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अलगाववादी राजनीति के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

अलगाववादी राजनीति आधुनिक भारत के इतिहास में अलगाववादी राजनीति का उदय ब्रिटिश काल से आरम्भ होता है। इस अलगाववादी विचारधारा वाली राजनीति के उत्थान तथा विकास की जड़ें भारत में साम्प्रदायिकता के उदय तथा विकास में मिलती हैं। अलगाववादी राजनीति की परिणति अन्तत: भारत के विभाजन के रूप में हुई।

भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियों की मुख्य वजह साम्प्रदायिकता का विकास रहा। प्रबुद्ध अल्पसंख्यक मुसलमानों द्वारा अंग्रेज़ों की विभाजनकारी नीतियों के प्रभाव में आकर बहुसंख्यक हिन्दुओं के व्यापार, उद्योग, सरकारी नौकरियों, शिक्षा तथा व्यवसाय में प्रभुत्व के विरोध स्वरूप अलगाववादी प्रवत्तियों का प्रसार किया। स्कूलों और महाविद्यालयों में इतिहास विषय की शिक्षण पद्धति ने भी सम्प्रदायवादी विचारों को प्रबल बनाया। ऐसे ही अनेक कारण रहे जिन्होंने अलगाव या साम्प्रदायिकता को जन्म दिया।

साम्प्रदायिकता का अर्थ

साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिक विचारधारा के तीन तत्त्व या चरण होते हैं और उनमें एक तारतम्य होता है। प्रथम चरण में यह विश्वास होता है कि एक ही धर्म को मानने वालों के सांसारिक हित (राजनीतिक, आर्थिक-सामाजिक, सांस्कृतिक) एक समान होते हैं। यह साम्प्रदायिक विचारधारा के उदय का पहला आधार है।

दूसरा तत्त्व यह विश्वास है कि एक धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित अन्य किसी धर्म के अनुयायियों के हित से अलग हैं। साम्प्रदायिकता के इस चरण को उदार साम्प्रदायिकता कहते हैं। वर्ष 1937 के पहले अधिकांश साम्प्रदायिकतावादी मसलन वर्ष 1925 के पूर्व हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, अली बन्धु, वर्ष 1922 के मोहम्मद अली जिन्ना, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, एन सी केलकर को उदारवादी साम्प्रदायिकता के ढाँचे में रख सकते हैं। साम्प्रदायिकता का तीसरा चरण यह दृष्टि रखता है कि हिन्दू तथा मुसलमान या एक धर्म का हित दूसरे धर्म के हित के विरुद्ध है। इसे उग्रवादी साम्प्रदायिकता के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वर्ष 1937 के बाद मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक, जैसे संगठनों की क्रियाविधि को इसके अन्तर्गत देखा जा सकता है।

साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास

1857 ई. के विद्रोह के उपरान्त अंग्रेजों को यह आभास हो गया था कि यदि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्थिर एवं दीर्घजीवी रखना है, तो उन्हें हिन्दुओं व मुस्लिमों की एकता को समाप्त करना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत में ‘बाँटो और राज करो’ की नीति का अनुसरण किया।

लॉर्ड जॉन एल्फिन्स्टन, जो 1853 से 1860 ई. तक बम्बई के गवर्नर थे, उन्होंने लिखा “बाँटो एवं राज करो, यह प्राचीन रोमन कहावत है और यह हमारी भी होनी चाहिए।” इसी प्रकार सर जॉन स्ट्रेची, जो एक प्रशासनिक अधिकारी थे ने लिखा “भारत में भिन्न धर्मों का एक साथ होना हमारी राजनैतिक स्थिति के लिए बहुत अच्छी बात है।” डब्ल्यू डब्ल्यू हण्टर ने अपनी पुस्तक इण्डियन मुसलमान्स (1871) में यह लिखा कि “मुसलमान इतने दुर्बल हैं कि विद्रोह कर ही नहीं सकते’ और उन्होंने मुसलमानों के प्रति नीति में परिवर्तन का सुझाव दिया। यह प्रवृत्ति हिन्दुओं के प्रति सन्तुलन की थी। इस प्रकार भारत में साम्प्रदायिक प्रश्न का आधार राजनैतिक अधिक और धार्मिक कम है।

भारत में साम्प्रदायिकता के उत्थान को निम्नलिखित घटनाक्रमों के माध्यम से समझा जा सकता है

अलीगढ़ आन्दोलन

मुसलमानों को अंग्रेजों के सान्निध्य में लाने में सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898 ई.) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह पहले भारतीय मुसलमान थे जिन्होंने मुसलमानों को संगठन, अंग्रेजी भाषा की शिक्षा, आधुनिकीकरण और अंग्रेजी शासन की सहानुभूति प्राप्त करने का निर्देश दिया। प्रारम्भ में सैयद अहमद खाँ का लक्ष्य साम्प्रदायिक नहीं था, लेकिन अंग्रेजों की कृपा प्राप्त करने हेतु यह आन्दोलन साम्प्रदायिकता से ग्रसित हो गया।

1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना के पश्चात् सर सैयद अहमद खाँ ने इस विचार के अन्तर्गत मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रखने की कोशिश की। उनके द्वारा स्थापित अलीगढ़ विश्वविद्यालय मुस्लिम साम्प्रदायिकता का केन्द्र बन गया। उसके प्रथम प्रधानाचार्य थियोडोर बैक, मॉरीशन एवं आर्चबोल्ड ने इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसी के परिणामस्वरूप 1888 ई. में सैयद अहमद खाँ ने संयुक्त राजभक्त सभा (यूनाइटेड पैट्रियॉटिक एसोसिएशन) का गठन किया। अपने आरम्भिक समय में सर सैयद खाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। सर सैयद अहमद खाँ हिन्दू व मुसलमानों को भारत वधू की दो सुन्दर आँखें कहते थे। आबवाब बगावत ए हिन्द नामक पुस्तक के लेखक सर सैयद अहमद खाँ थे। 1886 ई. में एनुअल मुस्लिम एजुकेशनल कॉन्फ्रेन्स की स्थापना सर सैयद अहमद खाँ ने की थी।

शिमला प्रतिनिधिमण्डल (1 अक्टूबर, 1906)

मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज, अलीगढ़ के प्रधानाचार्य आर्चबोल्ड के सुझाव पर आगा खाँ का एक प्रतिनिधिमण्डल अक्टूबर, 1906 में शिमला में लॉर्ड मेयो से मिला। आर्चबोल्ड बिचौलिए की भूमिका में थे। इसमें इस बात पर सहमति बनी कि मुसलमानों को केवल जनसंख्या के आधार पर स्थानों का आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, बल्कि उनके राजनैतिक महत्त्व एवं साम्राज्य की रक्षा की सेवा के आधार पर भी मिलना चाहिए।

मुस्लिम लीग की स्थापना

शिमला सम्मेलन के पश्चात् मुस्लिम नेताओं ने एक अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का गठन किया, 30 दिसम्बर, 1906 को जब ढाका में मोहम्मडन एजुकेशनल कान्फ्रेंस की बैठक हो रही थी, तभी उस अधिवेशन को ढाका के नवाब सलीमुल्ला की अध्यक्षता में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। सभा में नवाब सलीमुल्ला, मोहसिन उलमुल्क आगा खाँ, तथा नवाब वकार उल मुल्क उपस्थित थे। सभा की अध्यक्षता वकार उलमुल्क ने की थी।

मुस्लिम लीग की स्थापना ने साम्प्रदायिकता के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। अंग्रेजी सरकार ने इसमें उत्प्रेरक का कार्य किया। लीग ने प्रारम्भ से ही अंग्रेजों का समर्थन करने तथा कांग्रेस का विरोध करने की नीति अपनाई। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया और स्वदेशी आन्दोलन और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की नीति का विरोध किया। वर्ष 1908 में आगा खाँ को मुस्लिम लीग का स्थायी अध्यक्ष बनाया गया। वर्ष 1908 में मुस्लिम लीग ने अपने अमृतसर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन मण्डल की माँग की। यह एक साम्प्रदायिक संगठन था, जिसका उद्देश्य मुसलमानों के राजनैतिक एवं अन्य हितों की रक्षा करना था।

वर्ष 1913 के पश्चात् लगभग एक दशक तक मुस्लिम लीग उदारवादी मुस्लिम नेताओं के प्रभाव में आ गई, जिसमें मुहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खाँ, हसन इमाम, जाफर अली खाँ और मौलाना अबुल कलाम आजाद प्रमुख थे। वर्ष 1920-23 में मुस्लिम लीग का कार्य ठप रहा। साइमन आयोग की नियुक्ति लन्दन में हुई गोलमेज कान्फ्रेन्सों से मुस्लिम लीग की राजनीति को गति मिली। जिन्ना, जो पूर्णत: साम्प्रदायिकतावादी हो गए थे, इसके निर्विवाद नेता बन गए।

वर्ष 1909 का सुधार-पृथक् निर्वाचन मण्डल

अंग्रेजी सरकार ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच मतभेद का पूरा लाभ उठाया, ‘फूट डालो एवं शासन करो’ उसकी नीति का प्रमुख आधार बन गया। लॉर्ड मिण्टो, जो उस समय भारत का गवर्नर-जनरल था, ने इस नीति को प्रमुखता से – लागू करने का अनुसरण किया। वर्ष 1909 के अधिनियम में साम्प्रदायिकता का एक प्रमुख तत्त्व, पृथक् निर्वाचन मण्डल को शामिल किया गया। पृथक् निर्वाचन देते हुए लॉर्ड मॉरले ने मिण्टो को लिखे पत्र में कहा था “हम नाग के दाँत बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा।” –

हिन्दू महासभा का उद्भव

वर्ष 1909 में यू एन मुखर्जी तथा लालचन्द ने पंजाब हिन्दू महासभा की स्थापना की। हिन्दू महासभा जोकि हिन्दुओं का एक साम्प्रदायिक संगठन था, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के सम्मेलन एवं प्रतिक्रियास्वरूप अस्तित्व में आया था। इसका मुख्यालय हरिद्वार में था। वर्ष 1915 में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने इसे ‘अखिल भारतीय महासभा’ का स्वरूप प्रदान किया।

इसके वर्ष 1917 में हरिद्वार में आयोजित प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता कासिम बाजार के महाराज ने की थी। इसके आरम्भिक चर्चित नेताओं में मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द आदि थे। वर्ष 1923 में काशी में हिन्दू महासभा का अधिवेशन हुआ।

इस अधिवेशन में सम्पूर्ण देश में बलपूर्वक मुसलमान बनाए गए हिन्दुओं को शुद्ध करने का निश्चय किया गया। सम्पूर्ण देश में शुद्धि आन्दोलन चलाया गया, जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या कर दी गई। वर्ष 1925 में हेडगेवार ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस.) की स्थापना की। बाद में इसके अध्यक्ष एम. एस. गोलवलकर बने।

वर्ष 1937 में महासभा की चुनावी हार के कारण मदनमोहन मालवीय ने राजनीति से संन्यास ले लिया। वर्ष 1938 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वी डी सावरकर हुए। वर्ष 1937 के चुनाव के पश्चात् हिन्दू महासभा तथा के मुस्लिम लीग दोनों ने प्रभाव अर्जित किया था। वर्ष 1940 में इसे इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि गवर्नर-जनरल की कार्यपालिका परिषद् में प्रतिनिधित्व दिया गया।

यद्यपि शिमला सम्मेलन (1946) में हिन्दू महासभा को आमन्त्रित न करके इसकी पूर्ण अवहेलना की गई थी। कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग को समर्थन न करने की नीति ने हिन्दू महासभा की भूमिका को कम किया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1945-46 में केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधानपरिषदों के लिए आयोजित चुनावों में हिन्दू महासभा बुरी तरह पराजित हुई। हिन्दू महासभा के नेता वी. डी. सावरकर ने ही हिन्दू राष्ट्र का नारा दिया।

लखनऊ समझौता (वर्ष 1916)

इस समझौते में पृथक् निर्वाचन प्रणाली को कांग्रेस की स्वीकृति मिल गई और कांग्रेस एवं लीग की एकता उनके नेताओं के मध्य ही सिमटी रही। लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने की थी। पृथक् निर्वाचनमण्डल को स्वीकार करना कांग्रेस की बड़ी भूल थी। वर्ष 1920 में कांग्रेस ने खिलाफत के मुद्दे पर आन्दोलन छेड़ा, जो कांग्रेस की दूसरी बड़ी भूल थी।

नेहरू रिपोर्ट (वर्ष 1928)

मोतीलाल नेहरू समिति, जोकि वर्ष 1928 में एक सर्वदलीय सम्मेलन द्वारा भारत के संविधान निर्माण के लिए गठित की गई थी, ने अपनी रिपोर्ट में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया। इसमें संयुक्त चुनाव प्रणाली तथा स्थानों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई। उन प्रान्तों में जहाँ मुसलमान अल्पसंख्या में थे, मुसलमानों तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में गैर-मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई थी। यह सुरक्षा व्यवस्था जनसंख्या के आधार पर की गई थी। इसे जिन्ना ने हिन्दू हितों का दस्तावेज कहकर अस्वीकार कर दिया।

पृथक् पाकिस्तान के लिए आन्दोलन

वर्ष 1930 में सर मोहम्मद इकबाल ने इलाहाबाद के मुस्लिम लीग अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने भाषण में कहा “मुस्लिम हितों की सुरक्षा एक पृथक् राज्य की स्थापना के द्वारा ही सम्भव है।” अपने इन विचारों से इकबाल ने उन सभी मुस्लिम बुद्धिजीवियों को गम्भीरता से प्रभावित किया, जो अलगाववाद के समर्थक थे।

यद्यपि इकबाल ने पाकिस्तान शब्द को जन्म नहीं दिया था। ‘पाकिस्तान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग गोलमेज सम्मेलनों के दौरान मुस्लिम नेताओं को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक छात्र चौधरी रहमत अली ने बताया। उन्होंने 28 जनवरी, 1933 को एक पैम्फलेट प्रकाशित किया। “Now or Never : Are We to Live or Perish Forever?”

उन्होंने दक्षिण में हैदराबाद (उस्मानिस्तान), उत्तर-पूर्व में बंगाल एवं असम (बंग-ए-इस्लाम) तथा पश्चिम में पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त, कश्मीर (पाकिस्तान) के तीन मुसलमानी राज्यों को एक संघ-राज्य में सम्मिलित करके उसका नाम पाकिस्तान रखने का विचार व्यक्त किया।

कांग्रेस मन्त्रिमण्डल एवं मुस्लिम लीग

वर्ष 1938 के अधिनियम के आधार पर वर्ष 1937 में जब प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं के सदस्यों के लिए चुनाव हुए, तब लीग और कांग्रेस के सम्बन्ध अधिक खराब हो गए। प्रान्तीय चुनावों के परिणाम जिन्ना के दृष्टिकोण से अति निराशाजनक रहे। 11 प्रान्तों में मुसलमानों के पृथक् निर्वाचनमण्डल के अन्तर्गत आवण्टित कुल 485 सीटों में से मुस्लिम लीग को केवल 108 सीटें मिलीं, शेष सीटें अन्य दलों ने जीतीं। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त तथा सिन्ध में 33 मुस्लिम आरक्षित सीट में से 3 पर विजय मिली। पंजाब में उसे 48 में से केवल 1 सीट और बंगाल में 177 में से केवल 40 सीटें ही मिलीं।

मुस्लिम बहुल चार राज्यों में से किसी में भी मुस्लिम लीग अपनी सरकार नहीं बना सकी। वर्ष 1937 के चुनावों के पश्चात् लीग ने कांग्रेस के समक्ष मिली-जुली सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु कांग्रेस ने शर्त रखी कि लीग कांग्रेस में अपना विलय कर ले, परन्तु लीग ने ऐसा नहीं किया और इसके पश्चात् लीग ने अपना जनाधार बढ़ाने का अभियान संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) से प्रारम्भ किया।

पंजाब में उसे सिकन्दर हयात खाँ एवं बंगाल में फजलुल हक के नेतृत्व वाले मन्त्रिमण्डल में शामिल होना पड़ा। चुनाव परिणाम के पश्चात् लीग ने अधिक कट्टरता से कार्य किया। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस शासित राज्यों में मुसलमानों की कठिनाइयों की जाँच करने के लिए एक समिति गठित कर दी। वर्ष 1939 में जब कांग्रेस मन्त्रिमण्डल ने त्याग-पत्र दे दिया, तब लीग ने इसे मुक्तिदिवस (22 दिसम्बर, 1939) के रूप में मनाया।

पीरपुर रिपोर्ट (वर्ष 1938)

वर्ष 1938 में लीग के द्वारा राजा मोहम्मद मेंहदी, जो पीरपुर के राजा थे, के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया। इसने 15 नवम्बर, 1938 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में मुसलमानों के धार्मिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप, हिन्दी को लादे जाने एवं उर्दू का दमन किए जाने, रोजगार में न्यायोचित प्रतिनिधित्व न दिए जाने आदि, जैसी कपोलकल्पित शिकायतें सामने रखी गईं।

पीरपुर रिपोर्ट में यह बात कही गई कि हिन्दू महासभा तथा कांग्रेस का उद्देश्य एक ही है। उल्लेखनीय है कि इस समिति का गठन, मन्त्रिमण्डल के गठन के 8 महीने पहले ही किया गया। जिन्ना ने इस रिपोर्ट का दुष्प्रचार कर अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुस्लिम लीग के झण्डे तले एक जनसम्पर्क अभियान चलाया।

धर्म की दुहाई देकर मुल्लाओं की सेवा का जमकर उपयोग किया गया। ‘वालेण्टियर कार’ तथा ‘नेशनल मार्ड’ का संगठन किया गया। पंजाब में मुसलमानों के एक उग्रवादी राजनैतिक दल ‘खाकसार’ की सेवाएँ सुनिश्चित की गईं। जिन्ना ने इस दावे का आधार तैयार करने की कोशिश की कि ‘मुस्लिम लीग भारतीय मुसलमानों का एकमात्र संगठन’ है। कालान्तर में उन्होंने इस दावे को कांग्रेस से मनवाने की कोशिश की।

लाहौर प्रस्ताव (वर्ष 1940)

मुस्लिम लीग ने अपने 27वें अधिवेशन में जो मोहम्मद अली जिन्ना की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था, लाहौर प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को पारित किया। इसे बंगाल के प्रधानमन्त्री फजलुल हक ने प्रस्तावित किया था। पंजाब के मुख्यमन्त्री सिकन्दर हयात खाँ ने इस प्रस्ताव को लिखा था। इस प्रस्ताव में सार रूप में निम्न बातें कही गई थीं। “जिन क्षेत्रों में मुसलमान संख्या बल के तौर पर बहुमत में हैं, जैसे कि भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र और पूर्वी क्षेत्र उन क्षेत्रों को मिलाकर एक स्वतन्त्र राज्य बना दिया जाए।

इन राज्यों में निर्वाचन इकाइयाँ स्वायत्त एवं सम्प्रभु होंगी। दोनों क्षेत्रों के पास प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, संचार, सीमा शुल्क और सभी यथावश्यक मामलों जैसी सभी शक्तियाँ होंगी। संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए पर्याप्त प्रभावी अनिवार्य सुरक्षापायों का विशिष्ट प्रावधान किया जाना चाहिए।”

मुस्लिम लीग ने मुसलमानों से कहा कि वे भारत छोड़ो आन्दोलन में किसी भी प्रकार भाग लेने से दूर रहें। जिन्ना का मानना था कि “भारत छोड़ो आन्दोलन एक खतरनाक जन आन्दोलन है, जिसका अभिप्राय बन्दूक की नोंक पर कांग्रेस की माँगे माने जाने पर विवश करना है। अगर यह माँगे मान ली गईं, तो अन्य सभी हितों का विशेषकर भारत में मुसलमानों के हितों का बलिदान करना पड़ेगा।” भारत छोड़ो आन्दोलन में मुस्लिम लीग ने हिस्सा नहीं लिया एवं वर्ष 1943 के कराची सत्र में बाँटो एवं छोड़ो का नारा दिया।

राजगोपालाचारी फॉर्मूला (वर्ष 1943)

वर्ष 1942 में कांग्रेस से त्याग-पत्र दे चुके चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपनी वैयक्तिक हैसियत से वर्ष 1943 में एक सूत्र प्रस्तुत किया, जिसमें जिन्ना के साथ उसकी ‘पाकिस्तान’ सम्बन्धी माँग पर बातचीत का प्रस्ताव था। इसके अन्तर्गत निम्न बिन्दु थे

  • स्वाधीनता की माँग का और मुस्लिम, भारत की अन्तरिम काल के लिए अन्तरिम सरकार के गठन में कांग्रेस का सहयोग करें।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् भारत के उत्तर-पश्चिम में एवं पूर्व में, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या स्पष्ट बहुमत में है, ऐसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र के सीमांकन के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाए। ऐसे सीमांकित क्षेत्रों में समस्त निवासियों का वयस्क मताधिकार या किसी अन्य प्रकार के प्रायोगिक मतदान के आधार पर भारतीय संघ से पृथक् होने के सवाल का निपटारा किया जाए। उक्त प्रकार से किए गए जनमत संग्रह में यदि एक पृथक् एवं सम्प्रभु राज्य की स्थापना का निर्णय लिया जाता है, तो उसे क्रियात्मक रूप दे दिया जाएगा। सभी सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को यह स्वतन्त्रता होगी कि किसी भी राज्य को चुन लें।
  • सभी दलों को अधिकार होगा कि जनमत संग्रह से पहले वह अपने दृष्टिकोण का प्रचार कर सकें। बँटवारे की स्थिति में प्रतिरक्षा, संचार एवं वाणिज्य जैसी कुछ साझा सेवाओं को संयुक्त रूप से बनाए रखने के लिए परस्पर समझौते किए जाएंगे।
  • आबादी का हस्तान्तरण पूर्णतः स्वेच्छा के आधार पर होगा। पूरी योजना तभी लागू की जाएगी, जब अंग्रेजों से सत्ता का हस्तान्तरण हो जाए।

जिन्ना ने इस फॉर्मूले को कटा-फटा एवं घुन लगा पाकिस्तान देने की पेशकश कह कर ठुकरा दिया, परन्तु इस मुद्दे पर गाँधीजी से बात करने के लिए वे राजी हो गए। यहीं पहली बार गाँधीजी ने जिन्ना को कायद-ए-आजम कहकर उनका सम्मान बढ़ाया।

गाँधी-जिन्ना वार्ता

(वर्ष 1944) गाँधीजी ने अपनी ओर से राजगोपालाचारी के फॉर्मूले के आधार पर जिन्ना से वार्ता करने का अनुरोध किया था। गाँधी-जिन्ना वार्ता ने विभिन्न लोगों के मध्य रोष बढ़ा दिया। सावरकर ने कहा “भारतीय प्रान्त गाँधीजी तथा राजाजी की निजी जागीर नहीं कि वे अपनी पसन्द से किसी को भी इन्हें उपहार में दे दें।”

वार्ता के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित थे

  • गाँधीजी ने इस विचार को नहीं माना कि भारतीय मुसलमान एक अलग राष्ट्र का हिस्सा हैं, जबकि जिन्ना इसे आधारभूत सिद्धान्त मानते थे, और इस पर ही उनका पाकिस्तान का दावा टिका हुआ था। गाँधीजी मानते थे कि भारत एक बहुसदस्यीय संयुक्त परिवार की भाँति है, जिसमें मुसलमान भी सदस्य के रूप में हैं।
  • गाँधीजी ने प्रस्तावित किया कि बलूचिस्तान सिन्ध, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त, पंजाब, बंगाल, असम के कुछ भागों में रहने वाले मुसलमान ही शेष भारत से पृथक् होकर नए राज्य का गठन करना चाहते हैं, जबकि जिन्ना ने कहा कि पाकिस्तान में उपरोक्त के ने अलावा लाहौर प्रस्ताव (1940) में इंगित क्षेत्रीय समायोजन को भी शामिल किया जाना चाहिए।
  • गाँधीजी का विचार था कि पृथक् मुस्लिम राज्य का सृजन भारत की स्वतन्त्रता के बाद किया जाएगा, जबकि जिन्ना की माँग थी कि इस समस्या का निपटारा तत्काल एवं फौरी तौर (शीघ्र) पर होना चाहिए।
  • गाँधीजी ने सुझाव दिया कि भारत विभाजन की एक सन्धि सम्पन्न की जाए। जिसमें विदेशी मामलों, प्रतिरक्षा, संचार के सक्षम एवं सन्तोषप्रद प्रशासन को साझा हित के विषय मानने का प्रावधान किया जाए, परन्तु जिन्ना ने स्पष्ट कहा कि ये सभी मामले, जो किसी राज्य के जीवन तत्त्व हैं, किसी साझा केन्द्रीय प्राधिकरण अथवा सरकार को नहीं सौंपे जा सकते।
  • गाँधी-जिन्ना वार्ता ने जिन्ना के कद को ऊँचा किया तथा मुस्लिम लीग की शक्ति बढ़ी। गाँधी-जिन्ना वार्ता 9 सितम्बर, 1944 को शुरू हुई और 27 सितम्बर तक चली, लेकिन दोनों पक्ष किसी एक पक्ष की सहमति पर न पहुँच सके।

देसाई-लियाकत पैक्ट (वर्ष 1945)

कांग्रेस के नेता भूलाभाई देसाई तथा लीग के नेता लियाकत अली खान को लीग व कांग्रेस के बीच के गतिरोध का हल करने के लिए वार्ता हुई जिसके बाद 1 जनवरी, 1945 केन्द्रीय विधानमण्डल में कांग्रेस के नेता भूलाभाई देसाई एवं मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खान ने मिलकर केन्द्र में अन्तरिम सरकार के गठन हेतु एक प्रस्ताव तैयार किया।

इसके अनुसार

  • अन्तरिम सरकार में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों केन्द्रीय विधानमण्डल से अपने समान सदस्य मनोनीत करेंगे। सदस्यों में 20% स्थान अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षित रहेंगे।
  • लेकिन इस समझौता प्रस्ताव के द्वारा कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के मध्य कोई सहमति होने की बात तो दूर रही, दोनों के मतभेद और गहरे हो गए।

वेवेल प्लान एवं शिमला वार्ता (वर्ष 1945)

वेवेल प्लान के द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् का पुनर्गठन हुआ। जिसके अनुसार वायसराय एवं मुख्य सेनापति को छोड़कर सभी सदस्य भारतीय होने थे। यह परिषद् भारतीय परिषद् के रूप में होगी एवं तब तक कार्य करेगी, जब तक किसी स्थायी संविधान का निर्माण नहीं हो जाता, साथ ही इस परिषद् में हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्रतिनिधित्व रहेगा।

25 जून, 1945 को शिमला सम्मेलन में इस पर वार्ता हुई। जिन्ना ने यह माँग रखी कि प्रस्तावित परिषद् में मुस्लिम सदस्यों को नामित करने का अधिकार केवल मुस्लिम लीग को है। इसका सीधा अर्थ था कि कांग्रेस, परिषद् में मुस्लिम सदस्य नामित नहीं कर सकेगी। इसके साथ ही मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए गवर्नर-जनरल के वीटो अधिकारों को और अधिक सशक्त बनाया गया।

इसमें यह भी प्रावधान किया गया कि यदि किसी निर्णय पर मुसलमानों को आपत्ति हो, तो उसे केवल 2/3 बहुमत से या किसी अन्य प्रकार की ऐसी व्यवस्था के द्वारा ही लागू किया जाए। अतः शिमला वार्ता विफल हो गई कांग्रेस तथा ब्रिटिश सरकार दोनों इससे सहमत नहीं थे।

वर्ष 1945-46 का चुनाव

वर्ष 1945-46 के चुनाव में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग सहित विभिन्न दलों ने भाग लिया। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों से कहा कि वे लीग को इसलिए वोट दें, क्योकि लीग एवं पाकिस्तान को दिया जाने वाला हर वोट इस्लाम को दिया गया वोट होगा।

इन चुनावों में लीग को भारी सफलता मिली। पृथक् निर्वाचनमण्डल के अन्तर्गत मुसलमानों के लिए आरक्षित 90% सीटों पर उसने कब्जा कर लिया। मुस्लिम लीग ने केन्द्रीय विधानसभा की सभी मुस्लिम आरक्षित सीटों पर कब्जा कर लिया। प्रान्तों में कुल 495 आरक्षित सीटों में से उसने 440 सीटों पर कब्जा कर लिया। अप्रैल, 1946 में मुस्लिम लीग ने में विधायकों का एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें जिन्ना ने घोषणा की, कि एक सम्प्रभु पाकिस्तान राज्य के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा।

कैबिनेट मिशन (वर्ष 1946)

कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम लीग की स्वतन्त्र पाकिस्तान की माँग को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि इससे साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा। फिर भी लीग को खुश करने के लिए मिशन ने एक कमजोर केन्द्रीय सरकार का प्रस्ताव किया, जिसके पास केवल सीमित अधिकार थे। इसमें प्रान्तीय समूहबद्धता का भी प्रस्ताव किया गया।

इस बीच संविधान सभा के लिए जुलाई, 1946 में चुनाव हुए, जिसमें 296 सीटों के लिए कांग्रेस को 212 सदस्यों का भारी बहुमत मिला और मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व करने के लिए केवल तीन सदस्य चुने गए। उसने संविधान सभा में आयोजित चुनावों में भाग लेने के बावजूद संविधान सभा में शामिल होने से इनकार कर दिया था। संविधान सभा में कांग्रेस के भारी बहुमत से लोग घबरा गई और उसने कैबिनेट मिशन योजना की अपनी स्वीकृति वापस ले ली और पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए सीधी कार्यवाही का आह्वान किया।

प्रत्यक्ष कार्यवाही (वर्ष 1946)

मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को जिन्ना के नेतृत्व में प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस (डायरेक्ट एक्शन डे) घोषित किया। प्रत्यक्ष कार्यवाही द्वारा लीग ने संवैधानिक माँग को तिलांजलि दे दी और पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सड़कों पर विरोध का रास्ता अपनाया।

इस कार्यक्रम के अनुसार 16 अगस्त, 1946 को सारे भारत में विरोध सभाएँ आयोजित करनी थी, परन्तु इसका सबसे दु:खद पहलू कलकत्ता में सामने आया। सुहरावर्दी की सरकार ने उस दिन सार्वजनिक अवकाश की घोषणा कर दी, जिसके कारण समाज के एक बहुत बड़े वर्ग के पास उस दिन कोई व्यस्तता नहीं रही। इस निर्णय को दंगे में एक बड़ी भूमिका के रूप देखा जाता है। वर्ष 1946-47 के दौरान कलकत्ता, नोआखली (पूर्वी बंगाल), बिहार, संयुक्त प्रान्त, पंजाब सहित अनेक स्थानों पर भीषण दंगे हुए।

सरकार (वर्ष 1946)

अन्तरिम अनिच्छा से स्वीकार किए गए कैबिनेट मिशन के पश्चात् एक अन्तरिम सरकार का गठन किया वायसराय ने कांग्रेस के अध्यक्ष पण्डित जवाहर लाल नेहरू को भारत में एक अन्तरिम सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। इसमें कांग्रेस द्वारा नामित 12 सदस्य थे, इनमें से तीन मुस्लिम सदस्यों को भी शामिल किया गया था। नेहरू इसके उपाध्यक्ष थे। प्रारम्भ में मुस्लिम लीग इसमें शामिल नहीं हुई थी, 26 अक्टूबर, 1946 को वेवेल ने मुस्लिम लीग द्वारा नामित पाँच सदस्यों [ 4 मुस्लिम, 1 हिन्दू (अनुसूचित जाति)] को भी अन्तरिम सरकार में शामिल कर लिया।

यह कैबिनेट मिशन योजना का उल्लंघन था, लेकिन कांग्रेस ने इसे विवशतावश स्वीकार कर लिया। अन्तरिम सरकार में दोनों दलों के बीच संघर्ष से प्रशासन पंगु हो गया। फरवरी, 1947 में नेहरू । अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के सदस्यों के त्याग-पत्र की माँग कर दी और दो दिन बाद सरदार पटेल ने घोषणा कर दी कि यदि मुस्लिम लीग के सदस्य अन्तरिम सरकार से नहीं हटेंगे, तो कांग्रेस सदस्य अन्तरिम सरकार से त्याग-पत्र दे देंगे।

माउण्टबेटन प्लान (वर्ष 1947)

लॉर्ड माउण्टबेटन ने स्वतन्त्रता एवं विभाजन से सम्बन्धित एक योजना प्रस्तुत की। इस योजना के माध्यम से मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग पूरी हो गई। भारत एवं पाकिस्तान के रूप में दो राष्ट्रों का उद्भव हुआ।

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