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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन : द्वितीय चरण (वर्ष 1915-1935)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन : द्वितीय चरण (वर्ष 1915-1935) भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का द्वितीय चरण अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण रहा है। इसी चरण में काग्रेस एवं मुस्लिम लीग का समझौता हआ तथा होमरूल आन्दोलन चला। इस में चरण की सबसे उल्लेखनीय घटना महात्मा गाँधी का भारत आगमन तथा उनका राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालना रही, जिससे आन्दोलन की दशा व दिशा दोनों बदल गईं। यहीं से राष्ट्रीय आन्दोलन के गाँधीवादी युग की भी शुरुआत होती है।

लखनऊ अधिवेशन (1916 ई.)

देश में बढ़ रही राष्ट्रवादी भावना और राष्ट्रीय एकता की आकांक्षा के कारण वर्ष 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में ऐतिहासिक महत्त्व की दो घटनाएँ हुईं। कांग्रेस के दोनों पक्ष (उदारवादी एवं उग्रवादी) पुन: एक हो गए एवं कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के मध्य भी समझौता हो गया। लखनऊ अधिवेशन में उग्रवादियों के पुनः कांग्रेस में प्रवेश के कई कारण थे

  • पुराने विवाद अब अप्रासंगिक एवं अर्थहीन हो चुके थे।
  • यह महसूस किया गया कि विभाजन से राष्ट्रीय आन्दोलन की राजनीतिक प्रक्रिया अवरुद्ध हो रही है।
  • ऐनी बेसेण्ट तथा तिलक के द्वारा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए।
  • गोपाल कृष्ण गोखले तथा फिरोजशाह मेहता का देहान्त हो जाने के कारण व्यापक विरोध की सम्भावनाएँ कम हो गई थी तथा तिलक ने भी घोषित किया कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन (डोमिनियन) के पक्षधर हैं, न कि पूर्ण स्वतन्त्रता के। उन्होंने इसे स्वराज कहा।

दिसम्बर, 1915 में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के अधिवेशन एक साथ बम्बई में हुए। इतिहास में पहली बार ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि एक साथ कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए थे। वर्ष 1916 में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग का अधिवेशन पुनः साथ-साथ लखनऊ में हुआ। इस सम्मेलन में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना थे, दूसरी ओर कांग्रेस के अध्यक्ष अम्बिकाचरण मजूमदार थे, जो उदारवादी नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के मित्र थे। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग को समीप लाने में ऐनी बेसेण्ट ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

लखनऊ में कांग्रेस एवं लीग के मध्य समझौता हुआ, जिसमें भारत के भावी शासन और स्वराज के बारे में दोनों संगठनों की कमेटियों ने मिलकर योजना तैयार की। यह कांग्रेस-लीग योजना के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अन्तर्गत यह मांग की गई कि “सरकार भारतवासियों को स्वराज देने की ओर सुनिश्चित कदम उठाए। साम्राज्य के पुनर्गठन में भारत को पराधीनता की स्थिति से निकालकर वही स्थान दे, जो एक स्वशासित अधिराज्यों (Dominion States) को प्राप्त है।

कांग्रेस-लीग समझौता

कांग्रेस और लीग के बीच समझौते के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित थे

  • कांग्रेस द्वारा उत्तरदायी शासन की माँग को लीग ने स्वीकार कर लिया।
  • प्रान्तीय कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन व्यवस्था की माँग को स्वीकार किया (मदनमोहन मालवीय, सी वाई चिन्तामणि इस समझौते के विरुद्ध थे)।
  • प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में निर्वाचित भारतीय सदस्यों की संख्या का एक निश्चित भाग मुसलमानों के लिए आरक्षित किए जाने पर सहमति बनी।
  • केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में कुल निर्वाचित भारतीय सदस्यों का 1/9 भाग मुसलमानों के लिए आरक्षित किए जाने पर सहमति।
  • यह निश्चित किया गया की यदि किसी सभा में कोई प्रस्ताव किसी सम्प्रदाय के हितों के विरुद्ध हो तथा 3/4 सदस्य उस आधार पर उसका विरोध करें, तो उसे पास नहीं किया जाएगा।

समझौते के पश्चात् दोनों ने सरकार को संयुक्त प्रस्ताव सौंपा, जिसमें निम्न बाते सम्मिलित थीं

उत्तरदायी शासन की स्थापना के सम्बन्ध में घोषणा; निर्वाचित भारतीयों की संख्या में वृद्धि एवं अधिक अधिकार तथा वायसराय की कार्यकारिणी में आधे से अधिक भारतीय हों।

होमरूल आन्दोलन (1916 ई.)

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दिशा एवं स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आया। बहुत सारे नए क्षेत्रों में आन्दोलन का प्रसार हुआ एवं मध्यवर्गीय नेतृत्व की एक नई पीढ़ी सामने आई। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा ऐनी बेसेण्ट द्वारा चलाए गए होमरूल आन्दोलन के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद के अखिल भारतीय स्वरूप की दिशा में प्रयास हुआ।

भारत में होमरूल लीग का गठन आयरलैण्ड के होमरूल लीग के नमूने पर किया गया था। ऐनी बेसेण्ट और तिलक इसके प्रणेता थे। इसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहते हुए संवैधानिक तरीके से स्वशासन प्राप्त करना था।

आन्दोलन की पृष्ठभूमि

  • वर्ष 1909 के मार्ले-मिण्टो सुधारों से मोहभंग, व्यापक सुधारों के लिए उग्र आन्दोलन की आवश्यकता का अनुभव।
  • जून, 1914 में बाल गंगाधर तिलक जेल से रिहा हो गए, जो स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपनी भूमिका निभाने के लिए अवसर तलाश रहे थे, इस आन्दोलन से जुड़े।
  • ऐनी बेसेण्ट ने प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् आयरिश होमरूल लीग के नमूने पर भारत में आन्दोलन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। .

तिलक की होमरूल लीग

28 अप्रैल, 1916 को तिलक ने बेलगाँव (पूना) में होमरूल लीग की स्थापना की। तिलक द्वारा स्थापित लीग का प्रभाव कर्नाटक, महाराष्ट्र (बम्बई को छोड़कर), मध्य प्रान्त एवं बरार तक था।

तिलक ने अपने पत्र मराठा तथा केसरी के माध्यम से प्रचार करना प्रारम्भ किया। तिलक ने होमरूल का प्रचार करने के लिए अनेक स्थानों का दौरा किया तथा लोगों को समझाया कि इस आन्दोलन की जरूरत क्यों है। उन्हीं के शब्दों में “भारत उस बेटे की तरह है, जो अब जवान हो चुका है।

समय का तकाजा है कि बाप या पालक इस बेटे को उसका वाजिब हक दे। भारतीय जनता को अब अपना हक लेना ही होगा, उन्हें इसका पूरा अधिकार है।” तिलक ने क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा तथा भाषायी राज्यों की माँग को ‘स्वराज’ से जोड़ दिया। तिलक की होमरूल लीग के प्रथम अध्यक्ष जोसेफ बैपटिस्टा व सचिव एन सी केलकर थे।

ऐनी बेसेण्ट की होमरूल लीग

ऐनी बेसेण्ट ने सितम्बर, 1916 में मद्रास में अखिल भारतीय होमरूल लीग की स्थापना की। ऐनी बेसेण्ट ने जॉर्ज अरुण्डेल को अपनी होमरूल लीग का सचिव बनाया। होमरूल लीग की स्थापना करने की योजना इन्हीं के दिमाग की उपज थी। इन्होंने 2 जनवरी, 1914 को साप्ताहिक पत्रिका कॉमनवील में इसके विचारों को रखा। ऐनी बेसेण्ट की लीग से सुब्रह्मण्यम अय्यर, मोतीलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, वी पी वाडिया, जैसे नेता जुड़े थे। ऐनी बेसेण्ट की होमरूल लीग का मुख्यालय अड्यार (मद्रास) में था।

आन्दोलन की सफलता

होमरूल आन्दोलन की लोकप्रियता के कारण कांग्रेस में पुन: उग्रवादियों का प्रवेश हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक नई शक्ति एवं चेतना का संचार हुआ। ऐनी बेसेण्ट वर्ष 1917 में कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं। होमरूल आन्दोलन ने शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार को नवीन नीति के निर्धारण के लिए बाध्य किया। होमरूल आन्दोलन केवल भारतीयों में ही लोकप्रिय नहीं हुआ, बल्कि होमरूल लीग की स्थापना अनेक बाह्य देशों में भी हुई। 7 जून, 1916 को लन्दन में इण्डियन होमरूल लीग की स्थापना की गई। इस होमरूल के महासचिव ग्राम पाल बने। इसके द्वारा whatindia wants जैसे परचे बाँटे गए। अक्टूबर, 1915 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में अमेरिका में होमरूल लीग की स्थापना हुई। इस लीग द्वारा भारतीय होमरूल की गतिविधियों की जानकारी लोगों को उपलब्ध कराई जाती थी।

आन्दोलन का अन्त

होमरूल की लोकप्रियता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इसका दमन करने के लिए, तिलक द्वारा होमरूल की सभाओं में दिए गए भाषणों के आधार पर जुलाई, 1916 में उन पर मुकदमा चलाया। तिलक की ओर से पैरवी मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में वकीलों के एक दल ने की। इसके साथ ही 15 जून, 1917 को ऐनी बेसेण्ट तथा उनके सहयोगी जी. एस. अरुण्डेल तथा वी पी वाडिया को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी के विरोध में एस सुब्रह्मण्यम अय्यर, जो होमरूल लीग के समर्थक थे, ने ‘नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी। जनता के विरोध के कारण सितम्बर, 1917 में ऐनी बेसेण्ट को रिहा कर दिया गया।

मॉण्टेग्यू घोषणा के पश्चात् ऐनी बेसेण्ट ने अपनी होमरूल लीग का काम बन्द कर दिया तथा तिलक के वेलेण्टाइन शिरोल (‘इण्डिया अनरेस्ट’ के लेखक) पर मानहानि का मुकदमा करने लन्दन चले जाने के कारण यह आन्दोलन नेतृत्वविहीन होकर समाप्त हो गया। वर्ष 1920 में ऑल इण्डिया होमरूल लीग ने अपना नाम परिवर्तित कर स्वराज सभा रखा लिया।

नेशनल लिबरल लीग

मॉण्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट की कांग्रेस द्वारा आलोचना की गई। इससे कांग्रेस में मतभेद उत्पन्न हो गया तथा उदारवादियों ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में उस रिपोर्ट का स्वागत किया एवं कांग्रेस से अलग होकर एक नए दल नेशनल लिबरल लीग का गठन किया।

गाँधीजी के प्रारम्भिक सत्याग्रह

9 जनवरी, 1915 में गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए। 1894 ई. में दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी ने नटाल भारतीय कांग्रेस का गठन किया और ‘इण्डियन ओपिनियन’ नामक एक अखबार निकालना प्रारम्भ किया। सत्याग्रह का सर्वप्रथम प्रयोग गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में वर्ष 1906 में किया। सत्याग्रह का अर्थ है-सत्य हेतु अहिंसक संघर्ष। इसका प्रयोग इन्होंने सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में उस कानून के विरुद्ध किया, जिसके तहत हर भारतीय को पंजीकरण प्रमाण-पत्र लेना जरूरी था।

दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए टॉलस्टाय फार्म का निर्माण करवाया, जो बाद में गाँधी आश्रम बना।सत्याग्रह की प्रेरणा गाँधीजी ने डेविड थोरो के निबन्ध ‘सिविल डिसओबिडिएन्स’ से ली थी। वर्ष 1909 में लिखित हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में गाँधीजी ने स्वराज की व्याख्या की है।

भारत में गोपालकृष्ण गोखले के विचारों से वे सर्वाधिक प्रभावित हुए, जो गाँधीजी के राजनीतिक गुरु थे। गोखले की सलाह पर गाँधीजी ने दो वर्षों (वर्ष 1915-1916 ) तक पूरे देश का भ्रमण किया। तत्पश्चात् वर्ष 1917 से 1918 के बीच तीन प्रारम्भिक आन्दोलनों का नेतृत्व किया।

चम्पारण सत्याग्रह (1917 ई.)

चम्पारण में धनी एवं प्रभावशाली भू-स्वामियों की बड़ी-बड़ी जमींदारियाँ थीं। अधिकांश जमींदारों द्वारा गाँवों का पट्टा ठेकेदारों को दे दिया जाता था। इन ठेकेदारों में सर्वाधिक प्रभाव नील की खेती कराने वाले यूरोपीय लोगों का था। इन्होंने किसानों से एक अनुबन्ध करा लिया था कि वे अपनी भूमि के 3/20वें (20 कट्ठा में 3 कट्ठा) हिस्से पर अनिवार्य रूप से नील की खेती करें। यह व्यवस्था ‘तीन कठिया’ के नाम से जानी जाती थी। 19वीं सदी में रासायनिक रंगों के आविष्कार से नील का बाजार प्रभावित हुआ। यूरोपीय ठेकेदारों ने लगान एवं करों में अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसके साथ ही वह अनुबन्ध से मुक्त करने के बदले में भारी रकम वसूलने लगे। किसानों को अपनी तय की गई रकम पर माल बेचने के लिए बाध्य किया।

राजकुमार शुक्ल के आमन्त्रण पर गाँधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, बृजकिशोर, मजहर-उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि पारिख, जे बी कृपलानी आदि मामले की जाँच करने चम्पारण पहुँचे, लेकिन गाँधीजी के चम्पारण पहुँचते ही अधिकारियों द्वारा उन्हें वहाँ से वापस चले जाने का आदेश दिया गया।

गाँधीजी ने इसे मानने से इनकार कर दिया और किसी भी प्रकार के दण्ड को भुगतने के लिए तैयार हो गए। गाँधीजी ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया, जिससे स्थानीय प्रशासन को झुकना पड़ा। इसी बीच सरकार ने सभी मामलों की जाँच के लिए एक आयोग का गठन किया तथा गाँधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गाँधीजी आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिए। उन्होंने आयोग से कहा कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिए किसानों को हर्जाना दिया जाए। इसके पश्चात् बागान मालिक (ठेकेदार) अवैध वसूली का 25% हिस्सा लौटाने को राजी हो गए। एक दशक के भीतर बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। चम्पारण सत्याग्रह के दौरान गाँधीजी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि प्रदान की। एन जी रंगा, जो प्रमुख किसान नेता एवं कृषि क्षेत्र के विद्वान् थे, ने इस आन्दोलन का विरोध किया था।

गिरमिटिया प्रथा और गाँधीजी

ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय मजदूरों को विदेशों में भेजकर उनसे अमानवीय दशाओं में कार्य कराया गया, इसे गिरमिटिया प्रथा कहा गया था। ‘गिरमिटिया’ शब्द अंग्रेजी के ‘एग्रीमेण्ट’ शब्द का अपभ्रंश है। दस्तावेज पर अंगूठा लगाकर भेजे गए मजदूरों को ‘गिरमिट’ मजदूर कहा गया था। इसके विरुद्ध गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में विरोधी अभियान चलाया था। गाँधीजी के प्रयासों से 12 मार्च, 1917 को ब्रिटिश सरकार ने इस प्रणाली को समाप्त कर दिया।

अहमदाबाद मिल हड़ताल (वर्ष 1918)

अहमदाबाद में यह आन्दोलन सरकारी तन्त्र के विरुद्ध न होकर भारतीय कपड़ा मिल मालिकों के विरुद्ध था। यहाँ पर मालिकों एवं मजदूरों में प्लेग बोनस को लेकर विवाद था। मिल मालिकों के साथ समझौता वार्ता विफल हो जाने पर गाँधीजी ने मजदूरों को भूख हड़ताल पर जाने को कहा, इसके अतिरिक्त उन्होंने 35% बोनस की माँग रखने का प्रस्ताव दिया। मिल मालिक 20% बोनस ही देने के लिए राजी थे।

गाँधीजी स्वयं अनशन पर बैठ गए एवं भूख हड़ताल की, जो भारत में गाँधीजी की पहली भूख हड़ताल थी। इसमें मिल मालिकों में से एक अम्बालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेन ने उनका साथ दिया, जबकि उनके भाई अम्बालाल साराभाई गाँधीजी के दोस्त होते हुए भी उनके विरोधी रहे।

उन्होंने इस अवसर पर एक दैनिक समाचार-पत्र का भी प्रकाशन किया। मजबूर होकर मिल मालिक समझौते के लिए राजी हो गए एवं इन मामलों को एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया, जिसने मजदूरों का पक्ष लेते हुए 35% बोनस का फैसला सुनाया। इस तरह आन्दोलन समाप्त हो गया।

खेड़ा सत्याग्रह (वर्ष 1918)

गुजरात का खेड़ा जिला वर्ष 1918 में भीषण दुर्भिक्ष का शिकार हुआ। इस क्षेत्र की पूरी फसल बर्बाद हो गई। सरकार ने मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया को बन्द नहीं किया। इसके अलावा 23% की वृद्धि भी की जबकि राजस्व संहिता के अनुसार यदि फसल का उत्पादन कुल उत्पाद के एक चौथाई से भी कम हो, तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए। इसके लिए किसानों ने आन्दोलन करना शुरू किया।

गाँधीजी ने इस मुद्दे को उठाया, उन्होंने किसानों को राजस्व अदा न करने तथा दमनकारी नीतियों के प्रति संघर्ष करने के लिए प्रेरणा दी।

गाँधीजी ने वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई (बाद में गाँधीजी के निजी सचिव बने), इन्दु लाल याज्ञनिक आदि के साथ खेड़ा के गाँवों का दौरा किया। गाँधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे, तो सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान जमा करा देंगे। सरकार ने अपने अधिकारियों से गुप्त रूप से कहा कि उन्हीं किसानों से लगान वसूलें जो देने में सक्षम हों। इस प्रकार यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

प्रारम्भिक सत्याग्रहों के लाभ

  • इन आन्दोलनों ने गाँधीजी को, अपने तरीकों को भारत में प्रयोग करने का अवसर दिया।
  • गाँधीजी इन आन्दोलनों के माध्यम से जनता के करीब आए एवं उनकी समस्याओं को समझने का अवसर मिला।
  • गाँधीजी को जनता की आन्दोलनकारी प्रवृत्ति का मूल्यांकन करने का अवसर प्राप्त हुआ।
  • कई नए नेताओं का उद्भव हुआ एवं साथ मिला।

रॉलेट एक्ट (वर्ष 1919)

देश में फैल रही राष्ट्रीयता की भावना तथा क्रान्तिकारी गतिविधियों को कुचलने के लिए ब्रिटेन को पुन: शक्ति की आवश्यकता थी, क्योंकि भारत रक्षा अधिनियम, जिसे युद्धकाल में सरकार विरोधी तत्त्वों के दमन के लिए पास किया गया, की अवधि समाप्त हो रही थी। इस संदर्भ में सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति की (10 सितम्बर, 1917) स्थापना की गई, जिसे इस बात की जाँच करनी थी कि भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बन्ध रखने वाले षड्यन्त्र कहाँ तक फैले हुए हैं और उनसे निपटने के लिए किस प्रकार के कानूनों की आवश्यकता है।

समिति ने सिर्फ पंजाब तथा बंगाल की क्रान्तिकारी घटनाओ के सन्दर्भ में प्रस्तुत सरकारी दस्तावेजों के आधार पर अप्रैल, 1918 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। रॉलेट समिति के प्रतिवेदन के आधार पर दो विधेयक बनाए गए थे। 18 मार्च, 1919 को क्रान्तिकारी अराजकतावादी अधिनियम को पारित कर दिया गया। इसकी अवधि तीन वर्ष थी, इसे ही रॉलेट एक्ट कहा गया। दूसरा विधेयक पास होने से रोक लिया गया।

रॉलेट एक्ट के प्रावधान

एक्ट के अन्तर्गत निम्नांकित प्रावधान थे

  • रॉलेट अधिनियम, सेडिशन कमेटी की सिफारिश पर आधारित था।
  • नागरिक अधिकारों पर लगे युद्धकालीन प्रतिबन्धों को स्थायी रूप दिया जाना था।
  • राजद्रोहात्मक कार्यों के सन्देह मात्र पर ही किसी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए दो वर्ष के लिए कैद किया जा सकता था या किसी स्थान पर नजरबन्द किया जा सकता था।
  • प्रतिबन्धित पुस्तकों या दस्तावेजों के रखने मात्र । ही गिरफ्तारियां की जा सकती थीं तथा मुकदा चलाए जा सकते थे।
  • रॉलेट का एक लक्ष्य था बिना मुकदमा चलाए बली बनाना और मुकदमों की सुनवाई संक्षिप्त प्रक्रिया द्वारा चलाना।
  • मुकदमे की सुनवाई विशेष अदालत में गुप्त रूप से करने की व्यवस्था थी और अपील का अधिकार समाप्त कर दिया गया था।
  • कुख्यात पुलिस को तलाशी, गिरफ्तारी एवं जमानत
  • माँगने के असीमित अधिकार दिए गए थे।
  • साक्ष्य विधि के अन्तर्गत अवैध साक्ष्यों को भी मान्यता प्रदान की गई थी।

एक्ट का विरोध

केन्द्रीय विधानमण्डल के सदस्यों के विरोध के बावजूद इसे पारित कर दिया गया। जब भारतीयों का विरोध विधेयक को कानून बनने से नहीं रोक पाया, तो मोहम्मद अली जिन्ना, मदनमोहन मालवीय, मजरुल हक ने केन्द्रीय विधानमण्डल (धारा सभा) की सदस्यता से त्याग-पत्र दे दिया। गाँधीजी ने इसका विरोध किया एवं देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया।

बम्बई में एक सत्याग्रह सभा का गठन किया गया और सत्याग्रह नामक गैर-कानूनी पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। गाँधीजी सत्याग्रह सभा के अध्यक्ष सत्याग्रह सभा का मुख्य कार्य था-प्रचार साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण, सत्याग्रहियों के हस्ताक्षर जुटाना एवं उन्हें अहिंसक कार्यों का प्रशिक्षण देना। सत्याग्रह आयोजित करने में राष्ट्रवादी प्रेस ने काफी मदद पहुंचाई। 30 मार्च को दिल्ली में सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया। स्वामी श्रद्धानन्द के जुलूस पर पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गईं। अमृत बाजार पत्रिका ने इसे ‘भारी भूल’, न्यू इण्डिया ने ‘पैशाचिक’, पंजाबी ने ‘निर्लज्ज प्रयास’ तथा बॉम्बे क्रॉनिकल ने इसे ‘दमन का चरम रूप’ कहकर पुकारा।

गाँधीजी की प्रतिक्रिया अत्यन्त तीखी रही, उन्होंने कहा “ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानियत का प्रतीक है।” इस एक्ट की भारतीय जनता ने काला कानून तथा बिना अपील, बिना दलील तथा बिना वकील आन्दोलन कहकर आलोचना की।

इस घटना के पश्चात् गाँधीजी का पंजाब तथा दिल्ली में प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया था। 9 अप्रैल को गाँधीजी पलवल (हरियाणा) में प्रवेश के समय गिरफ्तार कर लिए गए। देश में इससे आक्रोश और बढ़ा, जिससे उन्हें बम्बई ले जाकर रिहा कर दिया गया। रॉलेट एक्ट के विरोध में बम्बई में गाँधीजी द्वारा सत्याग्रह सभा बनाई गई, जिसके सदस्य जमनादास, द्वारकादास, शंकरलाल बैंकर, उमर सोमानी, बी जी हार्नीमन आदि थे।

गाँधीजी के नेतृत्व में 30 मार्च, 1919 की तिथि एक अखिल भारतीय सत्याग्रह आन्दोलन के लिए निर्धारित की गई। यद्यपि बाद में इस तिथि को 6 अप्रैल किया गया। अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों ने अहिंसा का मार्ग त्याग कर हिंसा का मार्ग चुन लिया, जिससे 18 अप्रैल, 1919 को गाँधीजी ने अपना सत्याग्रह समाप्त कर दिया। रॉलेट सत्याग्रह की सफलता यह रही कि रॉलेट एक्ट तो वापस नहीं लिया गया, परन्तु इसके तहत कोई कार्यवाही भी नहीं की गई। अन्ततः तीन वर्ष के बाद इसे वापस ले लिया गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने रॉलेट सत्याग्रह को असहयोग आन्दोलन का जन्मदाता कहा है।

जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड (वर्ष 1919)

13 अप्रैल, 1919 को वैशाखी के दिन अमृतसर के के जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया। ये लोग 10 अप्रैल, 1919 को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने तथा अपने नेताओं डॉ. सत्यपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर निर्वासित किए जाने का विरोध कर रहे थे। इनमें से अधिकतर आस-पास के गाँवों से आए हुए ग्रामीण लोग थे।

जनरल डायर ने इस सभा के आयोजन को सरकारी आदेश की अवहेलना समझा तथा इसे चारों ओर से घेर लिया। बिना किसी पूर्व चेतावनी के उसने सभा पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मृतकों की संख्या 379 थी. जबकि कांग्रेस के अनुसार यह 500 से 1000 के बीच थी। अमृतसर में इस घटना के बाद दो माह तक कयूं लगा रहा। वहाँ मार्शल लॉ भी लागू कर दिया गया। इस घटना के समय पंजाब का लेफ्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ डायर था, जबकि सैन्य अधिकारी रेगिनाल्ड रेक्स डायर था, जिसने गोली चलाने का आदेश दिया था।

सी एफ एण्डूज ने जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड को जान-बूझकर की गई हत्या की संज्ञा दी। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की सर्वत्र भर्त्सना की गई। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई नाइटहुड उपाधि लौटा दी। सर शंकरन नायर ने गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् से त्याग-पत्र दे दिया। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के समय ही पंजाब में चमनदीप के नेतृत्व में डण्डा फौज अस्तित्व में आई। सजा के रूप में डायर को नौकरी से बर्खास्त किया गया। डायर की प्रशंसा में हाउस ऑफ कॉमन एवं लॉर्ड में भाषण दिए गए। उसे ब्रिटिश साम्राज्य का शेर कहा गया तथा Sword of Honour (मान की तलवार) एवं 2,600 पौण्ड की धनराशि दी गई।

हण्टर कमीशन

कांग्रेस के बार-बार आग्रह एवं व्यापक असन्तोष को देखते हुए घटना की जाँच के लिए 19 अक्टूबर, 1919 को हण्टर आयोग के गठन की घोषणा की। हण्टर कमीशन के भारतीय सदस्यों में चमन लाल सीतलवाड़ तथा वकील पण्डित जगत नारायण (विधानपरिषद् सदस्य, संयुक्त प्रान्त) एच सी स्टॉक्स तथा साहिबजादा सुल्तान अहमद खान (ग्वालियर राज्य का वकील) थे।

हण्टर कमीशन ने डायर पर कोई दण्डात्मक या अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की, क्योंकि डायर के कार्यों को उसके विभिन्न वरिष्ठों द्वारा माफ किया गया। वायसराय की परिषद् ने कहा कि राजनैतिक कारणों से उस पर कार्यवाही करना सम्भव नहीं है। इस समिति ने दुर्घटना में सरकार का कोई दोष नहीं बताया। डायर के इस कार्य को केवल निर्णय लेने की भूल बताया और डायर को दण्डस्वरूप नौकरी से निकाल दिया गया।

मालवीय समिति

कांग्रेस ने इन हत्याओं की जाँच के लिए मदन मोहन मालवीय समिति का गठन किया। इसके सदस्य मोतीलाल नेहरू, गाँधीजी, सी आर दास, अब्बास तैयबजी तथा एम आर जयकर थे। इसे तहकीकात कमेटी भी कहा जाता है। इस समिति द्वारा निम्न तथ्य प्रस्तुत किए गए

  • सार्वजनिक स्थानों पर सम्मेलन पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा के बारे में लोगों को जानकारी देने की अपर्याप्त व्यवस्था थी।
  • भीड़ में निर्दोष लोग थे एवं बाग में किसी भी प्रकार की हिंसा पहले नहीं हुई थी।
  • डायर को घायलों की सहायता करनी चाहिए थी। डायर का कार्य ‘अमानवीय एवं गैर-ब्रिटिश’ था और इसने भारत में ब्रिटिश शासन की छवि को धूमिल किया।

खिलाफत आन्दोलन

भारत के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को इस्लाम का खलीफा मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की मित्र देशों के विरुद्ध लड़ा था। युद्ध के समय ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने भारतीय मुसलमानों को वचन दिया था कि वे तुर्की साम्राज्य को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाएँगे, लेकिन युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया गया।

तुर्की साम्राज्य के विभाजन के विरुद्ध खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ। मोहम्मद अली एवं शौकत अली ने अपने पत्र कामरेड के माध्यम से खिलाफत आन्दोलन का प्रचार-प्रसार किया।

गाँधीजी ने भी खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया तथा इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के अवसर के रूप में देखा। हकीम अजमल खाँ, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मोहम्मद अली, मौलाना अली हसन, मुख्तार अहमद अंसारी खिलाफत आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। सितम्बर, 1919 में एक खिलाफत कमेटी का गठन हुआ।

17 अक्टूबर, 1919 को खिलाफत दिवस मनाया गया तथा 23 नवम्बर को इसका पहला सम्मेलन दिल्ली में फजल-उल-हक की अध्यक्षता में हुआ। अगले दिन के सम्मेलन की अध्यक्षता गाँधीजी ने की। इसी समय उलेमाओं ने जमायत-उल-उलेमा की स्थापना की। खिलाफत नेताओं द्वारा एक त्रिस्तरीय कार्यक्रम तैयार किया गया।

जनवरी, 1920 में डॉ. अंसारी के नेतृत्व में, खिलाफत कमेटी ने एक शिष्टमण्डल वायसराय के पास भेजा था। इसका उद्देश्य सरकार को तुर्की साम्राज्य एवं खलीफा के रूप में सुल्तान की प्रभुसत्ता बनाए रखने में की आवश्यकता से अवगत कराना था।

जून, 1920 में इलाहाबाद में सेण्ट्रल खिलाफत कमेटी की बैठक में असहयोग प्रस्ताव पास हो गया। अत: खिलाफत पार्टी की तरफ से असहयोग आन्दोलन चलाने का निर्णय लिया गया तथा गाँधीजी को इसका नेतृत्व सौंपा गया।

इसके लिए चार चरणों वाला कार्यक्रम बनाया गया, जिसके अन्तर्गत उपाधियों, सिविल सेवाओं, सेना एवं पुलिस के बहिष्कार तथा करों की अदायगी न करने का कार्यक्रम था। असहयोग आन्दोलन की असफलता हेतु कांग्रेस को भी असहयोग आन्दोलन चलाने के लिए राजी करने का प्रयास किया गया।

त्रिस्तरीय कार्यक्रम की माँग

  •  ऑटोमन खलीफा को पर्याप्त लौकिक अधिकारों के साथ अपने साम्राज्य में सत्तारूढ़ रहने दिया जाए।
  • अरब प्रदेश मुस्लिम शासकों के अधीन होने चाहिए।
  • तुर्की के सुल्तान को मुसलमानों के पवित्र स्थलों का संरक्षक बनाया जाए।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का तृतीय चरण गाँधीवादी युग रहा। इस युग में कांग्रेस का उद्देश्य पूर्ण स्वराज प्राप्त करना था। इस युग में गाँधीजी प्रमुख नेता थे जिन्होंने भारतीय राजनीति में एक नई विचारधारा का सूत्रपात किया, जिसे सत्याग्रह (सत्य के प्रति आग्रह) नाम से जाना जाता है।

गाँधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस आन्दोलन एक सार्वजनिक आन्दोलन बन गया। साथ ही, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दशा एवं दिशा दोनों बदल गईं।

असहयोग आन्दोलन (वर्ष 1920)

अंग्रेजों की शोषणकारी नीति, रॉलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, खिलाफत का मुद्दा, प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् भी भारत के हितों के विरुद्ध कार्य एवं सरकार की दमनकारी नीतियों ने गाँधीजी को एक नए आन्दोलन को शुरू करने के लिए प्रेरित किया। इन मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में गाँधीजी ने कांग्रेस को प्रभावित किया कि वह भी एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़े।

असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि

असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि को एक ओर खिलाफत के मंच से तथा दूसरी ओर वर्ष 1920 के पहले के राजनैतिक घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। असहयोग आन्दोलन शुरू करने के लिए निम्न कारक उत्तरदायी थे

  • प्रथम विश्वयुद्ध का भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव, महँगाई, बेरोजगारी, कर भार में वृद्धि, किसानों तथा मजदूरों की पहले से अधिक खराब स्थिति।
  • रूस की वर्ष 1917 की क्रान्ति तथा युद्ध से वापस लौटे सैनिकों द्वारा राजनैतिक जनजागरण में सहायता।
  • वर्ष 1915 में गाँधी का भारत आगमन, चम्पारण, खेड़ा एवं अहमदाबाद मिल मजदूरों के संघर्ष के माध्यम से भारतीय राजनीति में उनका प्रवेश।
  • रॉलेट सत्याग्रह।
  • जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड एवं इसके पश्चात् हण्टर आयोग की सिफारिशें।
  • वर्ष 1919 के मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों से निराशा।
  • खिलाफत का मुद्दा एवं इसके पश्चात् कांग्रेस मुस्लिम लीग समझौते के कारण अनुकूल वातावरण।

असहयोग आन्दोलन का प्रारम्भ

नवम्बर, 1919 में हुए खिलाफत सम्मेलन में गाँधीजी को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था। गाँधीजी ने खिलाफत कमेटी को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अहिंसक असहयोग आन्दोलन छेड़ने की सलाह दी। 9 जून, 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को स्वीकार कर लिया और गाँधीजी को इस आन्दोलन की अगुवाई करने का अधिकार सौंपा गया। सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ। इसमें कई वरिष्ठ नेताओं के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने असहयोग आन्दोलन को मंजूरी दे दी। गाँधीजी के इस आन्दोलन के प्रस्ताव का विरोध सर्वप्रथम एनी बेसेण्ट ने किया। इस आन्दोलन में विदेशी शासन के खिलाफ सीधी कार्यवाही तथा विधान परिषदों के बहिष्कार के सवाल पर सी आर दास और गाँधी के विचारों में मतभेद हुए। विरोध करने वाले अन्य नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, ऐनी बेसेण्ट, विपिन चन्द्र पाल, मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना आदि थे। समर्थन करने वाले नेता मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली, शौकत अली आदि थे।

दिसम्बर, 1920 के नागपुर नियमित सत्र में भी इस प्रस्ताव को दोबारा मंजूरी दे दी गई। कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन (1920) में इस आन्दोलन का प्रस्ताव गाँधीजी ने तैयार किया था, जबकि इसे सी आर दास ने पेश किया था। कांग्रेस ने इसे अपना आन्दोलन मान लिया। इससे पहले गाँधीजी ने खिलाफत पार्टी की तरफ से 1 अगस्त, 1920 को आन्दोलन की शुरुआत कर दी थी। इसी दिन बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु हो गई। पूरे देश में शोक छा गया, हड़ताल की गईं, प्रदर्शन हुए, कुछ लोगों ने उपवास रखा।

कांग्रेस अधिवेशन एवं असहयोग आन्दोलन

कांग्रेस का कलकत्ता (विशेष) अधिवेशन (सितम्बर, 1920) इस अधिवेशन में कांग्रेस ने असहयोग आन्दोलन को स्वीकार करने के पक्ष में दो कारण बताए-खिलाफत मुद्दे के प्रति ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण एवं पंजाब में हुए अत्याचार तथा अपराधियों को दण्डित न किया जाना। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने निम्नलिखित कार्यक्रम तय किए

  • सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार।
  • न्यायालयों का बहिष्कार एवं पंचायतों के माध्यम से न्याय का कार्य सम्पादित करना। विधानपरिषदों का बहिष्कार।
  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा इसके स्थान पर खादी के उपयोग को बढ़ावा; चरखे को प्रोत्साहन।
  • सरकारी उपाधियों तथा अवैतनिक पदों का परित्याग, सरकारी सेवाओं का परित्याग।
  • सरकारी करों का भुगतान न करना।
  • सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी उत्सवों का बहिष्कार।
  • सैनिक, मजदूर एवं क्लर्कों का मेसोपोटामिया में कार्य करने के लिए न जाना।
  • आन्दोलन का अहिंसक स्वरूप।
  • सरकारी उपाधियाँ छोड़ना।

कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन (दिसम्बर, 1920)

इस अधिवेशन में कलकत्ता अधिवेशन की पुष्टि की गई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान में महत्त्वपूर्ण संशोधन भी किए गए। इसके अध्यक्ष वीर राघवाचारी थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वर्तमान लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन का था, इसके स्थान पर स्वराज का लक्ष्य प्रस्तावित किया गया। कांग्रेस संगठन में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए

  • कांग्रेस के रोजमर्रा के क्रियाकलापों को देखने के लिए 15 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति गठित की गई।
  • स्थानीय स्तर पर तथा भाषायी आधार पर प्रदेश कांग्रेस कमेटियों का गठन किया गया।
  • गाँवों एवं कस्बों में भी कांग्रेस समितियों का गठन किया गया।
  • सदस्यता फीस 25 पैसा (चार आना) सालाना कर दी गई। सभी वयस्कों को कांग्रेस की सदस्यता प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया।
  • 300 सदस्यों वाली अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का गठन किया गया।
  • स्वयंसेवकों का दल बनाना और इसमें 1.5 लाख स्वयंसेवकों को भर्ती करना।

उपरोक्त परिवर्तन के अतिरिक्त स्वदेशी विशेषकर हाथ की कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देना; हिन्दुओं में अस्पृश्यता का निवारण; हिन्दू-मुस्लिम एकता का संवर्द्धन तथा यथासम्भव हिन्दी के प्रयोग आदि को सम्मिलित किया गया। गाँधीजी ने यह आश्वासन दिया कि यदि इन कार्यक्रमों पर पूरी तरह अमल हुआ, तो एक वर्ष के भीतर ही स्वराज्य प्राप्त हो जाएगा। असहयोग आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी वस्त्रों का व्यापक बहिष्कार किया गया। यह आन्दोलन का सर्वाधिक सफल कार्यक्रम था तथा इससे अंग्रेज सरकार को भारी घाटा हुआ

कांग्रेस का विजयवाड़ा (विशेष) अधिवेशन (अप्रैल, 1921)

) इस अधिवेशन में कहा गया कि “देश अभी सविनय अवज्ञा के लिए पर्याप्त अनुशासित, संगठित और तैयार नहीं है” और निर्णय लिया गया कि 30 जून तक तिलक स्वराज कोष के लिए एक करोड़ राशि एकत्रित की जाएगी, कांग्रेस में एक करोड़ सदस्य भर्ती किए जाएँ और 10 लाख चरखे लगाए जाएँ। यह अधिवेशन एक अन्य कारण के लिए भी प्रसिद्ध है। इसी अधिवेशन में पिंगली वेंकैया ने गाँधीजी को तिरंगा झण्डा प्रस्तुत किया था। इस अधिवेशन के पश्चात् गाँधीजी ने सिर्फ लंगोटी पहनने का निश्चय किया।

कांग्रेस का अहमदाबाद अधिवेशन (दिसम्बर, 1921)

इस अधिवेशन में कांग्रेस ने गाँधीजी को सविनय अवज्ञा का लक्ष्य, समय तथा भावी रणनीति तय करने का पूरा अधिकार दे दिया। इस अधिवेशन के अध्यक्ष हकीम अजमल खाँ थे। 18 साल से ऊपर के सभी व्यक्तियों को स्वयंसेवक बनने की अपील की गई तथा उन्हें गिरफ्तारी देने को कहा गया। इसी सम्मेलन में कांग्रेस के इतिहास में पहली बार हसरत मोहानी द्वारा “पूर्ण स्वतन्त्रता जो सभी विदेशी नियन्त्रण से मुक्त हो,” को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित करने की मांग की गई। यद्यपि इस प्रस्ताव का महात्मा गाँधी द्वारा विरोध किया गया।

अहमदाबाद अधिवेशन के पश्चात् गाँधीजी ने वायसराय को पत्र लिखा, जिसका सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा, वह अपना दमन चक्र चलाती रही। 1 फरवरी, 1922 को गाँधीजी ने घोषणा की, कि यदि सरकार राजनैतिक बन्दियों को रिहा कर नागरिक स्वतन्त्रता बहाल नहीं करेगी तथा प्रेस से नियन्त्रण नहीं हटाएगी, तो वे देशव्यापी सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ने के लिए बाध्य हो जाएँगे। गाँधीजी ने एक सप्ताह का समय दिया।

आन्दोलन के कार्यक्रम

कांग्रेस द्वारा इस आन्दोलन को अपनाने के कारण राष्ट्रीय आन्दोलन की व्यापकता बढ़ी। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए स्वयं गाँधीजी ने देशभर की यात्राएँ कीं। फरवरी, 1921 से आन्दोलन की गति तीव्र हो गई। असहयोग आन्दोलन के तहत दो प्रकार के कार्यक्रम बनाए गए

सरकार विरोधी कार्यक्रम

  • सरकारी खिताबों और मानद उपाधियों का त्याग करना।
  • स्थानीय निकायों में नामजदगी वाले पदों से त्यागपत्र।
  • सरकारी दरबारों और सरकारी अफसरों द्वारा या उनके सम्मान में किए जाने वाले सरकारी और अर्द्धसरकारी उत्सवों में भाग न लेना।
  • बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लेना
  • विवादों को सरकारी अदालतों में न ले जाना।
  • मेसोपोटामिया के लिए सेना में भर्ती न होना।

असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रमों को बहुत लोकप्रियता मिली। हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ने इनको स्वीकार किया। विदेशी वस्तुओं की होलियाँ जलाईं गईं। विद्यार्थियों ने विद्यालयों को त्याग दिया। वकीलों ने अदालत जाना छोड़ दिया। अनेक लोगों ने सरकारी पदों से त्यागपत्र दे दिया और सरकारी उपाधियाँ लौटा दी गईं।

रचनात्मक कार्यक्रम

असहयोग आन्दोलन के तहत सरकार के विरोध में किए जाने वाले कार्यक्रमों के साथ-साथ अनेक रचनात्मक कार्यक्रम भी किए गए; जैसे

  • स्वदेशी को बढ़ावा देना, इसके लिए चरखा एवं खादी को लोकप्रिय बनाया गया।
  • तिलक स्मारक कोष की स्थापना, जिसमें 1 करोड़ रुपये एकत्र करने का लक्ष्य रखा गया।
  • खादी को प्रोत्साहित करने हेतु 20 लाख चरखों का वितरण।
  • सरकारी विद्यालयों को छोड़ने वाले विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना। इस क्रम में काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, बंगाल नेशनल यूनिवर्सिटी, नेशनल कॉलेज लाहौर, जामिया मिलिया इस्लामिया कॉलेज, अलीगढ़ (बाद में दिल्ली स्थानान्तरित) आदि की स्थापना की गई।
  • विवादों के निपटारे के लिए पंच फैसला पीठे स्थापित की गईं।

असहयोग आन्दोलन की विभिन्न राज्यों में प्रगति

पंजाब लाला लाजपत राय की प्रेरणा से लाहौर में विद्यार्थियों द्वारा विद्यालयों का सफल बहिष्कार हुआ। यहाँ पर सशक्त अकाली विद्रोह उठा जो आरम्भ में धार्मिक सुधारवादी आन्दोलन था, लेकिन थोड़े समय के लिए असहयोग आन्दोलन के साथ एकरूप हो गया। नवम्बर, 1925 में ‘सिख गुरुद्वारा एवं श्राइन एक्ट’ के द्वारा गुरुद्वारों का नियन्त्रण शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के हाथों में दे दिए जाने पर समाप्त हो गया। अकाली आन्दोलन का उद्देश्य भ्रष्ट महन्तों के प्रभुत्व से गुरुद्वारों को छुड़ाकर प्रबन्ध अपने हाथ में लेना था।

राजस्थान यहाँ एक सशक्त कृषक आन्दोलन चला। उल्लेखनीय है कि यह सामन्ती रजवाड़ों वाला क्षेत्र था। यहाँ पर पहले से ही बिजौलिया के जागीरदार के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था, जिसका नेतृत्व सीताराम दास, विजय सिंह पथिक, माणिकलाल वर्मा ने किया। असहयोग आन्दोलन के समय भी यह आन्दोलन चल रहा था।

आगे चलकर माणिकलाल वर्मा ने राष्ट्रवादी मेवाड़ प्रजामण्डल (1938) की स्थापना की। वर्ष 1921-22 के दौरान मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भील आन्दोलन हुआ। इसने जनजातियों को एक करने के लिए एका आन्दोलन शुरू किया।

बम्बई प्रेसीडेन्सी यहाँ जयराम, दौलतराम (गाँधीजी के घनिष्ठ सहयोगी) तथा स्वामी गोविन्दानन्द महत्त्वपूर्ण नेता हुए, जिन्होंने बम्बई में असहयोग आन्दोलन को बढ़ावा दिया। गुजरात यहाँ गाँधीवादी आन्दोलन सबसे अधिक सशक्त था। कृष्णदास, गाँधीजी के साथ बारदोली ताल्लुके के निरीक्षण के लिए गए। महाराष्ट्र यहाँ असहयोग आन्दोलन अपेक्षाकृत कमजोर रहा। कर्नाटक इससे अछूता रहा।

मद्रास इस आन्दोलन के दौरान बर्किंघम एवं कर्नाटक टेक्सटाइल मिल्स में चार माह लम्बी हड़ताल हुई। इसमें थिरू वीका जैसे स्थानीय नेताओं का सहयोग मिला। सलेम के वकील राजगोपालाचारी ने वर्ष 1921 में वकालत छोड़ दी। यद्यपि सत्यमूर्ति, कस्तूरी रंगा अय्यर जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे अनिच्छापूर्वक अपनाया।

आन्ध्र मुहाना क्षेत्र यहाँ यह आन्दोलन सशक्त रहा। कोण्डा वेंकटपैया, ए कालेश्वर राव, टी प्रकाशम और पट्टाभि सीतारमैया जैसे नेताओं का समर्थन मिला। यहाँ व्यापारी वर्ग का भी पर्याप्त समर्थन प्राप्त हुआ। उन्नवा लक्ष्मीनारायण के तेलुगू उपन्यास मालपल्ली (वर्ष 1922) में गाँधीवादी उपायों का जिक्र किया गया है। गुण्टूर जिले के चिराल-पराल में डुगीराला गोपाल कृष्णैया के नेतृत्व में विरोध हुआ था।

मालाबार क्षेत्र इरनाड़ और वल्लुवनाड़ ताल्लुकों में कई जगह तक पुलिस नियन्त्रण समाप्त रहा। अनेक स्थानों पर ‘खिलाफत गणराज्य’ स्थापित किए गए, जिनके ‘राष्ट्रपति’ कुन्हमद हाजी, कालातिंगल मम्मद, अली मुसलियार, सीदी कायातंगल, इम्बची कोयातंगल आदि थे।

असम सुरमा घाटी के चाय बगानों में, चारगोला के कुलियों ने गाँधी महाराजा की जय के नारे लगाते हुए पारिश्रमिक में भारी वृद्धि की माँग की। वर्ष 1921 की घटनाओं ने असमिया साहित्य पर गहरी छाप छोड़ी। असम केसरी अम्बिका गिरि राय चौधरी की कविताओं में इसे देखा जा सकता है। वैष्णव सम्प्रदाय के गीतों में गाँधीजी को कृष्ण का स्थानापन्न बना दिया गया।

बंगाल सी आर दास के गाँधीजी के पक्ष में न होने के पश्चात् यहाँ भी आन्दोलन हुआ। सी आर दास के तीन अनुयायियों-वीरेन्द्र नाथ ने मिदनापुर, जे एम सेन गुप्ता ने चटगाँव तथा सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता रजे में नेतृत्व किया। सी आर दास की पत्नी वसन्ती देवी का अनुसरण करते हुए कई उच्च वर्ग की महिलाएँ जेल गईं।

बिहार गाँधीजी ने इस प्रान्त के बारे में स्वयं कहा “ऐसा प्रान्त है, जहाँ असहयोग आन्दोलन की दिशा में सर्वाधिक ठोस कार्य हो रहा है। इसके नेता अहिंसा की सच्ची भावना को समझते हैं।”

संयुक्त प्रान्त असहयोग आन्दोलन के समय इस राज्य में बढ़ते प्रभाव के बाद इसने राष्ट्रीय राजनीति में अग्रणी स्थान प्राप्त कर लिया। इस समय अनेक नेताओ जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टण्डन, गणेशशंकर विद्यार्थी, गोविन्द बल्लभ पन्त, लाल बहादुर शास्त्री आदि का राजनीति में पदार्पण हुआ। संयुक्त प्रान्त के बुद्धिजीवियों पर गाँधीजी का प्रभाव प्रेमचन्द के उपन्यासों (प्रेमाश्रम वर्ष 1921, रंगभूमि वर्ष 1925) में दिखाई देता है। स्वयं प्रेमचन्द ने गोरखपुर के एक सरकारी विद्यालय से त्याग-पत्र दे दिया था, उन्होंने आज (समाचार-पत्र) तथा काशी विद्यापीठ के लिए भी कार्य किया।

असहयोग आन्दोलन एवं समाज के विभिन्न वर्ग

व्यापारी वर्ग

असहयोग आन्दोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ। इससे कांग्रेस की स्थिति में सुधार हुआ। वर्ष 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोष में केवल ₹ 43,000 थे, किन्तु वर्ष 1921-23 को अवधि में यह ₹ 130 लाख जुटाने में सफल रही। शायद असहयोग आन्दोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन देखकर ही ब्रिटिश सरकार घबरा गई और वर्ष 1921 में भारतीय प्रतिनिधियों वाले एक वित्तीय आयोग का गठन किया, जिसका कार्य भारतीय उद्योगों में शुल्क पद्धति को सुरक्षित रखने के प्रश्न पर विचार करना था। तथापि बड़े व्यापारियों का एक गुट असहयोग आन्दोलन के विरुद्ध था। इनके द्वारा वर्ष 1920 में असहयोग आन्दोलन विरोधी सभा की स्थापना की गई इसके संस्थापक पुरुषोत्तमदास ठाकुर (अध्यक्ष), जमनादास, द्वारकादास. कावसजी जहाँगीर, फिरोज सेठना और सीतलवाड़ आदि थे।

श्रमिक वर्ग

इस अवधि में हुई 376 हड़तालों से श्रमिकों की भागीदारी का पता चलता है। स्वामी विश्वानन्द और स्वामी दर्शनानन्द ने झरिया खदान क्षेत्र के खनिको को संगठित करने का प्रयास किया। कांग्रेस के भी कुछ नेता हड़तालो में सक्रिय रहे, लेकिन गाँधीजी का इस सम्बन्ध में दृष्टिकोण स्पष्ट था। उनका मानना था कि “अहिंसक असहयोग आन्दोलन की योजना में हड़तालों के लिए कोई स्थान नहीं है। हम कोई राजनीतिक हड़ताल नहीं चाहते हमारा लक्ष्य पूँजी अथवा पूँजीपतियों को नष्ट करना नहीं है, अपितु पूँजी और श्रम के बीच सम्बन्धों को नियमित करना है। हम पूँजी को अपने पक्ष में प्रयुक्त करना चाहते हैं। सहानुभूतिपूर्ण हड़तालों को बढ़ावा देना भूल होगी।

कृषक वर्ग

संयुक्त प्रान्त के अवध क्षेत्र में वर्ष 1918 से पहले किसान सभा और किसान आन्दोलन शक्तिशाली हो रहे थे। असहयोग आन्दोलन ने पहले से चल रहे इस आन्दोलन को और तेज कर दिया।

अवध के दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व (प्रतापगढ़, फैजाबाद, सुल्तानपुर) में बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में यह विद्रोह चरम सीमा पर पहुँच गया। उत्तर पश्चिम के कुछ स्थानीय कांग्रेसियों ने अवध एकता आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन का नेतृत्व मदारी पासी ने किया। इनकी मांग थी कि लगान का भुगतान नकद हो। असहयोग आन्दोलन ने मालाबार में मुस्लिम काश्तकारों को भू-स्वामियों के विरुद्ध खड़े होने में सहायता को। विद्रोह को प्रेरणा सबसे पहले अप्रैल, 1920 मालाबार जिले के मंजेरो मे हुई कांग्रेस कॉन्फ्रेन्स से मिली। इसमें जमीदारों तथा काश्तकारो के सम्बन्धो को नियमित करने के लिए नियम कानून की मांग की गई। इस विद्रोह का सामाजिक आधार मोपला के काश्तकार थे।

शिक्षित वर्ग

शिक्षा के क्षेत्र मे बहिष्कार अधिक सफल रहा। लगभग 30 हजार छात्रों ने सरकारी स्कूल और कॉलेज छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्कूल एवं कॉलेज में भर्ती हो गए। उस समय देश में 800 राष्ट्रीय स्कूल एवं कॉलेज थे। पूरे देश में आचार्य नरेन्द्र देव, सी आर दास, लाला लाजपत राय, जाकिर हुसैन तथा सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में विभिन्न राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई। सुभाषचन्द्र बोस को नेशनल कॉलेज कलकत्ता का प्रधानाचार्य बनाया गया।

महात्मा यद्यपि प्राथमिक विद्यालय के स्तर पर इस आन्दोलन का प्रभाव नगण्य था। देश के वकीलों से वकालत छोड़ने के आह्वान पर कई प्रख्यात वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी। इनमें मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सी आर दास, सी राजगोपालाचारी, सैफुद्दीन किचल, वल्लभभाई पटेल, आसफ अली, टी प्रकाशम और राजेन्द्र प्रसाद आदि प्रमुख गांधी ने अपनी केसर-ए-हिन्द की उपाधि वापस कर दी तथा जमनालाल बजाज ने अपनी राय बहादुर की उपाधि वापस कर दी।

चौरी-चौरा काण्ड एवं असहयोग आन्दोलन का स्थगन (वर्ष 1922)

5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) काण्ड हुआ। भगवान अहीर के नेतृत्व में होने वाले एक प्रदर्शन के दौरान स्थानीय लोगों ने पुलिस से झड़प के पश्चात् पुलिस चौकी में आग लगा दी, जिसके कारण 22 पुलिस वालों की मौत हो गई। इस घटना के पश्चात् गाँधीजी ने 12 फरवरी, 1922 को असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया।

फरवरी, 1922 में बारदोली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। इसमें एक प्रस्ताव पारित कर ऐसी सभी गतिविधियों पर रोक लगा दी गई, जिनसे कानून का उल्लंघन होता है। इसके साथ ही कई रचनात्मक कार्यों को प्रारम्भ करने की घोषणा भी की गई, जो निम्नलिखित हैं

  • खादी को लोकप्रिय बनाना।
  • राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना।
  • हिन्दू-मुस्लिम एकता।
  • शराबबन्दी के समर्थन में अभियान।
  • अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान

समकालीन अन्य आन्दोलन

आन्दोलनवर्षप्रमुख तथ्य
झण्डा सत्याग्रह (नागपुर)वर्ष 1923कांग्रेस के ध्वज के प्रयोग को रोकने के विरुद्ध
बरसाड सत्याग्रह (गुजरात)वर्ष 1923डकैती रोकने के लिए अपेक्षित पुलिस दलों की नियुक्ति  हेतु लगाए गए कर के विरुद्ध
गुरु का बाग सत्याग्रह(पंजाब)वर्ष 1922-23 अपदस्थ महन्त और नवगठित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक के कारण कमेटी के बीच (विवादित भूमि पर एक पेड़ काटने के कारण)
तारकेश्वर सत्याग्रह (बंगाल)वर्ष 1924एक भ्रष्ट महन्त के विरुद्ध, स्वामी विश्वानन्द द्वारा प्रारम्भ
वायकाम सत्याग्रह (केरल)वर्ष 1924-25मन्दिर में प्रवेश हेतु, टी के माधवन द्वारा

असहयोग आन्दोलन के पश्चात् राजनीतिक स्थिति

वर्ष 1922 का वर्ष कांग्रेस के लिए एक संकट का वर्ष था। महात्मा गाँधी को अशान्ति फैलाने के जुर्म में 6 वर्ष की सज़ा हो गई थी। असहयोग आन्दोलन की समाप्ति और गाँधीजी की गिरफ्तारी के पश्चात् देश के राजनैतिक वातावरण में एक निराशा का माहौल छाया था। इसी बीच भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अन्तर्गत कराए जाने वाले वर्ष 1923 के चुनावों में भाग लेने के उद्देश्य से कांग्रेस में एक समूह का निर्माण हुआ। इसने भी कांग्रेस के भीतरी संकट को मुखर अभिव्यक्ति दी। कांग्रेस इस समय दो विचारधारा वाले समूहों में बँट गई, इसमें से एक परिवर्तनवादी थे, जो असहयोग आन्दोलन के बाद की लड़ाई को विधानपरिषद् में ले जाना चाहते थे। दूसरे वह थे, जो विधानपरिषदों में प्रवेश के विरोधी थे तथा गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम को आगे बढ़ाना चाहते थे।

स्वराज पार्टी

दिसम्बर, 1922 के गया अधिवेशन में सी आर दास ने अपने अध्यक्षीय भाषण में विधानपरिषद् में प्रवेश का प्रस्ताव रखा। उनका कहना था कि असहयोग आन्दोलन वापस लेने से लोग हीन मनोबल और हताशा के शिकार हो गए हैं। अत: इस समय रणनीति में बदलाव लोगों में नए उत्साह का संचार कर सकता है।

सी आर दास की जोरदार वकालत के बावजूद गया अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित न हो सका। विपक्षी गुट का नेतृत्व सी राजगोपालाचारी ने किया था। प्रस्ताव पारित न होने पर सी आर दास और मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया तथा मार्च, 1923 में इलाहाबाद में स्वराज पार्टी बनाई (पूर्व में इसका नाम ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ था)। इसके पश्चात् स्वराज पार्टी वालों को ‘परिवर्तन समर्थक’ (प्रोचेंजर्स) तथा विरोधियों (कांग्रेस) को ‘परिवर्तन विरोधी’ (नो-चेंजर्स) कहा जाने लगा।

स्वराज पार्टी ने अपने को कांग्रेस के अभिन्न अंग के रूप में प्रचारित किया तथा अहिंसा और असहयोग के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई। आरम्भ में स्वराज पार्टी के लक्ष्यों को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ।

पार्टी के संविधान में यह घोषणा की गई कि इसका तात्कालिक लक्ष्य डोमिनियन स्टेट्स की प्राप्ति है। सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में युवा सदस्यों ने इसका विरोध किया और पूर्ण स्वाधीनता का लक्ष्य घोषित करने की माँग की। मार्च, 1923 में इलाहाबाद में पार्टी के पहले सम्मेलन में बड़ी संख्या में इसके सदस्यों ने पूर्ण-स्वराज की माँग की।

सितम्बर, 1923 में मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में दिल्ली में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन हुआ। इसमें कांग्रेस ने विधानपरिषद् में प्रवेश का विरोध समाप्त करने का निश्चय किया। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत रूप से चुनाव लड़ने और मतदान करने की इजाजत दे दी गई। कांग्रेस के इसी अधिवेशन में स्वराज पार्टी और उसके कार्यक्रमों को कांग्रेस संगठन के अन्तर्गत मान्यता दे दी गई।

5 फरवरी, 1924 को गाँधीजी को रिहा कर दिया गया। गाँधीजी विधानपरिषद् का सदस्य बनने और उसकी कार्यवाही में बाधा पहुँचाने की नीति के विरोधी थे।

6 नवम्बर, 1924 को गाँधीजी, सी आर दास, मोतीलाल नेहरू ने एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कहा गया था कि स्वराजी नेता कांग्रेस के अभिन्न अंग के रूप में, कांग्रेस के नेतृत्व में, विधानमण्डल में अपना काम करते रहेंगे। दिसम्बर के बेलगाँव (पूना) अधिवेशन में इसकी अनुमति दे दी गई।

स्वराज पार्टी की राजनीति

स्वराज पार्टी ने वर्ष 1923 में चुनाव घोषणा-पत्र में साम्राज्यवाद के विरोध को प्रमुख मुद्दा बनाया। यद्यपि स्वराजियों को चुनाव का बहुत कम समय मिला, लेकिन उन्हें बड़ी सफलता मिली। उन्हें केन्द्रीय विधानसभा के 101 निर्वाचित सीटों में से 42 सीटें मिलीं। प्रान्तीय विधानपरिषद् में मध्य प्रान्त में स्पष्ट बहुमत मिला। बंगाल में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे तथा बम्बई एवं उत्तर प्रदेश में अच्छी सफलता मिली।

मद्रास तथा पंजाब में जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता के कारण अच्छी सफलता नहीं मिली। सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में स्वराजियों ने साझा राजनैतिक मोर्चा बनाया। इसमें जिन्ना के नेतृत्व में उनके समर्थक, उदारवादी एवं व्यक्तिगत विधायक यथा मदनमोहन मालवीय आदि थे। चुनाव के पश्चात् स्वराजियों ने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए और वर्ष 1919 के सुधारों की पोल खोल दी।

स्वराजियों के प्रमुख कार्य

पहले ही अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने भारतीयों को सत्ता हस्तान्तरण के लिए नया संविधान बनाने की राष्ट्रीय मांग उठाई। सरकार की बजट माँगों के सवाल पर कई बार हार हुई। वर्ष 1923-24 में स्थानीय निकायों तथा नगरपालिका के चुनाव हुए। ‘नो चेंजर्स’ ने भी इसमें हिस्सा लिया। चुनाव में सी. आर. दास कलकत्ता के, विट्ठलभाई पटेल अहमदाबाद के, राजेन्द्र प्रसाद पटना के तथा जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद के मेयर चुने गए।

25 अक्टूबर, 1924 को आतंकवाद से निपटने के नाम पर सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया, जिसके अन्तर्गत कांग्रेस कार्यालयों और नेताओं के घर छापे मारे गए। छापे के दौरान सुभाषचन्द्र बोस तथा बंगाल विधानमण्डल के दो स्वराजी विधायक अनिल बरन राय और एस सी मित्र को गिरफ्तार कर लिया गया। उधर 16 जून, 1924 को सी आर दास की मृत्यु हो गई। इससे स्वराजियों के लिए संकट की स्थिति आ गई, लेकिन अब तक स्वराजियों ने अपना काम कर दिया था तथा संवैधानिक सुधारों की पोल खोल दी थी।

नवम्बर, 1926 में चुनाव में पार्टी को जैसा कि अनुमान था कम समर्थन मिला, लेकिन इस बार भी उन्होंने कई मौकों पर स्थगन प्रस्ताव लाने का कार्य किया; जैसे-1928 में सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (पब्लिक सेफ्टी बिल) मोतीलाल नेहरू ने इसे ‘भारतीय गुलामी विधेयक नं. 1’ कहा। पूँजीवाद के दो कट्टर समर्थकों पुरुषोत्तमदास ठाकुर और जी. डी. बिड़ला ने भी विधेयक का विरोध किया। लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पारित प्रस्तावों और सविनय अवज्ञा आन्दोलन छिड़ने के कारण वर्ष 1930 में स्वराजियों ने विधानमण्डल का दामन छोड़ दिया।

स्वराज पाटी में विभाजन

जून, 1925 में सी आर दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज पार्टी में भी संकट के बादल मंडराने लगे थे। पार्टी में कुछ सत्ता लोलुप लोगों का प्रवेश हो गया। लाला लाजपत राय तथा मदनमोहन मालवीय ने स्वतन्त्र कांग्रेस पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी के पास राजनीतिक नरमदल और स्पष्ट हिन्दूवाद का मिला-जुला कार्यक्रम था। स्वराज पार्टी पुनः निम्नलिखित दो गुटों में बँट गई

  1.  प्रत्युत्तरवादी गुट यह सरकार के साथ सहयोग करने का इच्छुक था (हिन्दू हितों की रक्षा के लिए)। नेता-एस. सी. केलकर, एम आर जयकर, लाला लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय।
  2. अप्रत्युत्तरवादी गुट यह सरकार तथा प्रत्युत्तरवादी दोनों गुटों का विरोधी था।

सरकार के प्रति सहयोग की नीति का अनुसरण सर्वप्रथम मध्यप्रान्त काउन्सिल में स्वराज पार्टी के नेता एस वी ताम्बे ने किया. इन्होंने गवर्नर की कार्यकारिणी में मन्त्रिपद स्वीकार कर लिया था। मोतीलाल नेहरू ने वर्ष 1925 के आरम्भ में थल सेना के भारतीयकरण के लिए बनाई गई इण्डियन सैडहर्स्ट कमेटी का सदस्य बनना स्वीकार कर लिया। इसके अन्य सदस्य मोहम्मद अली जिन्ना, एम. रामचन्द्र राव, लेफ्टिनेण्ट जनरल सर एण्डू स्कीन (अध्यक्ष) थे। इस कमेटी का उद्देश्य यह जाँच करना एवं रिपोर्ट देना था कि कौन-से उपायों के द्वारा किंग कमीशन में भारतीय अभ्यर्थियों की आपूर्ति बेहतर की जा सकती है।

परिवर्तन विरोधियों के कार्य

नो चेंजर्स इस समय रचनात्मक कार्यों में जुटे रहे। उन्होंने कई रचनात्मक कार्य किए, जो इस प्रकार हैं

  • खादी का प्रचार, खादी आश्रमों की स्थापना।
  • राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना।
  • हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास।
  • पिछड़ी एवं आदिवासी जातियों के लिए काम।

गुजरात के बारदोली तालुका में वेदची आश्रम में चिमनलाल मेहता, जगतराम दवे और चिमनलाल भट्ट ने आदिवासियों को शिक्षित करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। गाँधी सेवा संघ की स्थापना की गई इसके सदस्यों में राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, सरदार वल्लभभाई पटेल, गंगाधर राव, जमनालाल बजाज आदि थे।

गाँधीजी ने यंग इण्डिया में 23 फरवरी, 1922 को ही मॉण्टेग्यू एवं बर्कनहेड की चुनौती का उत्तर दे दिया था अंग्रेजों को यह जान लेना चाहिए कि वर्ष 1920 में छिड़ा संघर्ष अन्तिम संघर्ष है, निर्णायक संघर्ष, फैसला होकर रहेगा, चाहे एक महीना लग जाए या एक साल लग जाए, कई महीने लग जाएँ या कई साल लग जाएँ। अंग्रेजी हुकूमत चाहे उतना ही दमन करे, जितना 1857 ई. के विद्रोह के समय किया था, फैसला होकर रहेगा।”

क्रान्तिकारी आन्दोलन : द्वितीय चरण

वर्ष 1922 में गाँधीजी द्वारा अचानक असहयोग आन्दोलन वापस ले लेने से देश में युवाओं को निराशा हुई। इससे उनके अन्दर यह भावना पनपी कि केवल हिंसात्मक तरीकों से ही स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकती है। रूस, चीन, आयरलैण्ड, तुर्की, मिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर इन्होने ब्रिटिश साम्राज्य को खत्म करने की कोशिश की।

इसके लिए उन्होंने पुरानी संस्थाओं, यथा—युगान्तर, अनुशीलन समिति आदि को पुनर्जीवित किया। इस चरण की एक प्रमुख विशेषता जो इसे पिछले से भिन्न करती है, इसमें एक सामाजिक कार्यक्रम अपनाया गया जो कि समाजवाद पर आधारित था। दूसरी विशेषता यह थी कि ये संगठन अब धर्म पर बल नहीं देते थे तथा उनका दृष्टिकोण धर्म-निरपेक्ष था।

क्रान्तिकारी संगठन

वर्ष 1923-24 में गोपीनाथ साहा ने एक ब्रिटिश अधिकारी ‘डे’ की हत्या कर दी। इस चरण में एक अखिल भारतीय संगठन तथा संगठनों के मध्य अच्छे तालमेल की आवश्यकता का अनुभव किया गया। इस हेतु अक्टूबर, 1924 में समस्त क्रान्तिकारी दलों का कानपुर में सम्मेलन बुलाया गया तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच आर ए) नामक संगठन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना शचीन्द्र नाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चन्द्र चटर्जी तथा चन्द्रशेखर आजाद ने कानपुर में की थी। इस संस्था के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे

  • संगठित सशस्त्र क्रान्ति के द्वारा ब्रिटिश सत्ता को समाप्त कर एक ‘संघीय गणतन्त्र’ की स्थापना की जाए, जिसे ‘संयुक्त राज्य भारत’ कहा जाए।
  • आन्दोलन की सफलता के लिए शस्त्र और धन हेतु राजनैतिक डकैतियाँ एवं अपहरण।
  • एच आर ए की शाखाओं का विस्तार।

काकोरी काण्ड के बाद पुलिस द्वारा चलाए गए दमन चक्र के फलस्वरूप एच. आर. ए. का अस्तित्व कुछ समय के लिए खत्म-सा हो गया, परन्तु कुछ समय के पश्चात् हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन को पुन: संगठित करने का प्रयास किया गया। 9-10 सितम्बर, 1928 को फिरोजशाह कोटला मैदान (दिल्ली) में चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में एक बैठक हुई, जिसमें एच आर ए का नाम बदल कर एच एस आर ए (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) रखा गया। इसमें विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव ने उनका सहयोग किया।

क्रान्तिकारियों का दर्शन

वर्ष 1925 में एच. आर. ए के घोषणा-पत्र में कहा गया कि एच. आर. ए. का उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है। अक्टूबर, 1924 में इसकी संस्थापक परिषद् ने जनता को सामाजिक क्रान्तिकारी और साम्यवादी सिद्धान्तों की शिक्षा देने के लिए उनका प्रचार-प्रसार करने का निर्णय लिया।

क्रान्तिकारियों ने रेलवे तथा भारी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का लक्ष्य भी रखा था। एचआरए ने मजदूरों और किसानों का संगठन बनाने तथा संगठित हथियारबन्द क्रान्ति के लिए काम करने का भी निर्णय लिया।

क्रान्तिकारी आन्दोलन को दार्शनिक आधार प्रदान करने में भगतसिंह की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। भगतसिंह असाधारण बुद्धिजीवी थे, उन्होंने समाजवाद, सोवियत संघ और क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बद्ध तमाम ग्रन्थों का अध्ययन किया था। लाहौर में सुखदेव तथा अन्य लोगों की मदद से उन्होंने अनेक अध्ययन केन्द्र खुलवाए थे और राजनैतिक विषयों पर युवाओं के मध्य बहसों का सिलसिला आरम्भ करवाया। इसी उद्देश्य से भगतसिंह ने वर्ष 1926 में भारत नौजवान सभा का गठन किया। इस संगठन के वे संस्थापक महामन्त्री थे। क्रान्तिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन व विचारधारा की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण होती है, इस बात को जनता तक पहुँचाने के लिए भगतसिंह ने लाहौर में कोर्ट के समक्ष कहा था, “क्रान्ति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से ही आती है।” उन्होंने मैं नास्तिक क्यों हूँ नामक एक पुस्तक लिखी।

जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने के लिए भगवतीचरण बोहरा ने द फिलॉसफी ऑफ बॉम्ब (बम का दर्शन) नामक दस्तावेज तैयार किया था। व्यक्तिगत बहादुरी की कार्यवाहियों और आतंकवादी गतिविधियों से भगतसिंह का विश्वास उठ चुका था। वे मार्क्सवादी हो चले थे तथा विश्वास करते थे कि व्यापक जनान्दोलन से ही क्रान्ति लाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में, जनता के लिए जनता ही क्रान्ति कर सकती थी। वर्ष 1929 से 1931 के दौरान अदालत में तथा उसके बाहर जो बयान भगतसिंह व उनके साथियों ने दिए, उनका सार यह था कि क्रान्ति का अर्थ बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के शोषित, दलित व गरीबों के जनान्दोलनों का विकास है।

क्रान्तिकारी आन्दोलन के दोनों चरणों में अन्तर

पहला चरणदूसरा चरण
इसमें अधिकांश क्रान्तिकारी नेता राष्ट्रवादी थे और इनमें से कुछ में विशेषतः बंगाल में रहस्यवाद की झलक मिलती है; जैसे-शक्तिपूजा इसमें रहस्यवाद की झलक नहीं मिलती।
इस समय की नीति अधिकांशतः हत्या और लूटपाट पर आधारित थी।इस चरण में सरकारी संस्थानों पर हमला करने और इसमें जो रुकावट डाले उसे खत्म करने पर आधारित थी।
पहले चरण के क्रान्तिकारी ब्रिटिश साम्राज्य को उलटना चाहते थे मगर स्वतन्त्रता के बाद कैसे समाज की रचना करनी है। इसके बारे में उनका दृष्टिकोण साफ नहीं था।इस चरण में समाजवादी विचारधारा के प्रभाव स्वरूप मजदूर-किसान राज्य की स्थापना तथा पूँजीवादी जागीरदारी का अन्त जैसी स्पष्ट विचारधारा थी, उन्होंने व्यापक क्रान्तिकारी सामाजिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया।
महिलाओं की सीमित भूमिकामहिलाओं की सक्रिय भूमिका

प्रमुख क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

इस चरण की प्रमुख क्रान्तिकारी गतिविधियाँ निम्नलिखित हैं

काकोरी काण्ड

एच. आर. ए की प्रारम्भिक गतिविधियों में काकोरी काण्ड प्रमुख हैं। रामप्रसाद बिस्मिल ने यह विचार पेश किया कि धन इकट्ठा करने के लिए राजनैतिक डकैतियाँ की जानी चाहिए, लेकिन इसका उद्देश्य मात्र सरकारी धन प्राप्त करना ही होना चाहिए। इस उद्देश्य से 9 अगस्त, 1925 को उत्तर रेलवे के लखनऊ-सहारनपुर सम्भाग के काकोरी नामक स्थान पर 8 डाउन ट्रेन पर डकैती डालकर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। इस डकैती के पश्चात् 29 लोगों को गिरफ्तार करके उन पर मुकदमा चलाया गया। चार क्रान्तिकारियों को फाँसी दे दी जिनमें-रामप्रसाद बिस्मिल (गोरखपुर में), अशफाक उल्ला खाँ (फैजाबाद में), रोशनलाल (नैनी, इलाहाबाद में) तथा राजेन्द्र लाहिड़ी (गोण्डा में) थे।

साण्डर्स की हत्या

साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के दौरान जेम्स स्कॉट की लाठी से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। एच एस आर ए के क्रान्तिकारियों ने स्कॉट को मृत्युदण्ड देने का निर्णय किया, किन्तु स्कॉट के धोखे में पुलिस अधिकारी साण्डर्स एवं उसके रीडर चरणसिंह की हत्या हो गई। इसे 17 दिसम्बर, 1928 को भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव आदि ने अंजाम दिया था।

सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली बम काण्ड

एच एस आर ए के दो सदस्यों भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंके। इन्होंने पब्लिक सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्पुट बिल के विरोध में बम फेंका था, जिसका उद्देश्य सरकार को डराना मात्र था। बम खाली स्थान पर फेंका गया था। केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंकते समय ही भगतसिंह ने पहली बार इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया था।

उल्लेखनीय है कि सर्वप्रथम इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा इकबाल ने दिया था। भगतसिंह ने इन्कलाब जिन्दाबाद एवं साम्राज्यवाद का नाश हो, के नारे लगाए। इस बम के साथ उन्होंने पर्चे भी फेंके, जिसमें यह सन्देश था कि “बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए।” यद्यपि इस बम काण्ड में किसी की मृत्यु नहीं हुई थी, लेकिन भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर पुलिस द्वारा 5 अप्रैल, 1929 को HSRA की बम फैक्ट्री (लाहौर) में छापा डाला गया और किशोरी लाल, सुखदेव तथा जयगोपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु आदि क्रान्तिकारियों द्वारा राजनीतिक कैदी का दर्जा देने तथा जेल की अव्यवस्था के कारण इन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी।

भूख हड़ताल 13 जुलाई, 1929 को शुरू हुई। जेल प्रशासन ने इस हड़ताल को दबाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। 64वें दिन, 13 सितम्बर, 1929 को जतिन दास की मृत्यु हो गई। । 23 मार्च, 1931 को लाहौर षड्यन्त्र केस में भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फाँसी दे दी गई।

एल्फ्रेड पार्क की मुठभेड़

फरवरी, 1931 में चन्द्रशेखर आजाद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी ने उन्हें भगत सिंह मामले में जवाहरलाल नेहरू से इलाहाबाद में मिलने की सलाह दी। आजाद 27 फरवरी, 1931 को नेहरू से मिले और फाँसी की सजा के सम्बन्ध में सहायता माँगी।

इसी दिन आजाद एल्फ्रेड पार्क गए, जहाँ पर वे कुछ साथियों (सुखदेव राज) के साथ गुप्त मन्त्रणा कर रहे थे। इसी समय किसी साथी भेदिए की सूचना पर पुलिस वहाँ आ गई, जिसका नेतृत्व जान नाट बावर और उसका सहायक विश्वेश्वर सिंह कर रहा था।

आजाद ने अन्तिम समय तक उनसे संघर्ष किया और सुखदेव राज को भगा दिया। अन्त में उनके पास केवल एक गोली बची थी। उनका प्रण था कि वह कभी जिन्दा नहीं पकड़े जाएँगे, उन्होंने स्वयं को गोली मार ली। चन्द्रशेखर आजाद की मृत्यु से एच एस आर ए की गतिविधियाँ समाप्त हो गईं। चन्द्रशेखर आजाद की मृत्यु के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने यशपाल को अपना नेता चुना था।

चटगाँव आर्मरी रेड

पूर्वी बंगाल में चटगाँव नामक बन्दरगाह पर मशहूर क्रान्तिकारी सूर्यसेन के नेतृत्व में वहाँ के क्रान्तिकारियों ने विद्रोह का प्रयत्न किया। सूर्यसेन ने इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी (आई. आर. ए) की स्थापना की तथा यह गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन के समय बंगाल के प्रमुख नेता थे। इसके सदस्यों में अनन्त सिंह, अम्बिका चक्रवर्ती, लोकीनाथ बाउल, प्रीतिलता वाडेदार, गणेश घोष, कल्पना दत्त, आनन्द गुप्ता, मीर अहमद, फकीर अहमद, तुनु मियाँ आदि थे। सूर्यसेन ने भारतीय गणतन्त्र सेना की ओर से एक घोषणा-पत्र जारी किया, जिसमें चटगाँव मैमनसिंह के सरकारी शस्त्रागारों पर एक ही समय हमला करने की योजना थी। इस हेतु 18 अप्रैल, 1930 को सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव, बरीसाल तथा मैमन सिंह स्थित सरकारी शस्त्रागारों पर कब्जा कर लिया।

शस्त्रागार पर कब्जे के पश्चात् 65 सदस्यीय क्रान्तिकारी दल के समक्ष सूर्यसेन ने इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा लगाया, तिरंगा झण्डा फहराया तथा अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार का गठन किया। सूर्यसेन इसके राष्ट्रपति बने। 22 मई, 1930 को ब्रिटिश सेना और आई आर ए के मध्य संघर्ष हुआ। क्रान्तिकारी कारतूस लेना भूल गए थे। कई क्रान्तिकारी पकड़े गए और उन पर मुकदमा दायर हुआ। सूर्यसेन 16 फरवरी, 1933 को गिरफ्तार कर लिए गए तथा 12 जनवरी, 1934 को उन्हें फाँसी दे दी गई। प्रीतिलता वाडेदार ने अंग्रेजों से बचने के लिए आत्महत्या कर ली थी। कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली।

महिलाओं की भागीदारी

क्रान्तिकारी आन्दोलन के द्वितीय चरण में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी रही। दुर्गादेवी, सुशीला देवी, प्रेम देवी तथा प्रकाशवती कपूर आदि महिलाओं ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल की क्रान्तिकारी महिलाओं की भूमिका ज्यादा सक्रिय रही। दिसम्बर, 1931 कोमिला की दो युवतियों सुनीति चौधरी और शान्ति घोष ने कोमिला के जिलाधिकारी की हत्या कर दी।

फरवरी, 1932 में छात्रा बीना दास ने दीक्षान्त समारोह के दौरान उपाधि ग्रहण करते समय गवर्नर पर गोली चलाई। प्रीतिलता वाडेकर पहाड़तली (चटगाँव) रेलवे इन्स्टीट्यूट पर छापा मारने के समय शहीद हो गईं। कल्पनादत्त सूर्यसेन के साथ वर्ष 1935 में गिरफ्तार हुई, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई।

साइमन कमीशन (वर्ष 1927)

वर्ष 1919 के भारत शासन अधिनियम में 10 व पश्चात् इस अधिनियम की समीक्षा के लिए एक आयोग के गठन का प्रावधान था, परन्तु आयोग की नियुक्ति दो वर्ष पूर्व वर्ष 1927 में ही कर दी गई। इसका कारण ब्रिटेन में कुछ समय बाद चुनाव होने वाले थे तथा अनुदारवादी दल को यह आशंका थी कि भावी चुनाव में लेबर पार्टी सत्ता में आने वाली है। भारत सचिव यह नहीं चाहते थे कि शाही आयोग की नियुक्ति का श्रेय लेबर पार्टी को जाए। इसके अलावा वे इस मसले को श्रमिक दल के पास नहीं जाने देना चाहते थे।

आयोग के सदस्य थे-सर जॉन साइमन (अध्यक्ष); क्लाइमेण्ट एटली, हेनरी लेवी लासन, एडवर्ड काडोगान, वेर्नोन हार्टशोर्न, जॉर्ज लेन फॉक्स एवं डोनाल्ड हावर्ड। भारत परिषद् के द्वारा साइमन कमीशन से सहयोग करने के लिए एक अखिल भारतीय समिति की नियुक्ति की गई। इसकी नियुक्ति इरविन ने की थी, इसके सदस्य थे

  • सर सी शंकरन नैयर (अध्यक्ष)।
  • सर ऑर्थर फ़ूम
  • राजा नवाब अली खान।
  • सरदार शिवदेव सिंह उवेराय।
  • नवाब सर जुल्फिकार अली खान।
  • सर हरिसिंह गौर।
  • सर अब्दुल्ला अल-ममून सुहरावर्दी।
  • कीकाभाई प्रेमचन्द।
  • राव बहादुर एम सी राजा।

साइमन कमीशन का विरोध

साइमन कमीशन वर्ष 1928 में भारत आया, जहाँ उसका व्यापक विरोध हुआ। जिस आयोग को भारत का भविष्य निर्धारण करना था, उसमें एक भी भारतीय की नियुक्ति नहीं की गई थी। इस कारण से इसे श्वेत कमीशन भी कहा जाता है। कांग्रेस ने मद्रास अधिवेशन (1927) में एम ए अंसारी की अध्यक्षता में ‘प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक स्वरूप’ में साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय लिया। किसान मजदूर पार्टी, लिबरल फेडरेशन, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग ने भी री कमीशन के बहिष्कार की नीति अपनाई।

और मुस्लिम लीग में साइमन कमीशन के बहिष्कार के सवाल पर फूट पड़ गई। कमीशन के साथ सहयोग के पक्षपातियों का एक गुट लीग (मोहम्मद शफी के नेतृत्व) से अलग हो गया। मोहम्मद अली जिन्ना कमीशन के बहिष्कार के सवाल पर कांग्रेस के साथ थे।

पंजाब के संघवादियों (यूनियनिस्ट) तथा दक्षिण भारत की जस्टिस पार्टी ने कमीशन का बहिष्कार न करने की नीति अपनाई। डॉ. बी आर अम्बेडकर के नेतृत्व में संचालित डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन और हरिजनों के कुछ संगठनों ने साइमन कमीशन का समर्थन किया। 3 फरवरी, 1928 को साइमन कमीशन (बम्बई) भारत पहुंचा था; यद्यपि 8 नवम्बर, 1927 में ही इसकी नियुक्ति की घोषणा कर दी गई थी। इस दिन देशव्यापी हड़ताल आयोजित की गई। कमीशन जहाँ भी गया; वहाँ पूर्ण हड़ताल रखी गई।

साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाए गए। साइमन कमीशन का लखनऊ में खलिक उज्जमा, मद्रास में टी प्रकाशम, कलकत्ता में सुभाषचन्द्र बोस, लाहौर में लाला लाजपत राय आदि ने विरोध किया। लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व करते समय लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय गम्भीर रूप से घायल हो गए। लाला लाजपत राय ने कहा “मेरे ऊपर लाठियों से किया गया एक-एक प्रहार, एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा। कुछ दिनों बाद लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई।”

साइमन कमीशन की मुख्य सिफारिशें

वर्ष 1928 तथा 1929 के बीच साइमन कमीशन दो बार भारत आया। इसने मई, 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस पर लन्दन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में विचार होना था। जो निम्नलिखित थी

  • प्रान्तों में द्वैध-शासन को खत्म किया जाना चाहिए। प्रान्तीय क्षेत्रों में कानून तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए।
  • केन्द्रीय विधानमण्डल का पुनर्गठन किया जाए। इसमें संघीय भावना हो तथा इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से चुने जाएँ।
  • केन्द्र में उत्तरदायी सरकार का गठन न किया जाए, क्योंकि इसके लिए उचित समय नहीं आया है।
  • गवर्नर के पास प्रोविन्स की शान्ति एवं सुरक्षा तथा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए विशेष शक्तियाँ होनी चाहिए।
  • गवर्नर के पास संविधान के कार्य न करने की स्थिति एवं हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार होना चाहिए।
  • मताधिकार का विस्तार किया जाना चाहिए। इसे 2.8% से बढ़ाकर 10-15% किया जाना चाहिए। विधानसभा का विस्तार किया जाना चाहिए।
  • केन्द्र में एक फेडरल असेम्बली जिसमें जनसंख्या के आधार पर प्रोविन्स तथा अन्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि हों।
  • काउन्सिल ऑफ स्टेट को अपर हाउस के रूप में जारी रखा जाए, लेकिन इसके सदस्य प्रत्यक्ष न चुनकर प्रान्तीय परिषदों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाएँ।
  • केन्द्रीय कार्यपालिका में कोई परिवर्तन न हो।
  • अखिल भारतीय संघ का विचार तत्काल क्रियान्वित करने को अव्यावहारिक माना गया।
  • बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग किया जाए और उसका अपना अलग संविधान हो

साइमन कमीशन की नियुक्ति का प्रभाव

साइमन कमीशन ने राष्ट्रवादियों के मध्य पूर्ण स्वराज के साथ समाजवादी आधार पर सामाजिक-आर्थिक सुधारों की मांग को और बढ़ा दिया। बर्कनहैड (भारत सचिव) की चुनौती के फलस्वरूप एक सर्वसम्मत संविधान के निर्माण की दिशा में प्रयास शुरू हुआ। मार्च, 1927 में दिल्ली में एक सम्मेलन में जिन्ना ने मुस्लिम नेताओं के साथ एक समझौते के सूत्र का निर्माण किया, जिसके मुख्य प्रावधान निम्न थे

  •  संयुक्त निर्वाचक मण्डलों के साथ-साथ मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान। • केन्द्रीय धारा सभा में मुसलमानों के लिए 1/3 भाग प्रतिनिधित्व।
  • बंगाल एवं तीन नए-मुस्लिम बहुल प्रान्तों (सिन्ध, बलूचिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त) में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व।

यदि ये माँगें मान ली जाती तो मुस्लिम लीग पृथक् निर्वाचक मण्डलों का विचार त्याग देती, जो वर्ष 1906 से उसका कार्यक्रम था। मुस्लिम लीग के वर्ष 1927 के अधिवेशन में इसे दोहराया गया।

अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने मई, 1927 तथा कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में जिन्ना के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, लेकिन पंजाब एवं महाराष्ट्र से साम्प्रदायिक दबाव बढ़ने पर कांग्रेस को पीछे हटना पड़ा।

बटलर समिति (1927 ई०)

भारतीय राज्य समिति द्वारा सर हाईकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में वर्ष 1927 में गठित समिति को ही ‘बटलर समिति’ कहा जाता है। इस समिति का गठन ब्रिटिश सरकार व देशी रजवाड़ों के बीच के सम्बन्धों की जाँच व स्पष्टीकरण के लिए किया गया था।

नेहरू रिपोर्ट (वर्ष 1928)

लॉर्ड बर्कनहेड (भारत सचिव) ने साइमन कमीशन की नियुक्ति करने के साथ ही राष्ट्रीय नेतृत्व को एक ऐसा संविधान बनाने की चुनौती भी दी, जो देश के सभी समुदायों और वर्गों को स्वीकार हो। अंग्रेज यह मानकर चल रहे थे कि विशेष रूप से मुसलमान तो ब्रिटिश सरकार के सामने संयुक्त सांविधानिक माँग रखने में हिन्दुओं का कभी साथ नहीं देंगे। वर्ष 1927 के मद्रास अधिवेशन में यह तय किया गया कि अन्य राजनैतिक दलों की सहमति से स्वतन्त्र भारत के लिए संविधान का मसौदा बनाया जाए। कांग्रेस ने जनवरी, 1928 में दिल्ली में प्रथम और इसी वर्ष मार्च में द्वितीय सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया।

इसमें कुल 29 दलों ने भाग लिया। 19 मई, 1928 को तीसरा सर्वदलीय सम्मेलन बम्बई में डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की गई एवं इसे 1 जुलाई, 1928 तक भारत के संविधान का एक मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई। इस समिति के सम्मुख मुख्यत: दो चुनौतियाँ थीं। युवा पीढ़ी के वे राष्ट्रवादी, जो राष्ट्रीय आन्दोलन में आमूल परिवर्तन लाने के पक्ष में थे और पूर्ण स्वराज को तात्कालिक लक्ष्य के रूप में रखना चाहते थे एवं विभिन्न धार्मिक समुदायों का समर्थन प्राप्त करना। अन्तत: नेहरू समिति ने 28 अगस्त, 1928 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसे लखनऊ में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार कर लिया गया।

नेहरू रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशें

  • भारत को अधिराज्य (डोमिनियन) का दर्जा दिया जाए। इसका स्थान ब्रिटिश शासन के अधीन अन्य उपनिवेशों के समान ही हो।
  • साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर दिया जाए, इसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली अपनाई जाए। केन्द्र तथा उन राज्यों में जहाँ मुसलमान अल्पसंख्या में हों, उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ स्थानों को आरक्षित कर दिया जाए। (यह व्यवस्था वहाँ न लागू की जाए, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों; जैसेपंजाब, बंगाल)।
  • भाषायी आधार पर प्रान्तों का गठन हो
  • केन्द्र एवं राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो। केन्द्र सरकार का प्रमुख गवर्नर-जनरल हो जिसकी नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा हो, वह केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् की सलाह पर कार्य करे, जो केन्द्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी हो।
  • प्रान्तीय व्यवस्थापिका का कार्यकाल 5 वर्ष हो।
  • भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा, लेकिन अल्पसंख्यकों (मुसलमान) के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों का पूर्ण संरक्षण होगा।
  • केन्द्र एवं प्रान्त में संघीय आधार पर शक्ति का विभाजन, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र के पास हों।
  • भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की बात की गई।
  • देशी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाए। उत्तरदायी शासन की स्थापना के पश्चात् ही किसी राज्य को संघ में के सम्मिलित किया जाए।
  • सिन्ध को बम्बई से पृथक् कर एक अलग प्रान्त बनाया जाए, यदि समिति यह प्रस्तावित कर दे कि वह वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर है।
  • मौलिक अधिकारों की माँग जिसमें महिलाओं को समान अधिकार, संघ बनाने की स्वतन्त्रता एवं वयस्क मताधिकार जैसी माँगें थीं।
  • उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रान्तों के समान वैधानिक स्तर प्रदान किया जाए।
  • हिन्दुस्तानी को संघ की भाषा के रूप में रखा गया, जिसकी लिपि या तो देवनागरी या उर्दू हो। प्रान्तों में उनकी मुख्य भाषा आधिकारिक भाषा हो।

नेहरू रिपोर्ट एवं मुस्लिम लीग

मुस्लिम लीग के नेता एम ए जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि इसमें पृथक् निर्वाचन मण्डल का प्रावधान नहीं था। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस मद्रास अधिवेशन वर्ष 1927 में हुई सहमति से पीछे हट गई थी। हिन्दू महासभा आदि संगठनों ने इसका विरोध किया था। नेहरू रिपोर्ट में बाद में एक समझौतावादी रास्ता अपनाने का प्रयास किया गया, जिसमें निम्न प्रावधान थे

  1. संयुक्त निर्वाचन व्यवस्था को अपनाया जाएगा, लेकिन मुसलमानों के लिए सीटें उन्हीं स्थानों पर आरक्षित की जाएँगी, जहाँ वे अल्पमत में हैं।
  2. डोमिनियन स्टेट्स के पश्चात् ही सिन्ध को बम्बई से पृथक् किया जाएगा।
  3. एक सर्वसम्मत राजनैतिक प्रस्ताव तैयार किया जाएगा।

मतदान होने पर जिन्ना के यह प्रस्ताव ठुकरा दिए गए। इसके पश्चात् मुस्लिम लीग सर्वदलीय सम्मेलन से अलग हो गई।

नेहरू रिपोर्ट की असफलता से हिन्दू-मुस्लिम समझौते को प्रत्यक्ष रूप से धक्का लगा। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित भारतीय राष्ट्रवाद की जो धारा असहयोग आन्दोलन से निकली थी, वह अचानक अपने मूल मार्ग से भटक गई। इसके बाद वह कभी अपने मूल मार्ग पर लौट कर नहीं आ सकी। मोहम्मद अली जिन्ना मोहम्मद शफी एवं आगा खाँ के धड़े (गुट) से मिल गए, जिसके पश्चात् जिन्ना ने 14 सूत्रीय माँगें पेश की।

जिन्ना की 14 सूत्रीय माँगें निम्नलिखित हैं

  1. संविधान में अवशिष्ट शक्तियाँ प्रान्तों में निहित होने के साथ इसका स्वरूप संघीय होना चाहिए।
  2. सभी प्रान्तों को समान स्वायत्तता दी जानी चाहिए।
  3. देश के सभी विधानमण्डलों तथा सभी प्रान्तों की अन्य निर्वाचित संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व। जाए।
  4. साम्प्रदायिक समूहों का निर्वाचन, पृथक् निर्वाचन पद्धति से किया
  5. केन्द्रीय विधानमण्डल में मुसलमानों के लिए 1/3 स्थान आरक्षित किया जाए।
  6. सभी सम्प्रदायों को धर्म, पूजा, उपासना, विश्वास, प्रचार एवं शिक्षा की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाए।
  7. भविष्य में किसी प्रदेश के गठन या विभाजन में बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त की अक्षुण्णता का पूर्ण ध्यान रखा जाए
  8. सिन्ध को बम्बई से पृथक् कर नया प्रान्त बनाया जाए।
  9. किसी निर्वाचित निकाय या विधानमण्डल में किसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित कोई विधेयक तभी पारित किया जाए, जब उस सम्प्रदाय के 3/4 सदस्य उसका समर्थन करें।
  10. सभी सरकारी सेवाओं में योग्यता के आधार पर मुसलमानों को पर्याप्त अवसर दिया जाए।
  11. अन्य प्रान्तों की तरह बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में भी सुधार-कार्यक्रम प्रारम्भ किया जाए। – –
  12. सभी प्रान्तीय विधानमण्डलों में 1/3 स्थान मुसलमानों के लिए आरक्षित किए जाएँ।
  13. संविधान में मुस्लिम धर्म, संस्कृति, भाषा, वैयक्तिक विधि तथा मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं को संरक्षण एवं अनुदान के लिए आवश्यक प्रावधान किए जाएँ।
  14. केन्द्रीय विधानमण्डल द्वारा भारतीय संघ के सभी राज्यों की सहमति के बिना कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाए।

नेहरू रिपोर्ट एवं हिन्द महासभा 

एन सी केलकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा के जबलपुर अधिवेशन में आक्रामक स्वीकार किए गए। इन्होंने नए मुस्लिम बहुल प्रान्तों और पंजाब एवं बंगाल में बहुसंख्यकों के लिए सीटें आरक्षित किए जाने का विरोध किया, इन्होंने पूर्णरूपेण एकात्मक संरचना की माँग की।

रिपोर्ट एवं उग्र परिवर्तनवादी

नेहरू वर्ष 1927 के कांग्रेस मद्रास अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू द्वारा एक प्रस्ताव किया गया था, जो पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित करने से सम्बन्धित था। यद्यपि यह प्रस्ताव पारित न हो सका। नेहरू रिपोर्ट में डोमिनियन स्टेट्स की माँग पर सुभाषचन्द्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू ने इण्डिपेण्डेन्स फॉर इण्डिया लीग नामक कांग्रेस के अन्दर एक दबाव समूह का निर्माण किया। इसका उद्देश्य था, पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य को स्वीकार करवाने के लिए अभियान चलाना। वर्ष 1928 में कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन हुआ, जिसमें जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस एवं सत्यमूर्ति जैसे युवा नेताओं द्वारा डोमिनियन स्टेट्स के मुद्दे पर विरोध व्यक्त किया गया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मत था कि डोमिनियन स्टेट्स के मुद्दे को इतनी जल्दबाजी में अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि बड़ी मुश्किल से इस पर आम सहमति बन पाई है।

उन्होंने सरकार को डोमिनियन स्टेट्स की माँग मानने के लिए दो वर्ष का समय देने की बात कही, जिसे बाद में युवाओं के दबाव में एक वर्ष कर दिया गया। इस अवसर पर कांग्रेस ने यह प्रतिबद्धता जाहिर की, कि डोमिनियन स्टेट्स पर आधारित संविधान को सरकार ने यदि एक वर्ष के अन्दर पेश नहीं किया तो कांग्रेस न केवल ‘पूर्ण स्वराज’ को अपना लक्ष्य घोषित करेगी, बल्कि इसकी प्राप्ति हेतु सविनय अवज्ञा भी प्रारम्भ करेगी।

नेहरू रिपोर्ट एवं सरकार

कलकत्ता प्रस्ताव के पश्चात् लॉर्ड इरविन ने भारतीय विधानसभा अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल तथा सीतलवाड़ को आमन्त्रित किया। वायसराय को इन्होंने यह यकीन दिलाया कि गाँधीजी ब्रिटिश सम्बन्धों के पक्ष में हैं। भारतीय नेताओं ने यह महसूस किया कि साइमन रिपोर्ट की घोषणा से पहले ही इस पर गोलमेज सम्मेलन में विचार-विमर्श होना चाहिए, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे नहीं माना, हालाँकि लॉर्ड इरविन इससे सहमत थे। लेबर सरकार के सत्ता में आने पर 31 अक्टूबर, 1929 को वायसराय द्वारा यह घोषणा की जा सकी कि भारत के लिए एक नया संविधान बनाने के लिए लन्दन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाएगा।

लॉर्ड इरविन की डोमिनियन स्टेटस की घोषणा

यह घोषणा वर्ष 1929 रेमजे मैक्डोनल्ड की नव गठित श्रमिक (लेबर) सरकार से मंत्रणा के पश्चात् की गई, जिसमें भारत की उन्नति का अन्तिम चरण डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना बताया गया। इस घोषणा के बाद साइमन कमीशन की रिपोर्ट की प्रथम गोलमेज सम्मेलन में विवेचना सुनिश्चित की गई।

कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन (वर्ष 1929)

कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ब्रिटिश सरकार को यह चेतावनी दी गई थी कि यदि वह एक वर्ष के अन्दर नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करती तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज से कम किसी भी प्रस्ताव पर समझौता नहीं करेगी, किन्तु एक वर्ष का समय बीत जाने पर भी सरकार ने जवाब नहीं दिया। जिसके फलस्वरूप दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का लक्ष्य घोषित किया गया।

कांग्रेस के इस ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी। इस सम्मेलन में गाँधीजी को अध्यक्ष पद दिए जाने पर सर्वसम्मति थी, लेकिन गाँधीजी ने इसे नामंजूर कर जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाया। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें यह कहा गया था कि देश में समानान्तर सरकारें स्थापित की जानी चाहिए, परन्तु गाँधीजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रस्ताव से तथा उन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया। गाँधीजी के विरोध के कारण यह पारित नहीं हो सका।

अधिवेशन में पारित प्रस्ताव

लाहौर अधिवेशन में पारित प्रमुख प्रस्ताव निम्नलिखित थे

  • इस अधिवेशन में नेहरू रिपोर्ट से घोषित, औपनिवेशिक स्वराज के लक्ष्य को रदद कर दिया गया और यह ऐलान किया गया कि अब कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज होगा।
  • गाँधीजी को स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व ग्रहण करने के लिए कहा गया।
  • कांग्रेस जनों को आदेश दिया गया कि वे भविष्य में काउन्सिल चुनावों में भाग न लें और काउन्सिल के मौजूदा सदस्य अपने पदों से त्याग-पत्र दे दें।
  • अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को यह अधिकार दिया गया कि वह जब और जहाँ चाहे, आवश्यक प्रतिबन्धों के साथ सविनय अवज्ञा तथा कर बन्दी कार्यक्रम प्रारम्भ कर दे।
  • रचनात्मक कार्यक्रम सम्बन्धी प्रस्ताव पास किए गए एवं गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया गया।
  • 2 जनवरी, 1930 को कांग्रेस की कार्य समिति में यह निर्णय लिया गया 26 जनवरी, 1930 ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा।
  • भारतीय इतिहास में 26 जनवरी, 1930 को पूरे राष्ट्र में प्रथम स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया गया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन (वर्ष 1930)

गाँधीजी ने लाहौर अधिवेशन के पश्चात् अपने अगले कदम के रूप में ‘यंग इण्डिया’ में एक लेख प्रकाशित करके सरकार के समक्ष 11 सूत्रीय माँगें पेश की तथा यह वादा किया कि यदि सरकार उन शर्तों को मान लेगी, तो सत्याग्रह की चर्चा बन्द कर दी जाएगी। इसके लिए गाँधीजी ने 31 जनवरी, 1930 तक का समय दिया।

गाँधीजी की 11 सत्रीय मांगें

गाँधीजी की 11 सूत्रीय माँगें निम्नलिखित हैं

  1. रुपये की विनिमय दर घटाकर 1 शिलिंग 4 पेन्स की जाए।
  2. लगान में 50% कमी की जाए।
  3. सिविल सर्विस की तनख्वाह आधी कर दी जाए।
  4. फौजी खर्च में कम-से-कम 50% कमी की जाए।
  5. रक्षात्मक शुल्क लगाए जाएँ और विदेशी कपड़ों का आयात नियन्त्रित किया जाए।
  6. तटीय यातायात विधेयक पास किया जाए।
  7. सी आई डी विभाग खत्म कर दिया जाए या उस पर सार्वजनिक नियन्त्रण हो।
  8. हिन्दुस्तानियों को आत्मरक्षा के लिए आग्नेय अस्त्र रखने का लाइसेन्स दिया जाए।
  9. नमक पर सरकारी इजारेदारी और नमक टैक्स को खत्म किया जाए।
  10. नशीली वस्तुओं का विक्रय बन्द किया जाए।
  11. उन सब राजनैतिक कैदियों को छोड़ दिया जाए जिन पर हत्या करने या हत्या के प्रयत्न का अभियोग नहीं है।

गाँधीजी की इन शर्तों से कांग्रेसीजन भी हतप्रभ रह गए, क्योंकि इन माँगों में कहीं भी स्वराज की चर्चा नहीं थी, जो कि अब कांग्रेस का लक्ष्य था। वास्तव, में गाँधीजी ने सरकार को जनता की दृष्टि में गलत सिद्ध करने के लिए ऐसा किया था। सरकार ने यह माँगें नहीं मानी।

आन्दोलन का प्रारम्भ

फरवरी, 1930 में साबरमती में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। गाँधीजी ने अब सविनय अवज्ञा प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। जिसकी शुरुआत नमक सत्याग्रह से हुई। एक बार पुन: गाँधीजी को आन्दोलन का नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा गया।

आन्दोलन कार्यक्रम

सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रमुख कार्यक्रम । निम्नलिखित थे

  • नमक कानून का उल्लंघन।
  • भू-राजस्व, लगान तथा अन्य करों का भुगतान न करना।
  • सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार।
  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
  • शराब की दुकानों पर शान्तिपूर्ण धरना देना।
  • व्यापक हड़ताल एवं प्रदर्शन का आयोजन।
  • सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र देना।
  • सरकारी सेवाओं में शामिल न होना।

नमक सत्याग्रह (दाण्डी मार्च)

गाँधीजी ने 12 मार्च, 1930 को ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह शुरू करने का निश्चय किया। उन्होंने 12 मार्च को साबरमती आश्रम से अपने 78 समर्थकों के साथ दाण्डी के लिए पदयात्रा प्रारम्भ की। 24 दिनों के पश्चात् यह पदयात्रा 240 मील  (375 किमी)चलकर अपैल को टाण्डी पहुँची।

6 अप्रैल को गाँधीजी ने नमक बनाकर कानून तोड़ा। इसके पश्चात् पूरे देश में सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया। सुभाषचन्द्र बोस ने गाँधीजी के दाण्डी मार्च की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च तथा मुसोलिनी के रोम मार्च से की। कलकत्ता से प्रकाशित अंग्रेजों के समर्थक एक समाचार-पत्र ‘स्टेट्समैन’ ने व्यंग्यपूर्वक कहा कि “गाँधी महोदय समुद्री जल को तब तक उबाल सकते हैं, जब तक कि डोमिनियन स्टेट्स नहीं मिल जाता।” इसी क्रम में तमिलनाडु में तंजौर के समुद्री तट पर सी राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम तक की नमक सत्याग्रह की यात्रा की।

मालाबार में के. कलप्पन ने कालीकट से पोयान्नूर तक की नमक यात्रा की। उड़ीसा में नमक सत्याग्रह गोपचन्द्र बन्धु चौधरी के नेतृत्व में बालासोर, कटक और पुरी में चलाया गया। असम में सत्याग्रहियों का एक दल सिलहट से बंगाल के नोआखाली समुद्र तट पर नमक बनाने पहुंचा। आन्ध्र प्रदेश में नमक सत्याग्रह के संचालन के लिए मुख्यालय के रूप में शिविरम की स्थापना की गई। 14 अप्रैल को नमक कानून तोड़ने के कारण जवाहरलाल नेहरू भी गिरफ्तार कर लिए गए।

4 मई, 1930 को गाँधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया, उन्होंने ऐलान किया था कि वे धरासणा नमक कारखाने पर धावा बोलेंगे। गाँधीजी की गिरफ्तारी के पश्चात् कांग्रेस कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित कर, रैयतवाड़ी क्षेत्रों में लगान न अदा किए जाने, जमींदारी क्षेत्रों में चौकीदारी कर न अदा किए जाने तथा मध्य प्रान्त में वन कानून का उल्लंघन किए जाने का आह्वान किया। ब्रिटिश सरकार ने अप्रैल 1930 में विभिन्न प्रांतीय कांग्रेस समिति के सदस्यों को गिरफ्तार किया तथा ‘कांग्रेस को प्रतिबंधित किया।

आन्दोलन का विकास

गाँधीजी की गिरफ्तारी के पश्चात् बम्बई, कलकत्ता, शोलापुर, दिल्ली आदि शहरों में उनकी गिरफ्तारी का व्यापक विरोध हुआ। शोलापुर में हजारों मिल मजदूरों ने हड़ताल करके एक समानान्तर सरकार कायम कर ली और एक सप्ताह तक शहर पर उनका कब्जा रहा। इसी तरह चटगाँव एवं पेशावर में भी विभिन्न घटनाएँ हुई। चटगाँव में सूर्यसेन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने विप्लव किया। यद्यपि संघर्ष का यह तरीका गाँधीवादी नहीं था, लेकिन क्रान्तिकारियों ने शस्त्रागार पर अधिकार करते समय ‘गाँधीजी का राज आ गया है’ के नारे लगाए।

पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने कांग्रेस तथा गाँधीजी के नेतृत्व को स्वीकार किया और पठानों के स्वभाव के विपरीत उन्हें अहिंसा के रास्ते पर चलने की सलाह दी। 23 अप्रैल को पेशावर में बादशाह खान तथा कुछ अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के पश्चात् भारी जन उभार आया। 25 अप्रैल से 4 मई तक पेशावर पर जनता का शासन रहा। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के कबाइली लोगों ने इसी समय गाँधीजी को मलंग बाबा कहा था। इस आन्दोलन में (उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त) भाग लेने वाले लोगों में लगभग 92% मुसलमान थे, जिससे अंग्रेज़ों का यह भ्रम कि मुसलमान इस आन्दोलन से दूरी बनाए हुए हैं, टूट गया।

पेशावर पर पुन: कब्जा करने के लिए सरकार को हवाई हमले का सहयोग लेना पड़ा। उल्लेखनीय है कि उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में आन्दोलनकारियों से निपटने के लिए सरकार ने गढ़वाल रेजिमेण्ट की कुछ टुकड़ियाँ पेशावर भेजीं, लेकिन चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में सैनिकों ने निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इनके विरुद्ध मुकदमा चला और काला पानी की सजा दे दी गई।

धरासणा में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व सरोजिनी नायडू, इमाम साहब, गाँधीजी के पुत्र मणिलाल ने किया। 21 मई, 1930 को 2,000 आन्दोलनकारियों के साथ इन्होंने धरासणा नमक कारखाने पर धावा बोल दिया। यहाँ पर पुलिस ने आन्दोलनकारियों का बहुत क्रूरता से दमन किया। उन्हें लोहे की मूठ लगी लाठियों से पीटा गया।

धरासणा के इस भयावह दमन दृश्य का उल्लेख न्यू फ्रीमैन अखबार के पत्रकार वेब मिलर ने निम्न शब्दों में किया “संवाददाता के रूप में मैंने पिछले 18 वर्षों में असंख्य नागरिक विद्रोह देखे हैं, दंगे, गली कूचों में मार-काट एवं विद्रोह देखे हैं, लेकिन धरासणा जैसा भयावह दृश्य मैंने कभी नहीं देखा है।

धरासणा की क्रूरता का जनान्दोलन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा। वडाला (बम्बई), सैनीकट्टा (कर्नाटक), आन्ध्र प्रदेश, मिदनापुर, बालासोर, पुरी, कटक के नमक कारखानों पर इस तरह के प्रदर्शन हुए।

गुजरात के खेड़ा जिले के आनन्द, बोरसद एवं नादियाद, सूरत जिले के बारदोली, भड़ौच के जम्बूसर में कर न अदा करने के मुद्दे को लेकर आन्दोलन हुआ। लोगों ने भू-राजस्व अदा करने से मना कर दिया और वह बड़ौदा जैसे पड़ोसी रजवाड़े में चले गए और महीनों तक वहीं रहे। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को बुरी तरह पीटा।

बिहार में चौकीदारी कर के विरोध में तथा चौकीदारी पंचायत के प्रभावशाली सदस्यों के इस्तीफे की मांग को लेकर आन्दोलन चलाया गया। बिहार में आन्दोलन का नेतृत्व राजेन्द्र प्रसाद एवं अब्दुलबारी ने किया। भागलपुर जिले का बिहपुर गाँव इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था।

संयुक्त प्रान्त में लगान न अदा करने का आन्दोलन चला। यहाँ पर जमींदारों तथा किसानों से लगान न अदा करने का आह्वान किया गया था। रायबरेली तथा आगरा इस आन्दोलन के प्रमुख केन्द्र थे।

असम में छात्रों ने कनिंघम सर्कुलर के विरोध में, जिसके अन्तर्गत छात्रों एवं उनके अभिभावकों को अच्छे व्यवहार का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता था, के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। बंगाल में चौकीदारी एवं यूनियन बोर्ड विरोधी आन्दोलन चलाया गया।

महाराष्ट्र, मध्य प्रान्त एवं कर्नाटक में कड़े वन-नियमों के विरुद्ध सत्याग्रह चलाया गया। आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने हेतु आन्दोलनकारियों ने विभिन्न माध्यमों को अपनाया। प्रभात फेरियाँ निकाली गईं। सन्देश पहुँचाने के लिए जादुई लालटेन का प्रयोग किया गया। बच्चों ने वानर सेना तथा लड़कियों ने मंजरी सेना का गठन किया।

रानी गौडिनेल्यू

उत्तर पूर्व की जनजातियों ने भी सविनय अवज्ञा आन्दोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी दिखाई। यहाँ पर आन्दोलन का नेतृत्व नागा महिला गौडिनेल्यू ने किया। उस समय इनकी उम्र मात्र 13 वर्ष की थी। गौडिनेल्यू ने ब्रिटिश सेना के साथ संघर्ष किया, लेकिन वर्ष 1932 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और आजीवन कैद की सजा सुनाई गई। इन्हें इम्फाल जेल में रखा गया। यह स्वाधीनता संग्राम में सबसे अधिक समय तक जेल में रहने वाली महिला बनीं। देश स्वतन्त्र होने पर प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने इन्हें रानी की उपाधि से सम्मानित किया। इनको नागालैण्ड की जोन ऑफ आर्क भी कहा जाता है।

आन्दोलन में जनभागीदारी

गाँधीजी के आह्वान पर बहुत-सी महिलाएँ इस आन्दोलन में शामिल हुईं। इन्होंने विदेशी कपड़े की दुकानों, शराब की दुकानों, अफीम के ठेकों पर धरने दिए। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार सबसे अधिक बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सफल रहा।

आन्दोलन में समाज के सभी वर्गों की महत्त्वपूर्ण भागीदारी रही। छात्रों और बुद्धिजीवियों की वह भागीदारी नहीं रही जो, असहयोग आन्दोलन में रही थी। इसमें किसानों एवं व्यापारी वर्ग की भूमिका प्रबल रही। असहयोग आन्दोलन के विपरीत इस आन्दोलन में मुसलमानों की भागीदारी कम रही। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त इसका एक अपवाद रहा। इसके अलावा सेनहट्टा, त्रिपुरा, गैबन्धा, बगूरा, नोआखाली में भी मुसलमानों ने भागीदारी की थी। मुसलमानों की संख्या कम रहने के दो कारण थे

  1.  मुस्लिम नेताओं द्वारा मुसलमानों को आन्दोलन से पृथक् रहने का निर्देश।
  2. ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनी साम्प्रदायिक नीति से मुसलमानों को पृथक् रखना।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन

सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान ही साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इसकी सिफारिश पर विचार करने के लिए नवम्बर, 1930 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। यह 12 नवम्बर, 1930 से 19 जनवरी, 1931 तक चला।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन में कुल 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, जिसमें 57 ब्रिटिश भारत के, 16 प्रतिनिधि रियासतों के तथा शेष 16 ब्रिटेन के प्रमुख राजनैतिक दलों के संसद सदस्य थे। लन्दन में सेण्ट जेम्स पैलेस में आयोजित इस सम्मेलन की अध्यक्षता तत्कालीन प्रधानमन्त्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की तथा इसका उद्घाटन ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने किया।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान भारतीयों ने केवल समस्याएँ एवं विचारार्थ विषय ही रखे, जिसका कोई वास्तविक परिणाम सामने नहीं आया। इस गोलमेज सम्मेलन में हुआ विचार-विमर्श किसी के मन में विश्वास न जगा सका, क्योंकि प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस इसमें सम्मिलित नहीं था। अन्ततः बिना किसी सार्थक परिणाम के इस सम्मेलन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया।

प्रथम सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधि

मुस्लिम लीग आगा खाँ, मोहम्मद शफी, मोहम्मद इमाम, मोहम्मद अली जिन्ना, ए के फजलुल हक, मोहम्मद जफरुल्ला खाँ, मोहम्मद अली जौहर।

हिन्दू महासभा एम आर जयकर, वी एस मुंजे

उदारवादी तेज बहादुर सप्रू, सी वाई चिन्तामणि, श्रीनिवास शास्त्री।

सिख सरदार सम्पूर्ण सिंह, सरदार उज्ज्वल सिंह।

दलित वर्ग भीमराव अम्बेडकर

भारतीय पूँजीपति वर्ग होमी मोदी

वायसराय कार्यकारिणी फजलै हुसैन

भारतीय महिला बेगम शाहनवाज, शधाबाई सुब्बारायना

गाँधी-इरविन समझौता

ब्रिटिश राजनीतिज्ञ अब गाँधीजी तथा कांग्रेस का सहयोग प्राप्त करने को उत्सुक थे, क्योंकि उन्होंने यह महसूस किया कि जब तक भारत के प्रमुख राजनीतिक दल की सहमति प्राप्त नहीं होगी, तब तक संविधान सम्बन्धी सुधारों की कोई योजना सफल नहीं हो पाएगी। अत: सरकार ने उदारवादी नेता तेजबहादुर सप्रू, जयकर, श्रीनिवास शास्त्री के माध्यम से गाँधीजी को तत्कालीन वायसराय इरविन से बातचीत करने के लिए तैयार किया।

कांग्रेस के वामपन्थी नेता इस बात से नाखुश थे, क्योकि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी की सजा दिए जाने का पूरे देशभर में भारी विरोध था और उन्होंने गाँधीजी से अपील की, कि वह वायसराय के साथ अपनी बातचीत के दौरान सभी राजनैतिक बन्दियों का मामला अवश्य उठाएँ।

26 जनवरी, 1931 को गाँधीजी सहित सारे नेता जेल से रिहा कर दिए गए। गाँधीजी ने 19 फरवरी, 1931 को इरविन से बातचीत की, 15 दिन चली वार्ता के फलस्वरूप, 5 मार्च को एक समझौता हुआ जिसे गाँधी-इरविन समझौता या दिल्ली समझौता कहा जाता है। इस समझौते ने कांग्रेस की स्थिति को सरकार के बराबर लाकर खड़ा कर दिया। समझौते की शर्ते निम्नलिखित थीं

  • हिंसात्मक अपराधियों के अतिरिक्त सभी राजनैतिक कैदी छोड़ दिए जाएंगे।
  • अपहृत की गई सम्पत्ति वापस कर दी जाएगी।
  • विभिन्न प्रकार के जुर्मानों की वसूली को स्थगित कर दिया जाएगा।
  • सरकारी सेवाओं से त्याग-पत्र दे चुके भारतीयों के मामले पर पुनः सहानुभूतिपूर्वक विचार-विमर्श किया जाएगा।
  • समुद्र तट की एक निश्चित सीमा के भीतर नमक तैयार करने की अनुमति प्रदान की जाएगी।
  • मदिरा, अफीम, विदेशी वस्तुओं की दुकानों के सम्मुख शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की आज्ञा दी जाएगी।
  • आपातकालीन अध्यादेशों को वापस ले लिया जाएगा।

कांग्रेस की ओर से गाँधीजी सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने पर सहमत हो गए। कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इस शर्त पर तैयार हुई कि प्रस्तावित संवैधानिक सुधारों का आधार संघीय व्यवस्था एवं उत्तरदायित्वपूर्ण शासन होगा। भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए रक्षा-प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामलों, अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित मामलों और भारत के वित्तीय ऋणों जैसे विषयों के सम्बन्धों में सुरक्षात्मक या आरक्षात्मक व्यवस्था प्रदान करनी होगी। वायसराय ने गाँधीजी की पुलिस ज्यादतियों की जाँच कराने की माँग और भगत सिंह तथा उनके साथियों की फाँसी की सजा माफ करने की माँग अस्वीकार कर दी।

कांग्रेस का कराची अधिवेशन (वर्ष 1931)

गाँधी-इरविन समझौते की स्वीकृति देने के लिए कांग्रेस का अधिवेशन मार्च के अन्त में ही कराची में बुलाया गया। 29 मार्च, 1931 को हुए इस अधिवेशन की अध्यक्षता वल्लभभाई पटेल ने की थी। गाँधीजी ने इस समझौते को उचित ठहराया। उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि पहली बार अंग्रेज सरकार ने भारतीय नेताओं के साथ समानता के स्तर पर बातचीत की थी, लेकिन अधिकांश नेता इस समझौते से असन्तुष्ट थे।

उल्लेखनीय है कि छ: दिन पहले ही भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फाँसी दे दी गई थी, जिससे सभी में रोष व्याप्त था। उनका मानना था कि इसे समझौते की मुख्य शर्त के रूप में नहीं लिया गया। गाँधीजी को समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए था। गाँधीजी को अपनी कराची यात्रा के दौरान जनता के तीव्र रोष का भी सामना करना पड़ा। उन्हें काले झण्डे दिखाए गए। जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचन्द्र बोस भी इससे सन्तुष्ट नहीं थे। कराची अधिवेशन की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं

  • गाँधी-इरविन समझौते या दिल्ली समझौते को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
  • किसी भी तरह की राजनैतिक हिंसा का समर्थन न करने की बात को दोहराते हुए भी कांग्रेस ने क्रान्तिकारियों की वीरता एवं बलिदान की प्रशंसा की।
  • इस अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वराज को परिभाषित किया गया।
  • पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को पुनः दोहराया गया।
  • कांग्रेस के इस सत्र में पहली बार मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय कार्यक्रम से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित किए गए, जिसमें मौलिक अधिकारों का प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू ने तैयार किया था।

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित प्रस्ताव

मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित प्रस्ताव सम्मिलित किए गए

  • निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा।
  • अल्पसंख्यकों एवं विभिन्न भाषायी क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा एवं लिपि की सुरक्षा की गारण्टी।
  • अभिव्यक्ति एवं प्रेस की पूर्ण स्वतन्त्रता।
  • सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनावों की स्वतन्त्रता।
  • संगठन बनाने की स्वतन्त्रता।
  • सभा एवं सम्मेलन आयोजित करने की स्वतन्त्रता।
  • जाति, धर्म एवं लिंग इत्यादि से हटकर कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

आर्थिक कार्यक्रम से सम्बन्धित प्रस्ताव

आर्थिक कार्यक्रम से सम्बन्धित प्रस्ताव निम्नलिखित थे

  • प्रमुख उद्योगों, परिवहन और खदान को सरकारी स्वामित्व एवं नियन्त्रण में रखना।
  • मजदूरों के लिए बेहतर सेवा शर्ते, महिला मजदूरों को सुरक्षा तथा काम के नियमित घण्टे।
  • लाभ न देने वाले जोतों को लगान से मुक्ति।
  • किसानों को कर्ज से राहत।
  • मजदूरों तथा किसानों को संघ बनाने का स्वतन्त्रता।
  • सूदखोरों पर नियन्त्रण।
  • लगान एवं मालगुजारी में उचित कटौती।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन

7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चलने वाले इस सम्मेलन में गाँधीजी ने कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया। गाँधीजी के साथ एस एस राजपूताना जहाज में महादेव देसाई, मदनमोहन मालवीय, देवदास गाँधी, घनश्यामदास बिड़ला, मीरा बेन भी थीं, परन्तु गाँधीजी के अतिरिक्त अन्य सभी सदस्य स्वयं के खर्च पर इस सम्मेलन में गए थे।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की शुरुआत के पहले इंग्लैण्ड का राजनैतिक वातावरण बदल चुका था। लेबर सरकार का पतन हो गया था। उसकी जगह रैम्जे मैकडोनाल्ड के ही नेतृत्व में एक नई राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ, जिसमें कंजर्वेटिव तत्त्व काफी प्रभावशाली थे। भारत में भी इरविन के स्थान पर लॉर्ड विलिंग्टन की नियुक्ति हो चुकी थी। इन बदली हुई परिस्थितियों में गोलमेज सम्मेलन के सफल होने में सन्देह था। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन सेण्ट पैलेस (लन्दन) में आयोजित किया गया था।

सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधि

सरोजिनी नायडू (महिला प्रतिनिधि), मदनमोहन मालवीय (हिन्दू महासभा), जी डी बिड़ला ( (व्यवसायी), तेज बहादुर सप्रू, सी वाई चिन्तामणि (उदारवादी), जिन्ना, अली इमाम, मोहम्मद इकबाल (मुस्लिम लीग), एस के दत्ता (भारतीय ईसाई), डॉ. अम्बेडकर (अछूत फेडरेशन) ने इसमें भाग लिया था।

सम्मेलन के मुख्य बिन्दु 

गोलमेज सम्मेलन के सफल होने के लिए यह आवश्यक था कि अल्पसंख्यकों की समस्या का समाधान पहले ही निकाल लिया जाए। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का मुस्लिम नेताओं से सम्पर्क का कोई नतीजा नहीं निकला।

मुसलमानों के बीच जिन्ना के 14 सूत्रीय कार्यक्रम पर लगभग सर्वसम्मति थी, ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिक प्रश्न पर किसी प्रकार के समझौते की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। सम्मेलन में भाग लेने वाले अन्य वर्ग; जैसे-हिन्दू महासभा, सिख, यूरोपीय लीग, हरिजन प्रतिनिधि आदि भी राष्ट्रीय हित की बजाय अपने संकीर्ण हितों पर जोर दे रहे थे।

सम्मेलन की असफलता

सम्मेलन में अल्पसंख्यकों के मुद्दे को लेकर गतिरोध उत्पन्न हो गया। मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य वर्ग भी पृथक् निर्वाचन की माँग करने लगे। दलित नेता भीमराव अम्बेडकर ने भी दलितों के लिए अलग पृथक् निर्वाचन मण्डल की सुविधा की माँग की, जिसे गाँधीजी ने अस्वीकार कर दिया। गाँधीजी सभी माँगें मानने के लिए तैयार थे बशर्ते मुस्लिम लीग कांग्रेस के स्वराज की माँग का समर्थन करे। लीग ने समर्थन देने से इनकार कर दिया और वार्ता टूट गई। अन्ततः साम्प्रदायिक मसले पर कोई निर्णय न होने के कारण द्वितीय गोलमेज सम्मेलन बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दौरान फ्रैंक मौरिस ने कहा था कि “अर्द्ध नंगे फकीर के ब्रिटिश प्रधानमन्त्री से वार्ता हेतु सेण्ट पॉल पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ने का दृश्य अपने आप में अनोखा तथा दिव्य प्रभाव उत्पन्न कर रहा था।”

इसी सम्मेलन के दौरान विंस्टन चर्चिल ने गाँधीजी को देशद्रोही फकीर कहा। 28 दिसम्बर, 1931 को द्वितीय गोलमेज वार्ता के असफल होने के उपरान्त गाँधीजी बम्बई पहुँचे तथा कहा “खाली हाथ लौटा हूँ, पर अपने देश की साख को बट्टा नहीं लगने दिया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन का दूसरा चरण

गोलमेज के असफल होने तथा गुजरात, संयुक्त प्रान्त, बंगाल एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त की बिगड़ती हुई स्थिति के कारण गाँधीजी स्वदेश वापस आ गए। . गाँधीजी ने यह आशा व्यक्त की थी कि अब नए आन्दोलन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, किन्तु सरकार ने अपनी दमनात्मक नीति पुनः शुरू कर दी। गाँधी-इरविन समझौते को दफन कर दिया गया। गाँधीजी ने वायसराय से मिलना चाहा, उसने मिलने से इनकार कर दिया।

कांग्रेस कार्यसमिति ने 1 जनवरी, 1932 को सविनय अवज्ञा आन्दोलन को दोबारा शुरू करने का निर्णय लिया। आन्दोलन शुरू होने के पश्चात् चोटी के नेता गाँधी, नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार खान आदि को गिरफ्तार कर सरकार ने कांग्रेस को गैर-कानूनी संस्था घोषित कर दिया। इसके साथ ही कांग्रेस की सम्पत्ति को जब्त कर लिया गया। द्वितीय सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान बड़ी संख्या में लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के इस चरण में दो भारतीय रियासतों कश्मीर एवं अलवर में तीव्र जनप्रतिक्रिया का उभरना आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू था।

इसी समय वर्ष 1932 में शेख अब्दुल्ला ने नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थापना की। आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में दुग्गाली कृष्णारैया कोइके जैसे आदिवासी नेताओं ने तथा मध्य प्रान्त के बैतुल में वन सत्याग्रह किया गया। वर्ष 1931-32 के मध्य क्रान्तिकारी आतंकवाद की 92 वारदातें हुईं। सुनिति चौधरी तथा शान्ति चौधरी जो स्कूली छात्राएँ थीं, ने टिपरा के जिला मजिस्ट्रेट को गोली मार दी।

आन्दोलन में व्यापक हिंसा के बावजूद गाँधीजी ने इसे अचानक वापस नहीं लिया बल्कि मई, 1933 में इसे स्थगित किया गया। अन्ततः अप्रैल, 1934 में गाँधीजी ने इसे वापस ले लिया। अप्रैल, 1934 में पटना में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में सविनय अवज्ञा आन्दोलन को औपचारिक रूप से वापस ले लिया गया।

साम्प्रदायिक निर्णय

भारतीय अल्पसंख्यकों की समस्या आपसी समझौते से हल न कर सकने के कारण ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 में साम्प्रदायिक अधिनिर्णय (कम्युनल अवॉर्ड) की घोषणा की, साम्प्रदायिक निर्णय अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का एक और प्रमाण था। साम्प्रदायिक पंचाट के अन्तर्गत पृथक् निर्वाचक पद्धति को मुसलमानों, भारतीय ईसाइयों, यूरोपियनों, एंग्लो इण्डियन और सिखों के अतिरिक्त हरिजनों पर भी लागू कर दिया गया। महात्मा गाँधी ने इसका विरोध करते हुए माँग की, कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर आम निर्वाचक मण्डल के माध्यम से होना चाहिए।

अपनी माँगें मनवाने के लिए वे 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन पर बैठ गए। इस अनशन में उनका साथ एन सी रजा ने भी दिया। गाँधीजी इस समय यरवदा जेल में थे। उस समय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सन्देश भेजकर गाँधीजी से कहा “भारत की एकता तथा उसकी सामाजिक अखण्डता के लिए यह उत्कृष्ट बलिदान है। हमारे व्यथित हृदय आपकी इस महान् तपस्या का आदर और प्रेम के साथ अनुकरण करेंगे।”

20 सितम्बर, 1932 का दिन ‘उपवास एवं प्रार्थना दिवस’ के रूप में मनाया गया। गाँधीजी के उपवास के पाँच दिन बाद 26 सितम्बर, 1932 को मदनमोहन मालवीय, सी राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद तथा पुरुषोत्तम दास के प्रयत्नों से गाँधीजी और अम्बेडकर के मध्य एक समझौता हुआ, जो पूना समझौता के भाना जाता है।

साम्प्रदायिक अधिनिर्णय के प्रावधान

  • मुसलमानों, सिखों, यूरोपियों को पृथक् साम्प्रदायिक मताधिकार।
  • आंग्ल भारतीयों, भारतीय ईसाइयों, स्त्रियों को भी पृथक् साम्प्रदायिक मताधिकार।
  • प्रान्तीय विधानमण्डल में साम्प्रदायिक आधार पर स्थानों का वितरण।
  • अन्य के लिए सामान्य निर्वाचन क्षेत्र।
  • बम्बई में सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में से 7 स्थान मराठों के लिए आरक्षित।
  • दलित जातियों के लिए यह व्यवस्था 20 वर्षों के लिए थी।

पूना समझौता

पूना समझौता के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे

  • दलित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल समाप्त कर दिया गया।
  • प्रान्तीय विधानमण्डल में दलितों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गई।
  • केन्द्रीय विधानमण्डल में दलित वर्गों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या में 18% की वृद्धि की गई।

सरकार ने पूना समझौते को साम्प्रदायिक समझौते का संशोधित रूप मानकर स्वीकार कर लिया।

तृतीय गोलमेज सम्मेलन

17 नवम्बर, 1932 को लन्दन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया। सम्मेलन में भारत सरकार अधिनियम, 1935 हेतु ठोस योजना के अन्तरिम स्वरूप को पेश किया गया। यह सम्मेलन 24 दिसम्बर, 1932 को समाप्त हो गया। तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने वाले एकमात्र भारतीय भीमराव अम्बेडकर थे।

गाँधीजी का हरिजन अभियान

1933 साम्प्रदायिक निर्णय के द्वारा भारतीयों को विशेषकर हिन्दू समाज को विभाजित करने की व्यवस्था ने गाँधीजी को बुरी तरह आहत किया। गाँधीजी अन्य कार्य छोड़कर पूर्णरूपेण ‘अस्पृश्यता निवारण अभियान’ में जुट गए। यरवदा जेल में ही उन्होंने सितम्बर, 1932 में अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी लीग की स्थापना की। जनवरी, में उन्होंने हरिजन नामक पत्रिका का प्रकाशन किया। वर्ष 1930 में साबरमती आश्रम छोड़ने से पहले गाँधीजी ने प्रतिज्ञा ली थी कि वह आश्रम तभी लौटेंगे, जब स्वराज्य मिल जाएगा।

इसलिए जेल से छूटने के बाद गाँधीजी सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले गए, जहाँ से 7 नवम्बर, 1933 को अपनी हरिजन यात्रा आरम्भ की। यात्रा के दौरान उन्होंने 20 हजार किमी की यात्रा तय की। हरिजन उत्थान आन्दोलन में गाँधीजी दो बार 8 मई व 16 अगस्त, 1933 को अनशन पर बैठे। गाँधीजी को विरोध का सामना भी करना पड़ा। 25 जून, 1934 को पूना में गाँधीजी की कार पर बम फेंका गया। 15 जनवरी, 1934 को बिहार के भूकम्प पर गाँधीजी ने कहा, “यह सवर्ण हिन्दुओं के पापों का दैवीय दण्ड है।

क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े पत्र, पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें

पत्रिका/पुस्तक लेखक/सम्पादक
युगान्तरवारीन्द्र कुमार घोष एवं भूपेन्द्र नाथ दत्त
संध्या ब्रह्मबान्धव उपाध्याय
तलवार (बर्लिन) वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय
  फ्री हिन्दुस्तान (बैंकूवर)तारकनाथ दास
कीर्ति सन्तोष सिंह
क्रान्ति एस एस मिराजकर, के एन जोगलेकर
बन्दी जीवनसचीन्द्र नाथ सान्याल
वन्देमातरम् अरविन्द घोष
द लाइफ डिवाइन अरविन्द घोष
सावित्री अरविन्द घोष
गीता रहस्यबाल गंगाधर तिलक
भवानी मन्दिरवारीन्द्र घोष
 भारत माताअजीत सिंह
स्वदेश सेवक पत्रजी डी कुमार
वर्तमान रणनीति अविनाश चन्द्र भट्टाचार्य
कर्मयोगिनी (अंग्रेजी) अरविन्द घोष
  सर्कुलर-ए-आजादी (उर्दू)रामनाथ पुरी
पथेर दावीशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
बम मैनुअलपी एन बापट
जमींदारसिराजुद्दीन
वर्तमान रणनीतिवारीन्द्र कुमार घोष
न्यू इण्डियाविपिन चन्द्र पाल

प्रमुख क्रान्तिकारी संगठन

संगठन सम्बन्धित व्यक्तित्व
मित्र मेला (पूना) (1899)सावरकर बन्धु
अनुशीलन समिति (कलकत्ता, ढाका) 1902वारीन्द्र कुमार घोष, जतिन्द्र नाथ बनर्जी, प्रमथनाथ, पुलिनदास
अनुशीलन समिति (मिदनापुर) 1902ज्ञानेन्द्र नाथ बोस
अभिनव भारत सभा (पूना) 1904विनायक दामोदर सावरकर
भारत माता समिति 1904जे एम चटर्जी, नीलकान्त ब्रह्मचारी वांची अय्यर
इण्डिया हाउस (लन्दन)श्याम जी कृष्ण वर्मा
इण्डियन होमरूल सोसायटी (लन्दन) 1905श्याम जी कृष्ण वर्मा
स्वदेश बान्धव समिति (बारिसाल)अश्विनी कुमार दत्त
भारतमाता सोसायटी (पंजाब) 1907अम्बा प्रसाद एवं अजीत सिंह
हिन्दू धर्म संघबाल गंगाधर तिलक
बंगाल स्वयं सेवीहेमचन्द्र घोष, लीलानाग
हिन्द एसोसिएशन ऑफ अमेरिका 1913सोहन सिंह भाखना
इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी, 1930सूर्यसेन
गदर दल (सैन फ्रांसिस्को) 1913लाला हरदयाल, सोहन सिंह भाखना
हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (कानपुर) 1924सचीन्द्र सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी एवं चन्द्रशेखर आजाद
अंजुमने मोहिब्बाने वतन (लाहौर) अजीत सिंह
नौजवान सभा (लाहौर) 1926भगतसिंह
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (दिल्ली) 1928चन्द्रशेखर आजाद

क्रान्तिकारियों पर चले प्रमुख मुकदमें

मुकदमा वर्षमुख्य तथ्य
अलीपुर षड्यन्त्र केस1908अरविन्द घोष तथा 32 अन्य व्यक्तियों पर लगाया गया।
नासिक षड्यन्त्र केस 1909-10विनायक दामोदर सावरकर को आजीवन निर्वासन तथा 26 अन्य को कारावास
हावड़ा षड्यन्त्र केस1910मुख्य अभियुक्त जतिन मुखर्जी
ढाका षड्यन्त्र केस1910पुलिन दास को 7 साल की सजा
बारीसाल षड्यन्त्र केस1913 नरेन्द्र मोहन सेन गिरफ्तार
विक्टोरिया षड्यन्त्र केस1914गुरुदत्त सिंह, दलीप सिंह को कारावास।
दिल्ली षड्यन्त्र केस1915  मास्टर अमीरचन्द, अवध बिहारी, बालमुकुन्द को फाँसी।
लाहौर षड्यन्त्र केस1915 152 व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया।
बनारस षड्यन्त्र केस1915-16सचीन्द्र सान्याल को आजीवन काला पानी की सजा।
माण्डले षड्यन्त्र केस191617 अभियुक्तों में से 7 को मृत्युदण्ड 5 को आजीवन कारावास।
सेन-फ्रांसिस्को षड्यन्त्र केस1917-18  105 व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया।
काकोरी षड्यन्त्र केस1925रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशनलाल एवं राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी।
लाहौर षड्यन्त्र केस1929-30भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फाँसी।

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