।

इसका कारण यह है कि वे प्रदेश भी, जिनमें उस प्रदेश की भाषा में शिक्षा का प्रसार हुआ; जैसे-आन्ध्र प्रदेश तथा गुजरात, वर्ष 1920 तक राजनीतिक रूप से क्रियाशील हो गए थे। वर्ष 1920 से पहले की तुलना में राजनीति में पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीयों की प्रधानता कम हो गई थी।

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