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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन : तृतीय चरण (वर्ष 1935-1947)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन : तृतीय चरण (वर्ष 1935-1947) 1937 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के स्थगन के पश्चात् कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रीय आन्दोलन की आगामी रणनीति पर विमर्श हो रहा था कि ब्रिटिश सरकार ने 1935 का अधिनियम पारित कर दिया। इस अधिनियम से राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व असन्तुष्ट ही रहा। इस अधिनियम के तहत वर्ष हुए प्रान्तीय विधान सभा चुनावों में कांग्रेस ने अनेक प्रान्तों में अपने मन्त्रिमण्डल गठित किए, किन्तु वर्ष 1939 में बिना भारतीयों की सहमति से ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी द्वितीय विश्वयुद्ध घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिए, जिसके साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन के निर्णायक चरण की शुरुआत हो गई।

1935 का अधिनियम (एक्ट)

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार शीघ्र ही जनता के असन्तोष का कारण बन गया, जिसके कारण देश में संवैधानिक सुधारों के लिए प्रदर्शन हुए। प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन पर बल दिया गया। गोलमेज सम्मेलन के समाप्त होने पर राज्य सचिव ने जिन तीन बातों की पुष्टि की थी, उस पर ब्रिटिश सरकार द्वारा एक श्वेत पत्र प्रस्ताव लाया गया। इस प्रस्ताव में नवीनतम संविधान के प्रस्तावों को लेखबद्ध किया गया। इस प्रस्ताव पर विचार हेतु एक प्रवर समिति स्थापित की गई, जिसके अध्यक्ष लार्ड लिनलिथगो थे। इस समिति की रिपोर्ट के पश्चात् 2 अगस्त, 1935 को कानूनी रूप में परिणित किया गया।

1935 का एक्ट और प्रान्तीय सरकारें

1935 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को प्रान्तीय शासन का अधिकार मिल गया। कुछ प्रारम्भिक आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया। वर्ष 1936 के प्रारम्भ में लखनऊ तथा आखिरी महीने में फैजपुर में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान चुनाव में भाग लेने का निर्णय किया गया। सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल पर चुनाव के बाद विचार करने तथा बाद में काउन्सिल में प्रवेश का निर्णय लिया गया।

कांग्रेस का चुनावी घोषणा-पत्र

कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित थे

  • 1935 के भारत शासन अधिनियम को नकारना।
  • नागरिक स्वतन्त्रता की बहाली।
  • राजनीतिक बन्दियों की रिहाई।
  • कृषि ढाँचे में व्यापक परिवर्तन।
  • भू-राजस्व एवं लगान में उचित कमी
  • किसानों को कर्ज से राहत।
  • मजदूरों को हड़ताल, विरोध तथा संगठन बनाने का अधिकार।

1935 के अधिनियम के तहत वर्ष 1937 में प्रान्तीय चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस ने भाग लिया। 11 प्रान्तों-मद्रास, मध्य प्रान्त, बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रान्त, बम्बई, असम, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त, बंगाल, पंजाब एवं सिन्ध में चुनाव हुए। कांग्रेस ने 1161 सीटों में से 716 सीटों पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने 5 प्रान्तों-मद्रास, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त, बिहार, उड़ीसा में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। बम्बई, असम, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। केवल बंगाल, पंजाब तथा सिन्ध में ही कांग्रेस बहुमत से वंचित रह गई।

प्रान्तों में बनी सरकारें

प्रान्त दल नेतृत्व (प्रधानमन्त्री)
बंगालकृषक प्रजा पार्टी-मुस्लिम लीगफजलुल हक
पंजाबयूनियनिस्ट पार्टी-मुस्लिम लीगसिकन्दर हयात खाँ
सिन्धसिन्ध यूनाइटेड पार्टीगुलाम हुसैन हिदायतुल्ला एवं अल्लाबखा
बिहारभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसश्रीकृष्ण सिंह
संयुक्त प्रान्तभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसगोविन्द बल्लभ पन्त
बम्बईभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसबाल गंगाधर खेर
 मध्य प्रान्तभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसनारायण भास्कर खरे
उत्तर-पश्चिमी प्रान्तभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसडॉ.खान साहब
असमभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसगोपीनाथ बारदोलाई (सादुल्लाह के इस्तीफे के बाद)
मद्रासभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेससी राजगोपालाचारी
उड़ीसाभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसविश्वनाथदास

482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस ने 58 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से उसे 26 पर विजय प्राप्त हुई। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हुआ सिवाय बम्बई के, जहाँ पर भीमराव अम्बेडकर की इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी ने हरिजनों के लिए आरक्षित 15 में से 13 सीटें जीत लीं। पंजाब में मुस्लिम लीग तथा यूनियनिस्ट पार्टी ने संयुक्त सरकार बनाई। बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी तथा मुस्लिम लीग ने संयुक्त सरकार बनाई। कांग्रेस यहाँ सबसे बड़ी पार्टी थी। सिन्ध में सिन्ध यूनाइटेड पार्टी ने कांग्रेस की सहायता से संयुक्त सरकार का गठन किया। कांग्रेस ने कुल आठ राज्यों में सरकारें बनाईं। इस समय मुख्यमन्त्री को प्रधानमन्त्री के नाम से जाना जाता था।

कांग्रेस सरकारों का कार्यकाल (वर्ष 1937-1939)

वर्ष 1937 के चुनाव में कांग्रेस ने कुल आठ राज्यों में सरकार बनाई। प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक केन्द्रीय नियन्त्रण परिषद् गठित की गई, जिसे संसदीय उपसमिति नाम दिया गया। इसके सदस्य वल्लभ भाई पटेल, अबुल कलाम आजाद, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे। कांग्रेस सरकारों ने अपने 28 माह के संक्षिप्त शासनकाल में यह प्रमाणित कर दिया कि वह केवल जनसंघर्षों के लिए ही जनता का नेतृत्व नहीं कर सकती है, बल्कि उनके हित में राजसत्ता का उपयोग भी कर सकती है। कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान अपने घोषणा-पत्र में किए गए वायदे को निभाने का प्रयत्न किया।

कांग्रेस द्वारा किए गए कुछ प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे

  •  नागरिक स्वतन्त्रता को बढ़ावा देते हुए वर्ष 1932 के जनसुरक्षा अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तीय सरकार को जो अधिकार मिला था, उसे रद्द कर दिया।
  • प्रेस पर लगाए गए प्रतिबन्धों को समा कर दिया।
  • गाँधीजी के आग्रह पर मन्त्रियों ने वेतन पर ₹ 500 प्रतिमाह की सीमा लगा दी।
  • लगभग सभी राजनैतिक बन्दी रिहा कर दिए गए। उनके राजनैतिक संगठनों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया गया।
  • बम्बई में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान जब्त की गई भूमि, किसानों को वापस कर दी गई। पुलिस के अधिकारों में कटौती कर दी गई। पुलिस द्वारा जनता के बीच दिए गए व्याख्यान को दर्ज करने तथा गुप्तचर पुलिस द्वारा राजनैतिक कार्यकर्ताओं का पीछा किए जाने पर रोक लगाई गई।
  • किसानों एवं मजदूरों की भलाई के लिए अनेक कदम उठाए गए।
  •  काश्तकारी कानून लागू किया गया, जिसका उद्देश्य बेदखली के खिलाफ निश्चित सीमा तक सुरक्षा देना था।
  • मजदूरों की हालत सुधारने तथा वेतन वृद्धि का प्रयास किया।
  • बम्बई की सरकार ने वर्ष 1937 में एक कपड़ा जाँच समिति नियुक्त की।
  • बम्बई सरकार ने हड़ताल एवं तालाबन्दी रोकने के लिए मध्यस्थता के सिद्धान्तों के आधार पर नवम्बर, 1938 में औद्योगिक विवाद अधिनियम भी पेश किया।
  • कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में वर्ष 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति नियुक्त की थी, जिसके माध्यम से कांग्रेस सरकार ने योजना के विकास में हाथ बँटाने का प्रयास किया।

कांग्रेस सरकारों का इस्तीफा

राजनीतिक कैदियों की रिहाई के मुद्दे पर बिहार एवं संयुक्त प्रान्त के मन्त्रिमण्डल ने फरवरी, 1938 में त्याग-पत्र दे दिया था, लेकिन अन्ततः गवर्नर के राजी हो जाने पर उन्होंने त्याग-पत्र वापस ले लिया। प्रान्तों में कांग्रेस सरकार के समूचे कार्यकाल में मुस्लिम लीग उसके विरुद्ध प्रचार अभियान चलाती रही, जिसका उत्कर्ष ‘पोरपुर रिपोर्ट’ (1938), बिहार पर ‘शरीफ रिपोर्ट’ (मार्च, 1939) तथा फजलुल हक की ‘मुस्लिम सफरिंग अण्डर कांग्रेस रूल रिपोर्ट’ (दिसम्बर, 1938) में देखने को मिलता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को बिना सहमति शामिल करने के मुद्दे पर कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने 29-30 अक्टूबर, 1939 को इस्तीफा दे दिया। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस द्वारा त्याग पत्र दिए जाने पर 22 दिसम्बर, 1939 को इसे मुक्ति दिवस के रूप में मनाया, जिसमें भीमराव अम्बेडकर ने भी उनका साथ दिया।

कांग्रेस का त्रिपुरी संकट (1939 ई.)

उन्होंने चुनाव वर्ष 1938 में सुभाषचन्द्र बोस हरिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। वर्ष 1939 में त्रिपुरी में प्रस्तावित अधिवेशन के लिए में पुनः खड़े होने का निर्णय लिया। सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी आदि ने उनके लिए निर्णय का विरोध किया तथा पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित किया। सीतारमैया को गाँधीजी का भी समर्थन प्राप्त था। सीतारमैया से पूर्व मौलाना आजाद को नामित किया गया पर उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया।

चुनाव में बोस ने 1377 के मुकाबले 1580 मत पाकर जीत दर्ज की। उनकी इस जीत पर गाँधीजी ने कहा कि “यह सीतारमैया से अधिक मेरी हार है।” बोस के अध्यक्ष बनने पर कांग्रेस का आन्तरिक कलह सतह पर आ गया। वर्किंग कमेटी के 15 में से 13 सदस्यों ने त्याग-पत्र दे दिया। अन्ततः बोस ने अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देकर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। कांग्रेस ने सुभाषचन्द्र बोस के स्थान पर राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष मनोनीत किया। हरिपुरा अधिवेशन के समय ही सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना की थी। इस समिति के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू तथा सदस्यों में बिड़ला, माला श्री विश्वेश्वरैया शामिल थे।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई, 1939 को सुभाषचन्द्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागृति शुरू की। इसलिए सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस सहित सभी नेताओ को बन्दी बना लिया। सुभाषचन्द्र बोस ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर उनके ही घर में नजरबन्द कर दिया।

सुभाषचन्द्र बोस का पलायन

सुभाषचन्द्र बोस 16 जनवरी, 1941 को मोहम्मद जियाउद्दीन के नाम से एक पठान का वेश धारण कर घर से भाग निकले। इसमें उनकी मदद शरद बाबू के बेटे शिशिर ने की तथा उन्हें कलकत्ता से दूर अपनी गाड़ी में गोमो तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियाँ अकबर शाह मिले, जिन्होंने सुभाष बाबू की मुलाकात कीर्ति किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करवाई। भगतराम तलवार के साथ वह काबुल पहुँचे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमत खान नाम के पठान बने थे तथा सुभाष बाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। काबुल में दो महीने तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक व्यापारी के घर में रहे। इटालियन दूतावास की सहायता से ओर्लादो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर काबुल से रेलवे के माध्यम से रूस होकर जर्मनी पहुँचे जहाँ उनकी मुलाकात हिटलर से हुई, लेकिन हिटलर ने उन्हें किसी स्पष्ट सहायता का वचन नहीं दिया। जर्मनी में बर्लिन रेडियो से सुभाष बाबू ने भारत समर्थक तथा अंग्रेज विरोधी भाषण प्रसारित किए। जर्मनी में ही उन्हें सर्वप्रथम नेताजी कहकर सम्बोधित किया गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध एवं राष्ट्रीय आन्दोलन

1 सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया, सितम्बर को ब्रिटेन भी इसमें शामिल हो गया। 5 सितम्बर को ब्रिटेन ने भारत को युद्धरत राष्ट्र घोषित कर दिया। भारतीय नेताओं को खासकर कांग्रेस का नेतृत्व करने वालों को इस बात पर गहरी आपत्ति थी। कांग्रेस ने युद्ध में सहयोग एवं समर्थन के लिए दो शर्ते रखीं

  1. युद्ध के पश्चात् संविधान सभा की बैठक आहूत की जानी चाहिए, जो स्वतन्त्र भारत की राजनैतिक संरचना पर विचार करेगी।
  2. अतिशीघ्र केन्द्र में किसी वास्तविक एवं उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाए।

वायसराय लिनलिथगो ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। 10 से 14 सितम्बर, 1939 में कांग्रेस कार्य समिति की वर्धा में बैठक हुई। इसमें विभिन्न नेताओं के भिन्न-भिन्न विचार थे। गाँधीजी ने कहा कि भारत को ब्रिटेन की बर्बादी की कीमत पर स्वतन्त्रता नहीं चाहिए। यह अहिंसा का रास्ता नहीं है। पश्चिमी यूरोप के लोकतान्त्रिक राष्ट्रों तथा जर्मनी के हिटलर के नेतृत्व में स्पष्ट अन्तर है। नेहरू भी फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध ब्रिटेन का समर्थन करना चाहते थे।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया

सुभाषचन्द्र बोस ने युद्ध में सहयोग की नीति का विरोध करते हुए कहा कि ब्रिटेन पर आया यह संकट भारत को आजादी दिलाने का दुर्लभ अवसर है। सरकार ने ब्रिटेन के युद्ध पर इससे अधिक कुछ नहीं कहा कि ब्रिटेन भेदभावपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध कर रहा है। सरकार ने भविष्य के लिए यह वायदा किया कि युद्धोपरान्त सरकार भारत के कई दलों, समुदायों और हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों तथा भारतीय राजाओं से इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करेगी कि वर्ष 1935 के भारत सरकार अधिनियम में किस प्रकार के संशोधन किए जाएँ। इसके अलावा सरकार ने आवश्यकता पड़ने पर एक परामर्श समिति गठित करने की बात भी कही। 23 अक्टूबर, 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में वायसराय के वक्तव्य को सरकार की साम्राज्यवादी नीति का हिस्सा बताकर अस्वीकार कर दिया गया। इस सम्मेलन में युद्ध का समर्थन न करने का निर्णय लिया गया तथा कांग्रेस की प्रान्तीय सरकारों को त्याग-पत्र देने का आदेश दिया गया।

अगस्त प्रस्ताव (8 अगस्त, 1940)  

कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों के त्याग-पत्र के पश्चात् कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मार्च, 1940 में मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में रामगढ़ में हुआ। इसमें यह कहा गया कि ब्रिटिश सरकार इस शर्त पर सहयोग करेगी कि केन्द्र में अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार गठित की जाए। कांग्रेस के इस प्रस्ताव के प्रत्युत्तर वायसराय लिनलिथगो ने कांग्रेस का सहयोग प्राप्त करने के लिए एक प्रस्ताव रखा, जिसे अगस्त प्रस्ताव कहा जाता है।

अगस्त प्रस्ताव के मुख्य बिन्दु

अगस्त प्रस्ताव के मुख्य बिन्दु निम्न थे

  • युद्ध के बाद प्रतिनिधि मूलक संविधान निर्मात्री संस्था का गठन।
  • वर्तमान में वायसराय की कार्यकारिणी की संख्या में
  • अतिशीघ्र वृद्धि।
  • एक युद्ध सलाहकार परिषद् का गठन।
  • अल्पसंख्यकों को बिना विश्वास में लिए किसी भी संवैधानिक परिवर्तन को लागू नहीं किया जाएगा।
  • भारत के लिए डोमिनियन स्टेट्स मुख्य लक्ष्य।

कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया जवाहरलाल नेहरू ने डोमिनियन स्टेट के दर्जे की बात पर कहा “यह दरवाजे में जड़ी जंग लगी कील के तरह है।” अगस्त घोषणा के पश्चात् वायसराय के कार्यकारिणी में सदस्यों की संख्या 7 से बढ़ाकर 12 कर दी गई, इसमें 4 ब्रिटिश तथा 8 भारतीय थे। पूर्व में भारतीयों की संख्या 3 थी। गाँवों की ओर चल देते और अपना सन्देश फैलाते दिल्ली की ओर बढ़ने की कोशिश करते; इस वजह से इस आन्दोलन को ‘दिल्ली चलो आन्दोलन भी कहा गया है।

क्रिप्स मिशन (वर्ष 1942)

भारत के राजनैतिक गतिरोध को दूर करने के उद्देश्य से ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विन्सटन चर्चिल ने ब्रिटिश संसद सदस्य तथा मजदूर नेता सर स्टेफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में 22 मार्च, 1942 में एक मिशन भारत भेजा। में क्रिप्स मिशन के मुख्य प्रस्ताव निम्नलिखित थे

  • युद्ध के बाद एक ऐसे भारतीय संघ के निर्माण का प्रयत्न किया जाएगा, जिसका स्तर अधिराज्य (डोमिनियन स्टेटस) होगा।
  • युद्ध के तत्काल बाद एक संविधान निर्मात्री सभा का गठन किया जाएगा, जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रजवाड़ों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
  • संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को सरकार दो शर्तों पर लागू कर सकेगी। (i) भारत का कोई भी प्रान्त यदि नए संविधान से सहमत नहीं है, तो उसे वर्तमान संवैधानिक स्थिति बनाए रखने का अधिकार होगा।  (ii) प्रत्येक देशी रियासत इस संविधान का अनुपालन करने या इसे अस्वीकार करने के लिए स्वतन्त्र होगी।
  • नए भारतीय संविधान का निर्माण होने तक भारत की रक्षा का उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार पर होगा।

क्रिप्स प्रस्ताव पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया

कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने क्रिप्स प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। गाँधीजी ने क्रिप्स प्रस्ताव को उत्तरतिथिय चेक (Post-dated Cheque) कहा। जवाहरलाल नेहरू ने इसके आगे ‘ऐसा बैंक जो टूट रहा है’ (दिवालिया बैंक) जोड़ दिया। नेहरू ने कहा कि उनके पुराने मित्र क्रिप्स शैतान के वकील बनकर आए थे और उनकी योजना के क्रियान्वयन का परिणाम देश के अनगिनत विभाजनों की सम्भावना के दरवाजे खोल देना होगा।

मुस्लिम लीग ने दो आधारों पर इसे अस्वीकार किया-पृथक् निर्वाचनमण्डल को मान्यता नहीं दी गई थी तथा भारत विभाजन की माँग को स्वीकार नहीं किया गया था। क्रिप्स प्रस्ताव ने अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके प्रस्ताव की एक धारा को लोकल ऑप्शन (स्थानीय विकल्प) के रूप में जाना जाता है। इसके अनुसार प्रान्तों को यह अधिकार दिया गया था कि भविष्य में वे अपनी स्थिति निर्धारित करने के लिए ब्रिटेन से सीधा समझौता कर सकते हैं तथा भविष्य में बनने वाले नए संविधान को अस्वीकार भी कर सकते हैं। 29 मार्च, 1942 को क्रिप्स प्रस्तावों की घोषणा हुई थी तथा 11 अप्रैल, 1942 को इसे वापस ले लिया गया था। क्रिप्स मिशन की असफलता; जापानी आक्रमण के बढ़ते हुए खतरे तथा द्वितीय विश्वयुद्ध से सृजित बढ़ी हुई कीमतों और वस्तुओं के अभाव ने भारतीय जनमानस को असन्तोष से भर दिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन (वर्ष 1942)

गाँधीजी ने ‘हरिजन’ पत्रिका में अंग्रेजों को भारत छोड़ने की माँग करते हुए कहा “भारत को भगवान के भरोसे छोड़ दो और यदि यह असम्भव हो, तो अराजकता के भँवर में छोड़ दो।’ 7 जून, 1942 को गाँधीजी ने कहा, “हमें अपनी आजादी के लिए लड़ना होगा। आजादी आकाश से नहीं टपकेगी।”

गाँधीजी ने कांग्रेस को चुनौती दे डाली कि अगर उसने संघर्ष का उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, तो वे देश की बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा कर देंगे। परिणामस्वरूप 14 जुलाई, 1942 को वर्धा में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रस्ताव पारित किया गया।

7 अगस्त, 1942 को मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में बम्बई के ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक में अखिल भारतीय कांग्रेस की एक बैठक हुई, जिसमें वर्धा प्रस्ताव की पुष्टि कर दी गई। भारत छोड़ो प्रस्ताव को नेहरू जी ने पेश किया, जिसे थोड़े बहुत संशोधनों के साथ 8 अगस्त, 1942 को स्वीकार कर लिया गया।

प्रस्ताव में कहा गया कि “देश ने साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। अब उसे इस बिन्दु से लौटने का कोई औचित्य नहीं है। अतः समिति अहिंसक ढंग से व्यापक धरातल पर गाँधीजी के नेतृत्व में जनसंघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार करती है।” गाँधीजी ने अपने ऐतिहासिक सम्बोधन में कहा “मैं आपको एक मन्त्र देता हूँ करो या मरो’ (Do or Die), जिसका अर्थ था हम भारत को आजाद कराएँगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे।

आन्दोलन के लिए कार्यक्रम

भारत छोड़ो आन्दोलन के मुख्य कार्यक्रम निम्नलिखित थे

  • आन्दोलन को रोकने वाले सभी आदेशों का उल्लंघन।
  • नमक बनाना।
  • गैर-कानूनी सभाओं की खुल्लम-खुल्ला सदस्यता।
  • वकील अपना कार्य छोड़ दें।
  •  विद्यार्थी अपने विद्यालय तथा महाविद्यालय छोड़ दें।
  • जज अदालतें छोड़ दें।
  • सरकारी कर्मचारी अपना पद त्याग दें।
  • मजदूरों की हड़ताल। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार।
  • शराब की दुकानों का बहिष्कार।
  • विदेशीमुद्रा का व्यापार में बहिष्कार।
  • कर न देना।
  • फौजों को रोकना।
  • आन्दोलनकारियों को बन्दी बनाने पर भी आन्दोलन स्थगित न करना।

विभिन्न वर्गों को कांग्रेस के निर्देश

सरकारी सेवक नौकरी न छोड़ें, लेकिन कांग्रेस के प्रति अपनी राजभक्ति घोषित कर दें।

सैनिक सेना से त्याग-पत्र न दें, लेकिन देशवासियों पर गोली न चलाएँ।

राजा-महाराजा जनता की प्रभुसत्ता स्वीकारें, उनकी रियासतों में रहने वाली जनता अपने को भारतीय राष्ट्र का अंग घोषित कर दे।

छात्र पढ़ाई तभी छोड़ें यदि स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाने तक इस पर अडिग रह सकें।

किसान यदि जमींदार सरकार समर्थक हों, तो लगान न दें। यदि सरकार विरोधी हों, तो पारस्परिक सहमति के आधार पर तय किया गया लगान अदा करें।

आन्दोलन का प्रारम्भ एवं प्रसार

9 अगस्त, 1942 को आन्दोलन शुरू होते ही में ऑपरेशन जीरो आवर के अन्तर्गत गाँधीजी, मौलाना आजाद सहित कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को में गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार करने के बाद गाँधीजी तथा सरोजिनी नायडू को आगा खाँ पैलेस में रखा गया। जवाहरलाल नेहरू, गोविन्द बल्लभ पन्त, डॉ. प्रफुल्ल चन्द्र घोष, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, डॉ. सैयद महमूद तथा आचार्य कृपलानी को अहमदनगर जेल में कैद रखा गया।

राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल में तथा जयप्रकाश नारायण को हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। बाद में जयप्रकाश नारायण जेल से भाग गए तथा आजाद दस्ता का गठन किया।

कांग्रेसी नेता 15 जून, 1945 तक बन्दीगृह में रहे। इसके साथ ही अंग्रेजी सरकार ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति, कांग्रेस कार्यकारिणी तथा प्रान्तीय कांग्रेस समिति को भी गैर-कानूनी घोषित कर दिया, जो कांग्रेसी नेता गिरफ्तार नहीं हो सके, (राम मनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली आदि), उन्होंने गुप्त रूप से जनता का नेतृत्व किया। जनता ने स्वयं नेतृत्व सँभालकर जुलूस निकाला।

आन्दोलन का प्रभाव

भारत छोड़ो आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव बंगाल, बिहार, बम्बई, उत्तर प्रदेश, मद्रास में रहा। ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र के कारण यह आन्दोलन भूमिगत हो गया। इसका नेतृत्व अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली, राम मनोहर लोहिया, सुचेता कृपलानी, छोटू भाई पुराणिक, बीजू पटनायक, आर पी गोयनका तथा जयप्रकाश नारायण ने किया।

9 अगस्त, 1942 को कांग्रेसी नेताओं के बन्दी बनाए जाने के तुरन्त बाद पहली बार कांग्रेस-रेडियो स्थापित करने का मत व्यक्त किया गया, जिससे कि लोगों को उनके इस ऐतिहासिक आन्दोलन की प्रगति के बारे में बताया जा सके। राम मनोहर लोहिया, वी एम खाकर, नादिमन अवबाद प्रिण्टर, उषा मेहता आदि ने इसकी व्यवस्था की। कांग्रेस प्रसारण स्टेशन मुख्य रूप से बम्बई एवं नासिक से कार्य कर रहा था। गुप्त कांग्रेस रेडियो का सर्वप्रथम संचालन उषा मेहता ने किया था। एक केन्द्र को बाबूभाई ने संचालित किया था।

गाँधीजी के क्रियाकलाप

आन्दोलन के प्रति सरकार की दमनात्मक नीति के विरुद्ध गाँधीजी ने आगा खाँ पैलेस में 10 फरवरी, 1943 को 21 दिन के उपवास की घोषणा की। इससे पूरे देश में आक्रोश बढ़ गया। उपवास के 13वें दिन गाँधीजी की स्थिति इतनी बिगड़ गई कि ब्रिटिश सरकार उन्हें रिहा करने के बदले उनकी मृत्यु का इन्तजार करने लगी।

गाँधीजी की रिहाई की माँग करते हुए वायसराय की कार्यपरिषद् के तीन सदस्यों एम एस अणे, एन आर सरकार, एच पी मोदी ने त्याग-पत्र दे दिया। इसी बीच सरकार को चकमा देते हुए गाँधीजी ने 7 मार्च, 1943 को उपवास तोड़ दिया। खराब स्वास्थ्य के कारण 9 मई, 1943 को उन्हें रिहा कर दिया गया। गाँधीजी की जेल से रिहाई के पूर्व ही उनकी पत्नी कस्तूरबा गाँधी और निजी सचिव महादेव देसाई की मृत्यु हो चुकी थी। गाँधीजी की रिहाई के विरोध में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विस्टन चर्चिल ने कहा था “जब दुनिया में हम हर कहीं जीत रहे हैं ऐसे समय में हम एक कमबख्त बुड्ढे के सामने कैसे झुक सकते हैं, जो हमेशा से हमारा शत्रु रहा है।” भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान कई जगहों पर समानान्तर सरकार भी बनी।

विभिन्न दलों के दृष्टिकोण

भारत में सभी दल इस आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे। कांग्रेस तथा समाजवादी दल के सदस्यों ने इसका स्वागत किया, लेकिन मुस्लिम लीग, उदारवादी साम्यवादियों (रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद) ने इसका विरोध किया।

हिन्दू महासभा ने यद्यपि सरकार की आलोचना की, लेकिन हिन्दुओं को भाग न लेने के लिए कहा। धीरे-धीरे इसका रवैया बदला। 31 अगस्त, 1942 को इसने समर्थन किया। डॉ. अम्बेडकर ने इसका विरोध किया। अकाली तथा ईसाइयों ने भी विरोध किया।

वर्ष 1942 के पश्चात् राष्ट्रीय घटनाक्रम

आजाद हिन्द फौज

आजाद हिन्द फौज के गठन का श्रेय कैप्टन मोहन सिंह को है। सिंगापुर के पतन के बाद 40,000 भारतीय सैनिकों ने अपने आपको मेजर फूजीहारा को सौंप दिया। मेजर फूजीहारा ने इन्हें कैप्टन मोहन सिंह को सौंपा। एक धार्मिक व्यक्ति प्रीतम सिंह तथा मेजर फूजीहारा ने मोहन सिंह को प्रोत्साहित किया, जिसके पश्चात् 1 सितम्बर, 1942 को आजाद हिन्द फौज की पहली डिवीजन का गठन हुआ, परन्तु मोहन सिंह की आजाद हिन्द फौज बहुत सफल नहीं हो सकी, क्योंकि जापानी अधिकारियों से सेना की संख्या के प्रश्न पर तथा इस सेना की साम्राज्य विरोधी भूमिका क्या होगी, इन प्रश्नों पर मतभेद हो गया।

इन्हीं दिनों भारत के पुराने एवं प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस जापान में थे, उन्होंने 28-30 मार्च, 1942 को टोकियो में मलाया से बर्मा तक रहने वाले सभी भारतीय नेताओं का सम्मेलन बुलाया। उसमें उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता लीग तथा आजाद हिन्द फौज बनाने की घोषणा की।

इसके बाद 14 जून से 23 जून, 1942 तक बैंकॉक में रासबिहारी बोस की अध्यक्षता में सम्मेलन हुआ, जिसे बैंकॉक सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इसी सम्मेलन में इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स लीग (भारतीय स्वतन्त्रता लीग) की विधिवत् रूप से स्थापना की गई तथा सुभाष चन्द्र बोस को पूर्वी एशिया आने का निमन्त्रण दिया गया। सुभाष चन्द्र बोस बैंकॉक सम्मेलन के निमन्त्रण को स्वीकार करते हुए 13 जून, 1943 को टोकियो पहुँचे।

जापान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री तोजो ने उनका स्वागत किया। सुभाषचन्द्र बोस ने टोकियो रेडियो के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम की घोषणा की। इस क्रम में 2 जुलाई, 1943 को सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर पहुँचे। 4 जुलाई, 1943 को रासबिहारी ने उन्हें आजाद हिन्द फौज का सर्वोच्च सेनापति बना दिया। 21 अक्टूबर, 1943 को सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया। 23 अक्टूबर, 1943 को इस सरकार ने मित्र शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 31 दिसम्बर, 1943 को सुभाषचन्द्र बोस अण्डमान पहुँचे और दोनों टापुओं (अण्डमान एवं निकोबार) का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया।

अण्डमान एवं निकोबार का नाम बदलकर शहीद एवं स्वराज द्वीप कर दिया गया। 18 मार्च, 1944 को आजाद हिन्द फौज ने भारत को आजाद कराने के उद्देश्य से बर्मा की सीमाओं को पार कर उत्तर-पूर्व भारत के क्षेत्र नागालैण्ड पर घेरा डाल दिया, जो लगभग एक वर्ष तक चला। आजाद हिन्द फौज की सेनाएँ कोहिमा तक पहुंच गईं, जहाँ उन्होंने तिरंगा झण्डा गाड़ दिया।

जुलाई, 1944 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द रेडियो के एक प्रसारण में गाँधीजी के नाम एक विशेष प्रसारण में कहा कि ‘भारत की स्वतन्त्रता का आखिरी युद्ध शुरू हो गया है। राष्ट्रपिता भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और कामना चाहते हैं।’ इसी सम्बोधन में सुभाषचन्द्र बोस ने सर्वप्रथम गाँधीजी को राष्ट्रपिता कहा था।

आजाद हिन्द फौज का नारा था-जयहिन्द और दिल्ली चलो। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का प्रसिद्ध नारा सुभाषचन्द्र बोस ने मलेशिया में आजाद हिन्द फौज को सम्बोधित करते हुए दिया था। 22 सितम्बर, 1944 को सुभाष ने शहीद दिवस मनाया।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की स्थिति खराब होने के कारण आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा। सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर से जापान की ओर भागे और कहा जाता है कि वह ताइपेई (फारमोसा) हवाई अड्डे पर एक विमान दुर्घटना में 18 अगस्त, 1945 को मारे गए। यद्यपि विमान दुर्घटना में/बोस की मृत्यु वाली घटना पर बहुत विवाद हैं। आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया।

आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा

आजाद हिन्द फौज के सैनिकों एवं अधिकारियों को गिरफ्तार कर ब्रिटिश सरकार ने नवम्बर, 1945 में दिल्ली के लाल किले में उन पर मुकदमा चलाया। इस मुकदमे में तीन मुख्य अभियुक्त थे-मेजर शाहनवाज खान, कर्नल प्रेम सहगल एवं कर्नल गुरुदयाल सिंह ढिल्लो। इन पर चलाए गए मुकदमे से सम्पूर्ण राष्ट्र में विद्रोह की भावना भड़क उठी और ये तीनों देश के विभिन्न सम्प्रदायों की सांकेतिक एकता के प्रतीक बन गए। भारत के विभिन्न दलों-कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अकाली दल तथा कम्युनिस्ट पार्टी ने भी इसका विरोध किया और इनकी रिहाई की माँग की।

आजाद हिन्द फौज के बचाव के लिए एक बचाव समिति का गठन किया गया। इस समिति में प्रमुख वकील भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सप्रू, आसफ अली, कैलाश नाथ काटजू, जवाहरलाल नेहरू थे। सरकार ने तीनों अभियुक्तों को फाँसी की सजा सुनाई। इस निर्णय के विरोध में पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। अन्त में विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मृत्युदण्ड की सजा को माफ कर दिया।

वेवेल योजना (वर्ष 1945)

वर्ष 1945 में ब्रिटेन में एटली की सरकार आई और वायसराय लिनलिथगो की जगह वेवेल भारत के वायसराय बनकर आए। मई, 1945 तक सारे राजनीतिक नेता जेल से रिहा कर दिए गए। 14 जून, 1945 को वेवेल ने एक योजना प्रस्तुत की, जिसमें निम्नलिखित बातें थीं

  • केन्द्र में नई कार्य परिषद् का गठन किया जाएगा। परिषद् में वायसराय तथा सैन्य प्रमुख के अतिरिक्त शेष सभी भारतीय होंगे। प्रतिरक्षा विभाग वायसराय के अधीन होगा।
  • कार्यकारिणी में मुसलमानों की संख्या सवर्ण हिन्दुओं के बराबर होगी।
  • कार्यकारिणी परिषद् एक अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार के समान होगी। गवर्नर-जनरल बिना कारण निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं करेगा।
  • सभी राजनैतिक दलों की एक सम्मिलित सभा बुलाई जाएगी, ताकि कार्यकारिणी की नियुक्ति के लिए एक सर्वसम्मत सूची प्रस्तुत की जा सके।

वेवेल प्रस्ताव पर विचार-विमर्श के लिए 25 जून, 1945 को शिमला सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग को बराबरी का दर्जा दिया गया। शिमला सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया। जिन्ना की मांग थी कि वायसराय की परिषद् के सभी मुस्लिम सदस्य लीग से लिए जाएँ, क्योंकि लीग ही मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि हैं।

जिन्ना की यही माँग शिमला सम्मेलन की असफलता का कारण बनी। शिमला सम्मेलन में वेवेल ने लीग को अधिक सन्तुष्ट करने की नीति का पालन कर मुसलमानों को एक ऐसी ‘वीटो शक्ति’ सौंप दी, जिसका वह किसी भी संवैधानिक प्रस्तावों के विरुद्ध प्रयोग कर सकती थी। वीटो का अधिकार जो मुस्लिम लीग को शिमला सम्मेलन में दिया गया था, वह यह था कि यदि मुसलमानों को किसी प्रस्ताव पर आपत्ति है, तो ऐसे प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित होने पर स्वीकार किए जाएँ।

ब्रेक डाउन प्लान वेवेल ने बनाया था, जिसके तहत , प्रस्ताव किया गया था कि दमन और पलायन के बीच का मध्यम मार्ग अपनाया जाए, जिसके अनुसार ब्रिटिश सेना और अधिकारियों को पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भेज दिया जाए और शेष भारत कांग्रेस को सौंप दिया जाए।

भारत में आम चुनाव (वर्ष 1945-46)

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ब्रिटेन में हुए सत्ता परिवर्तन के फलस्वरूप लेबर पार्टी की एटली की सरकार बनी, इसने भारत में आम चुनाव कराने की घोषणा की। दिसम्बर, 1945 में चुनाव परिणाम घोषित किए गए। केन्द्रीय विधानसभा तथा प्रान्तीय विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ। केन्द्रीय विधानसभा में कांग्रेस को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में 91.3% मत मिले। प्रान्तीय विधानमण्डल में कांग्रेस को बम्बई, मद्रास, संयुक्त प्रान्त, बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रान्त में पूर्ण बहुमत मिला। कुल 11 प्रान्तों में से 8 प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी।

उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में कांग्रेस ने 30 सीटें जीतीं, इसमें 19 मुस्लिम सीटें भी थीं। केन्द्रीय विधायिका में कांग्रेस को 102 में से 57 सीटें मिली। प्रान्तों में कांग्रेस को वर्ष 1937 में जहाँ 14 सीटें मिली थी, वहीं वर्ष 1946 में 923 सीटें मिली। केन्द्रीय विधानसभा में मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम सीटें जीत ली। बंगाल तथा सिन्ध में मुस्लिम लीग को पूर्ण बहुमत मिला। उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में लीग को केवल 17 सीट मिली। पंजाब में मुस्लिम लीग सबसे बड़े दल के रूप में उभरी, किन्तु हिन्दू, सिख, यूनियनिस्ट दलों ने मिलकर साझा सरकार खिज्र हयात खाँ के नेतृत्व में बनाई।

नौसैनिक विद्रोह ( वर्ष 1946)

आजाद हिन्द फौज तथा भारत छोड़ो आन्दोलन की घटनाओं ने ब्रिटिश सरकार के भारतीय सैनिकों को भी प्रभावित किया। 18 फरवरी, 1946 को रॉयल इण्डियन नेवी के गैर-कमीशण्ड अधिकारियों एवं सैनिकों जिन्हें रेटिग्ज कहा जाता था, ने नस्लीय भेदभाव तथा खराब भोजन के प्रतिवाद में हड़ताल कर दी। यह विद्रोह बम्बई के नौसैनिक प्रशिक्षण पोत एच एम आई एस तलवार पर किया गया था। हड़ताली नाविकों ने एक नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति का चुनाव किया, जिसके प्रमुख एम एस खान थे।

विद्रोही सैनिक बी. सी. दत्त की रिहाई की भी मांग कर रहे थे, जिन्हें जहाज पर भारत छोड़ो लिखने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। शीघ्र ही यह विद्रोह अन्य स्थलों-कराची, मद्रास तथा कलकत्ता तक फैल गया। विद्रोहियों ने जहाजों से ब्रिटिश यूनियन जैक को उतारकर उसके स्थान पर कांग्रेस, लीग तथा कम्युनिस्ट पार्टी प्रतीक वाले तिरंगे, चाँद तथा हंसिया-हथौड़ा के निशान वाले ध्वज फहराए।

नौसेना विद्रोह के समर्थन में 22 फरवरी, 1946 को बम्बई में अभूतपूर्व हड़ताल का आयोजन हुआ। इसमें 20 लाख मजदूरों ने भाग लिया। विद्रोहियों के दमन के लिए सरकार ने एडमिरल गॉडफ्रे को भेजा। सरकार के इस रुख को देखते हुए वल्लभभाई पटेल ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। पटेल और जिन्ना ने इन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। 25 फरवरी, 1946 को विद्रोहियों ने यह कहते हुए आत्मसमर्पण किया कि “हम भारत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं, ब्रिटेन के सामने नहीं।”

कैबिनेट मिशन योजना (वर्ष 1946)

फरवरी, 1946 में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय शिष्टमण्डल भेजने की घोषणा की। पैथिक लॉरेन्स (भारत सचिव), सर स्टैफर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष), ए वी एलेक्जेण्डर (नौसेना मन्त्री)। इसका कार्य भारत को शान्तिपूर्ण सत्ता हस्तान्तरण के लिए उपायों एवं सम्भावनाओं को तलाशना था। इसे कैबिनेट मिशन के नाम से जाता जाता है। कैबिनेट मिशन के द्वारा दूसरा शिमला सम्मेलन बुलाने के बाद भी कोई समझौता नहीं हो सका। अन्त में मई, 1946 में कैबिनेट मिशन ने अपना प्रस्ताव जारी कर दिया।

कैबिनेट मिशन के मुख्य प्रस्ताव

कैबिनेट मिशन के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे

  • ब्रिटिश भारत तथा भारतीय राजाओं को मिलाकर एक भारतीय संघ (संघीय सरकार ) के निर्माण की सिफारिश की गई, जिसके पास विदेश विभाग, रक्षा और संचार रहेंगे और जिसे इन विभागों के लिए धन एकत्रित करने का अधिकार होगा। शेष शक्तियाँ और विषय राज्यों के पास रहेंगे। इसी प्रकार दोनों क्षेत्रों के प्रतिनिधियों द्वारा कार्यपालिका और विधायिका की रचना की जाएगी।
  • प्रान्तों को पृथक्-पृथक् कार्यपालिका और विधायिका के साथ ग्रुप बनाने का अधिकार होगा और प्रत्येक ग्रुप को अपने अधीन रखे जाने वाले प्रान्तीय विषयों का निर्णय करने का अधिकार होगा।
  • संघीय विषयों को छोड़कर अन्य सभी विषय तथा अवशिष्ट शक्तियाँ प्रान्तों के पास होंगी। प्रान्तों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया।समूह ‘क’ मद्रास, बम्बई, मध्य प्रान्त, संयुक्त प्रान्त, बिहार, उड़ीसा। समूह ‘ख’ पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त एवं सिन्ध। समूह ‘ग’ बंगाल एवं असम
  • संविधान सभा के निर्माण के लिए प्रत्येक प्रान्त को 10 लाख लोगों के लिए एक प्रतिनिधि के अनुपात में जनसंख्या के साम्प्रदायिक आधार पर स्थान दिए जाएंगे। मतदाताओं के तीन वर्ग थे-सामान्य, मुस्लिम, सिख। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों से 292 सदस्य संविधान सभा में चुने जाने थे।
  • भारतीय राज्यों के प्रतिनिधियों के चुनाव का निर्णय परामर्श से किया जाना था। संविधान सभा में कुल 389 सदस्य होने थे। इसमें 292 ब्रिटिश भारतीय प्रान्त, 4 मुख्य आयुक्त तथा 4 सदस्य 93 देशी रियासतों से होने थे।
  • कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर दिया, उन्होंने इसे अव्यावहारिक बताया, क्योंकि इससे साम्प्रदायिकता की समस्या हल नहीं हो सकती थी।
  • सत्ता हस्तान्तरण के पश्चात् देशी रियासतों से सम्बद्ध सर्वोच्च शक्ति न तो ब्रिटेन के पास रहेगी और न भारत सरकार के पास।
  • सभी दलों की सहायता से शीघ्र ही एक अन्तरिम सरकार की स्थापना की जाएगी।
  • केन्द्रीय संविधान सभा तथा इंग्लैण्ड में सत्ता हस्तान्तरण से उत्पन्न बातों के निर्णय के लिए एक सन्धि के सन्दर्भ में बातचीत आवश्यक थी।

कैबिनेट मिशन पर प्रतिक्रिया

कांग्रेस के अनुसार प्रान्तों को यह छूट होनी चाहिए कि वे समूहों में सम्मिलित हों या नहीं। इसके अनुसार समूहों में सम्मिलित होने की अनिवार्यता प्रान्तीय स्वायत्तता के सिद्धान्तों के विपरीत है। संविधान सभा में विदेशी रियासतों के प्रतिनिधियों के लिए भी निर्वाचन की व्यवस्था होनी चाहिए। मुस्लिम लीग के अनुसार समूहीकरण की शर्त समूह ‘ख’ तथा ‘ग’ के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। 6 जून, 1946 को मुस्लिम लीग ने तथा 24 जून, 1946 को कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया। मुस्लिम लीग ने 29 जुलाई, 1946 को अपनी स्वीकृति वापस ले ली और पाकिस्तान के लिए सीधी कार्यवाही शुरू की। 7 जून, 1946 को कांग्रेस कमेटी ने स्वीकार किया कि कांग्रेस संविधान सभा में सम्मिलित होगी। वर्ष 1946 में संविधान सभा का गठन हो गया, किन्तु लीग अपना पृथक् संविधान चाहती रही।

मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान को प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की तथा नारा दिया कि ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’। मुस्लिम लीग ने अन्तरिम सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया।

अन्तरिम सरकार का गठन (2 सितम्बर, 1946)

मुस्लिम लीग द्वारा अन्तरिम सरकार में सम्मिलित होने से इनकार करने के बाद वेवेल द्वारा 6 अगस्त, 1946 को नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया गया। 24 अगस्त, को नेहरू के नेतृत्व में भारत की पहली अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार की घोषणा की गई, जिसमें मुस्लिम लीग की भागीदारी नहीं थी। 2 सितम्बर, 1946 को अन्तरिम सरकार का गठन किया गया।

अन्तरिम सरकार में जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, आसफ अली, सी. राजगोपालाचारी, शरद चन्द्र बोस, जॉन मथाई, सरदार बलदेव सिंह, सरफराज अहमद खाँ, नाजिक राम, सैयद अली जहीन और डॉ. सी. एच. भाभा आदि थे। ये सदस्य औपचारिक रूप से वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य थे, जिसका अध्यक्ष वायसराय तथा उपाध्यक्ष नेहरू थे। 26 अक्टूबर, 1946 को अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के पाँच प्रतिनिधि शामिल हो गए।

20 नवम्बर, 1946 को लॉर्ड वेवेल ने संविधान सभा की प्रथम बैठक के सदस्यों को आमन्त्रित किया। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा की प्रथम बैठक हुई, जिसमें डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ.राजेन्द्र प्रसाद को संविधान का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। 13 दिसम्बर, 1946 को नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया।

एटली की घोषणा एवं माउण्टबेटन योजना

20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स के समक्ष बयान दिया कि जून, 1948 तक भारतीयों को सत्ता सौंपकर अंग्रेज भारत छोड़ देंगे। इसके साथ यह भी कहा गया कि यदि तब तक एक संविधान का निर्णय न किया गया, तो अंग्रेजों को अधिकार होगा कि वे जिसे चाहे उसे शक्ति सौंप दें। इसके साथ ही वेवेल के स्थान पर माउण्टबेटन को वायसराय बनाकर भेजा गया।

3 जून को माउण्टबेटन ने भारत के विभाजन के साथ सत्ता हस्तान्तरण की योजना प्रस्तुत की। स्वतन्त्रता एवं विभाजन से सम्बन्धित इस योजना को बाल्कन प्लान के नाम से भी जाना जाता है।

माउण्टबेटन योजना के मुख्य प्रावधान

माउण्टबेटन योजना के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे  

  • 15 अगस्त, 1947 से भारत में दो अधिराज्यों की स्थापना हो जाएगी और सभी शक्ति हस्तान्तरित कर दी जाएंगी।
  • सिन्ध, उत्तर-पूर्वी सीमा प्रान्त, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, बलूचिस्तान और असम के मिला, जिले को छोड़कर सभी प्रान्त भारत में शामिल होने थे।
  • पंजाब एवं बंगाल के बँटवारे के लिए  रेडक्लिफ आयोग की स्थापना।
  • दोनो अधिराज्यों को प्रभुत्व सम्पन्न घोषित करके उन्हें अपने-अपने संविधान बनाने का अधिकार दिया गया।
  • दोनों अधिराज्यों के मन्त्रिमण्डलों के सुझाव पर गवर्नर-जनरल को संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त किया जाना था।
  • 15 अगस्त से भारत मन्त्री और इण्डिया ऑफिस समाप्त हो जाने थे।
  • भारतीय राजाओं को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की इजाजत दी गई, उन्हें स्वतन्त्र रहने का विकल्प नहीं दिया गया।
  • उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त तथा असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह के द्वारा पता लगाया। जाना था कि वह किसके साथ रहना चाहते हैं।

माउण्टबेटन योजना पर प्रतिक्रिया

3 जून, 1947 को माउंट बेटन ने भारतीय समस्या के हल हेतु जो सुझाव दिए थे उन्हें कांग्रेस कार्य समिति द्वारा स्वीकार कर लिया गया। 14 जून को कांग्रेस की महासमिति की बैठक में गोविन्द बल्लभ पन्त ने देश के विभाजन की माउण्टबेटन योजना को स्वीकार करने का प्रस्ताव पेश करते हुए कहा “आज हमें पाकिस्तान तथा आत्महत्या में से एक को चुनना है। देश की मुक्ति पाने का यही एकमात्र रास्ता है इससे भारत में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना होगी।” देश के विभाजन का विरोध करते हुए गाँधीजी ने कहा “यदि सारा भारत भी आग की लपट में घिर जाए, तो भी पाकिस्तान नहीं बन सकेगा। यदि कांग्रेस विभाजन चाहती है, तो यह मेरे मृत शरीर पर होगा।”

इसके पश्चात् गाँधीजी वायसराय माउण्टबेटन से मिले तथा उनसे आग्रह किया कि वे जिन्ना को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करें, जिससे कि विभाजन को टाला जा सके। गाँधीजी के इस सुझाव का सरदार पटेल तथा जवाहरलाल नेहरू ने विरोध किया। अन्त में गाँधीजी ने भी निराश होकर विभाजन स्वीकार कर लिया। कांग्रेस के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता मौलाना आजाद एवं खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गाँधी) ने विभाजन प्रस्ताव का विरोध किया था।

भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947

माउण्टबेटन योजना के आधार पर 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतन्त्रता विधेयक पेश किया गया, जिसे 18 जुलाई, 1947 को इसे स्वीकृति मिल गई। इस अधिनियम के आधार पर 14 अगस्त को पाकिस्तान तथा 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हो गया।

मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल तथा लियाकत अली खाँ प्रधानमन्त्री बने। स्वतन्त्र भारत में लॉर्ड माउण्टबेटन प्रथम गवर्नर-जनरल तथा पण्डित जवाहरलाल नेहरू प्रथम प्रधानमन्त्री बने। स्वतन्त्र शब्द के प्रयोग से स्पष्ट था कि अब भारत पर ब्रिटिश संसद तथा ह्वाइट हॉल का नियन्त्रण नहीं रह गया। इस अधिनियम को ब्रिटिश संसद ने अब तक के भारत के लिए पारित सभी अधिनियमों में महान् तथा उत्तम कहा, परन्तु यह अधिनियम भारत को दो टुकड़ों में बाँट गया।

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