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भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ

भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ नए मानव के विकास के क्रम में प्रारम्भिक अवस्था को प्रागैतिहास के नाम से जाना जाता है। इस दौरान विभिन्न प्रकार के आविष्कार मानव जीवन का हिस्सा बने। इस काल के लोग सामान्यत: आखेटक और भोजन संग्राहक थे तथा पत्थर के औजारों का प्रयोग करते थे।

मानव का विकास

आदिमानव के इतिहास की जानकारी मानव के जीवाश्मों (Fossils), पत्थर के औजारों और गुफाओं की चित्रकारियों की खोजों से मिलती है। चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज’ (On the Origin of Species) में स्पष्ट किया है कि मानव बहुत समय पहले जानवरों से ही क्रमिक रूप से विकसित होकर अपने वर्तमान रूप में आया है। प्राप्त जीवाश्मों को होमो हैबिलिस (औजार बनाने वाले), होमो एरेक्ट्स (सीधे खड़े होकर पैरों के बल चलने वाले) और होमो सेपियन्स (प्राज्ञ या चिन्तनशील मानव) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मनुष्य का उद्भव स्थान अफ्रीका माना जाता है, जहाँ से वे विश्व के अन्य भागों में फैल गए।

भारत में आदिमानव का अध्ययन प्रागैतिहास के अन्तर्गत किया जाता है। मानव परन्तु पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पुरापाषाण काल के आदिमानव का कोई जीवाश्म (Fossil) नहीं मिला है। भारत में प्रागैतिहासिक मानव का प्राचीनतम जीवाश्म नर्मदा घाटी क्षेत्र में हथनौरा (मध्यपाषाण काल से सम्बद्ध) से मिला है। भारत में मानव के प्राचीनतम अस्तित्व के संकेत पत्थर के औजारों में मिलते हैं, जिनका काल 5 लाख इ. पू. से 2.5 लाख ई. पू. निर्धारित किया गया है।

भारतीय इतिहास का काल विभाजन

स्रोतों के आधार पर इतिहासकार भारतीय इतिहास को तीन भागों में बाँटते हैं

  1.  प्रागैतिहासिक काल (मानव उत्पत्ति से 3000 ई. पू.)
  2. आद्य ऐतिहासिक काल (3000 ई. पू. से 600 ई. पू.)
  3. ऐतिहासिक काल (600 ई. पू. से आगे)

प्राचीन इतिहास का वह काल जिसके लिए कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है, जिसमें मानव का जीवन अपेक्षाकृत पूर्णतया सभ्य नहीं था, प्रागैतिहासिक काल (Pre Historic Period) कहलाता है। इस काल का इतिहास लिखते समय इतिहासकार को पूर्णत: पुरातात्विक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है।

प्राचीन इतिहास में एक ऐसा समय भी था, जब मनुष्य लिखना तो जानता था, लेकिन उन प्राप्त लेखों को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, उसे आद्य ऐतिहासिक काल (Proto Historic Period) कहा जाता है। इस काल का इतिहास लिखते समय भी मुख्यत: पुरातात्विक साक्ष्यों का उपयोग करना पड़ता है। लगभग 600 ई. पू. के बाद का काल ऐतिहासिक काल (Historic Period) कहलाता है। इस काल का इतिहास लिखते समय साहित्यिक, है। पुरातात्विक एवं विदेशियों के विवरण का उपयोग किया जाता है।

पाषाण काल

पाषाण काल मानव सभ्यता के आदिकाल को पाषाण काल कहते हैं, क्योंकि इसमें मनुष्य का जीवन पाषाण निर्मित उपकरणों पर निर्भर करता था।  पाषाण युग 30,000 ईसा पूर्व से लगभग 3,000 ईसा पूर्व तक चला और इसका नाम उस समय विकसित मुख्य तकनीकी उपकरण के नाम पर रखा गया: पत्थर। यह कांस्य युग और लौह युग के आगमन के साथ समाप्त हुआ। पाषाण युग को तीन अलग-अलग अवधियों में विभाजित किया गया है: पुरापाषाण काल या पुराना पाषाण युग (30,000 ईसा पूर्व-10,000 ईसा पूर्व), मध्य पाषाण काल या मध्य पाषाण युग (10,000 ईसा पूर्व-8,000 ईसा पूर्व), और नवपाषाण काल या नया पाषाण युग (8,000 ईसा पूर्व) ईसा पूर्व – 3,000 ईसा पूर्व)। पाषाण युग की कला लेखन के आविष्कार से पहले मानव रचनात्मकता में पहली उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करती है।

पार्श्विका कला: रॉक आश्रयों और गुफाओं के आंतरिक भाग पर पेंटिंग, भित्ति चित्र, चित्र, नक़्क़ाशी, नक्काशी और पेक्ड कलाकृति; गुफा कला के रूप में भी जाना जाता है।
प्रागितिहास: दर्ज इतिहास से पहले की अवधि; मानव अस्तित्व और लेखन के आविष्कार से पहले के सभी समय।
घुमंतू: लोगों के समुदाय का एक सदस्य जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थायी रूप से बसने के बजाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है।

पुरापाषाण काल

रॉबर्ट ब्रूस फूट ने 1863 ई. में भारत की प्रथम पुरापाषाणकालीन संस्कृति की खोज की। मानव की आरम्भिक गतिविधियाँ पुरापाषाण काल में अभिव्यक्त होने लगती हैं। इस काल में मानव अपने जीविकोपार्जन के लिए शिकार और खाद्य संग्रह पर निर्भर था। पुरापाषाण काल में शुतुरमुर्ग के अवशेष पटने (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए हैं। मानव सामान्यतः पहाड़ की गुफा तथा खुले आकाश के नीचे रहता था।

इस काल से सम्बन्धित स्थलों की सूचना सम्पूर्ण भारतीय महाद्वीप से मिलती है; केवल गंगा और सिन्धु के मैदान इसके अपवाद हैं। पुरापाषाण काल के मानव सम्भवतः ‘नीग्रेटो’ प्रजाति के थे। पुरापाषाण काल पुरास्थलों से प्राप्त पत्थर के औजारों के महत्त्व से को बताता है। मानव द्वारा बनाया जाने वाला प्रथम औजार कुल्हाड़ी था। तकनीकी विकास तथा जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर पुरापाषाण काल को निम्न, मध्य एवं उच्च पुरापाषाण काल में विभाजित किया गया है।

निम्न पुरापाषाण काल

इस काल का अधिकांश भाग ठण्डी जलवायु से सम्बद्ध था तथा क्रोड उपकरणों की प्रधानता थी। हस्त कुठार, खण्डक तथा विदारिणी इस काल के मुख्य उपकरण थे, जो क्वार्जाइट पत्थरों से बनाए जाते थे। सोहन घाटी, बेलन घाटी, आदमगढ़, भीमबेटका, नेवासा आदि इस काल के महत्त्वपूर्ण स्थल थे।

मध्य पुरापाषाण काल

इस काल में मानव जीवन अस्थिर था, लेकिन उपकरण पहले की अपेक्षा सुन्दर, छोटे एवं पैने बनने लगे थे। इस काल में उद्योग मुख्यतः पत्थर की पपड़ी से बनी वस्तुओं का था। पपड़ियों के बने विविध प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी और खुरचनी इस काल के मुख्य औजार थे। क्वार्जाइट के साथ-साथ चर्ट एवं जैस्पर प्रमुख कच्चा माल था। नेवासा इस काल की संस्कृति का प्रारूप स्थल था। डीडवाना, भीमबेटका, नर्मदा घाटी इत्यादि अन्य प्रमुख स्थल थे। इसे फलक संस्कृति भी कहा जाता है।

उच्च पुरापाषाण काल

इस काल में जलवायु शुष्क हो गई। यह काल आधुनिक मानव अर्थात् होमो सेपियन्स के अस्तित्व का युग था। इस काल के उपकरणों में तक्षणी एवं खुरचनी के अलावा अस्थि के उपकरणों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई। उपकरण बनाने की मुख्य सामग्री लम्बे स्थूल प्रस्तर फलक होते थे।

इस काल में मानव रहने के लिए शैलाश्रयों का प्रयोग करने लगा। साथ ही, नक्काशी एवं चित्रकारी दोनों रूप में कला का विकास हुआ। बेलन घाटी, छोटानागपुर पठार, मध्य भारत, कुर्नूल, चित्तूर, गुजरात इत्यादि इस काल के प्रमुख स्थल थे।

मध्यपाषाण काल

यह काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल का संक्रमण काल है। लोग शिकार करके, मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुएँ बटोरकर पेट भरते थे। इस काल में पाषाण के औजार आमतौर पर बहुत छोटे होते थे, जिन्हें माइक्रोलिथ यानी लघुपाषाण कहा जाता है। प्रायः इन औजारों में हड्डियों या लकड़ियों के मुढे लगे हँसिया और आरी जैसे औजार मिलते. थे। साथ ही पुरापाषाण काल के औजार भी बनाए जाते रहे। ब्लेड, नुकीले क्रोड, त्रिकोण, नवचन्द्राकार आदि अन्य प्रमुख उपकरण थे।

सर्वप्रथम तीर-कमान का विकास इसी काल में हुआ। पशुपालन का प्रारम्भिक साक्ष्य इसी काल में मध्य प्रदेश के आदमगढ़ तथा राजस्थान के बागोर से प्राप्त होता है। मानव द्वारा पालतू बनाया गया पहला पशु कुत्ता था। स्थायी निवास का प्रारम्भिक साक्ष्य सराय नाहर राय एवं महदहा से स्तम्भगर्त के रूप में मिलता है। मातृदेवी की उपासना तथा शवाधान पद्धति का विकास सम्भवतः इसी काल में प्रारम्भ हुआ। भीमबेटका से चित्रकारी के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इस काल के गुफाचित्रों में हिरण की आकृति सबसे ज्यादा देखने को मिलती है।

नवपाषाण काल

नवपाषाण काल के लिए नियोलिथिक (Neolithic) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सर जॉन लुबाक ने 1865 ई. में किया था। सर्वप्रथम 1860 ई. में ली मेसुरिचर ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टोंस नदी की घाटी से प्राप्त किया। इस काल के निवासी सबसे पुराने कृषक समुदाय के थे। वे मिट्टी और सरकण्डे के बने गोलाकार या आयताकार घरों में रहते थे।

सर्वप्रथम मानव इस काल में शिकार एवं खाद्य संग्राहक से खाद्य उत्पादक की स्थिति में पहुँचा। मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त अनाज जौ था। उत्तर-पश्चिम के सुलेमान एवं किरथर पहाड़ी क्षेत्र में बोलन दर्रे के पास मेहरगढ़ एक हरा-भरा समतल स्थान है। यहाँ के स्त्री-पुरुषों ने सबसे पहले जौ, गेहूँ उगाना और भेड़-बकरी पालना सीखा। यहाँ से हिरण, सूअर, भेड़ तथा बकरियों की हड्डियाँ मिली हैं।

यहां से मृतक चौकोर तथा आयताकार घरों में चार या उससे ज्यादा कमरे हैं। मेहरगढ़ से एक ऐसी कब्र मिली है, जहाँ के साथ एक बकरी को भी दफनाया गया था। बुर्जहोम एवं गुफ्कराल कश्मीर के दो महत्त्वपूर्ण नवपाषाणकालीन स्थल हैं। बुर्जहोम में गर्त निवास का साक्ष्य मिलता है, जहाँ कब्रों में पालतू कुत्ते भी मालिकों के शवों के साथ दफनाए जाते थे। चिराँद (बिहार) से हड्डी के अनेक उपकरण पाए गए हैं, जो हिरण के सींगों के हैं। पिक्लीहल (कर्नाटक) से राख के ढेर एवं निवास स्थल दोनों मिले हैं।

कुम्भकारी (मृद्भाण्ड) का नियमित रूप से प्रचलन इसी काल में हुआ। कोल्डिहवा से चावल एवं चौपानीमाण्डा से मृद्भाण्ड का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है। नवपाषाण काल में ओखली और मूसल का प्रयोग किया जाता था। ब्रह्मपुत्र घाटी में दाओजली नामक पुरास्थल से खरल एवं मूसल के अलावा जेडाइट पत्थर भी मिला है।

ताम्रपाषाण काल

नवपाषाण युग का अन्त होते होते धातुओं का इस्तेमाल शुरू हो गया। धातुओं में सबसे पहले ताँबे का प्रयोग हुआ। कई संस्कृतियों का जन्म पत्थर और ताँबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग करने के कारण हुआ, जिन्हें ताम्रपाषाणिक संस्कृति कहा जाता है। इस काल के लोग गेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे। ये सभी अनाज नवदाटोली (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए हैं। नवदाटोली (महाराष्ट्र) ताम्रपाषाणिक स्थलों में सबसे बड़ा उत्खनित ग्रामीण स्थल है, जहाँ से सर्वाधिक फसल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। नवदाटोली का उत्खनन एच डी संकालिया ने किया था। इस काल में जुलाहे, कुम्भकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और मिट्टी के खिलौने (टेराकोटा) बनाने वाले कारीगर मौजूद थे। लोग मातृदेवी की पूजा करते थे तथा वृषभ धार्मिक सम्प्रदाय का प्रतीक था। चित्रित मृद्भाण्डों का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्रपाषाणिक लोगों ने ही किया।

प्रमुख ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ निम्नलिखित थीं

मालवा संस्कृति (1700 से 1200 ई. पू.)

जोरवे संस्कृति (1400 से 700 ई. पू.)

आहड़ संस्कृति (2100 से 800 ई. पू.)

कायथा संस्कृति (2100 से 1800 ई. पू.)

मालवा संस्कृति

(1700 से 1200 ई. पू.) की एक विलक्षणता है मालवा मृदभाण्ड, जो ताम्र पाषाणिक मृद्भाण्डों में उत्कृष्टतम माना गया है। ।

जोरवे संस्कृति

जोरवे संस्कृति (1400 से 700 ई. पू.) ग्रामीण थी, फिर भी इसकी कई बस्तियाँ; जैसेदैमाबाद और इनामगाँव में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी। जोरवे स्थलों में सबसे बड़ा दैमाबाद है। इनामगाँव एक बड़ी बस्ती थी, जो किलाबन्द एवं खाई से घिरी हुई थी। जोरवे संस्कृति के अन्तर्गत एक पाँच कमरों वाले मकान का अवशेष मिला है।

आहड़ संस्कृति

आहड़ संस्कृति (2100 से 1800 ई. पू.) का प्राचीन नाम ताम्बवती है। गिलुन्द इस संस्कृति का स्थानीय केन्द्र था। आहड़ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे। बनास घाटी में स्थित आहड़ से सपाट कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ तथा कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। ये सभी ताँबे से निर्मित उपकरण थे।

कायथा संस्कृति 

कायथा संस्कृति (2100 से 1800 ई. पू.) से स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमे पाए गए हैं। मालवा से मिले चरखे और तकलियाँ, महाराष्ट्र में मिले सूत एवं रेशम के धागे तथा कायथ से मनके के हार के आधार पर कहा जा सकता है कि ताम्रपाषाण काल में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे।

मालवा, जोरवे, अहाड़ एवं कायथा के अतिरिक्त कुछ अन्य ताम्र पाषाणिक संस्कृतियाँ निम्न थीं

रंगपुर संस्कृति (1500 से 1200 ई. पू.)

प्रभास संस्कृति (1800 से 1200 ई. पू.)

सावल्द संस्कृति (2100 से 1800 ई. पू.)

महापाषाण संस्कृति

महापाषाण पत्थर की कब्रे होती थीं, जिनमें लोगों को दफनाया जाता था। दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत तथा कश्मीर में यह प्रथा प्रचलित थी। कुछ कळे जमीन के ऊपर तथा कुछ जमीन के नीचे होती थीं। काले एवं लाल मृद्भाण्ड भी कब्रों से प्राप्त हुए हैं। शवों को जंगली जानवरों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता था; तत्पश्चात् शेष अस्थियों को चुनकर उनका समाधिकरण किया जाता था। ब्रह्मगिरि, आदिचन्नलूर, मास्की, पुदुको, चिंगलपुट इत्यादि से महापाषाणकालीन समाधियों के अवशेष मिले हैं।

पाषाणकालीन संस्कृति एवं विशेषताएँ

कालसंस्कृति के लक्षण मुख्य स्थलमहत्त्व, उपकरण एवं विशेषताएँ
 निम्न पुरापाषाण कालशल्क, गंडासा, खण्डक उपकरण संस्कृति  पंजाब, कश्मीर, सोहन घाटी, सिंगरौली घाटी, छोटानागपुर, नर्मदा  घाटी, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश हस्त कुठार एवं वटिकाश्म उपकरण।
 मध्य पुरापाषाण कालफलक संस्कृति नेवासा (महाराष्ट्र), डीडवाना (राजस्थान), नर्मदा घाटी, भीमबेटका (मध्य प्रदेश), बांकुड़ा, पुरुलिया (पश्चिम बंगाल)फलक, बेधनी, खुरचनी आदि मुख्य औजारों की प्राप्ति।
उच्च पुरापाषाण कालअस्थि, खुरचनी एवं तक्षणी संस्कृतिबेलन घाटी, छोटानागपुर पठार, मध्य भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेशप्रारम्भिक होमो सेपियन्स मानव का काल, हार्पून, फलक एवं हड्डी के उपकरण प्राप्त।
मध्यपाषाण काल सूक्ष्म पाषाण संस्कृतिआदमगढ़, भीमबेटका (मध्य प्रदेश), बागौर (राजस्थान), सराय नाहर राय (उत्तर प्रदेश)सूक्ष्मपाषाण उपकरण बनाने की तकनीक का विकास, अर्द्धचन्द्राकार उपकरण, चित्रकला का साक्ष्य, पशुपालन।
नवपाषाण कालपॉलिश्ड उपकरण संस्कृतिबुर्जहोम और गुफ्कराल (कश्मीर), लंघनाज (गुजरात), दमदमा, कोल्डिहवा (उत्तर प्रदेश), चिराँद (बिहार), पैयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मगिरी, मास्की (कर्नाटक)प्रारम्भिक कृषि संस्कृति, कपड़ा बुनना, भोजन पकाना, मृद्भाण्ड  निर्माण, मनुष्य स्थायी निवासी बना,  पाषाण उपकरणों की पॉलिश शुरू, पहिया, अग्नि का प्रचलन।

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